गोमुख ने कहा, श्रावस्ती में शूरसेन नाम का एक राजपुत्र था। वह राजा का ग्रामभुक था। राजा के लिए उसके मन में बड़ी सेवा भावना थी। उसकी पत्नी सुषेणा उसके सर्वथा अनुरूप थी और वह भी उसे अपने प्राणों की तरह चाहता था। एक बार श्रावस्ती के राजा का पड़ोसी राजा से युद्ध हुआ और सेना प्रस्थान करने लगी तो राजा ने शूरसेन का स्मरण किया। शूरसेन ने सुषेणा से कहा, राजा ने सेना के साथ जाने के लिए बुलाया है। मुझे जाना है। सुषेणा ने कहा, आर्यपुत्र, मुझे यहाँ अकेली छोड़कर मत जाओ। मैं यहाँ आपके बिना एक क्षण भी न रह सकूँगी। शूरसेन ने कहा, सुन्दरी! राजा ने बुलाया है और मैं न जाऊँ, ऐसा कैसे हो सकता है। मैं राजसेवक हूँ। स्वाधीन नहीं हूँ। राजाज्ञा का पालन करना मेरे लिए आवश्यक है। सुषेणा बोली, यदि आपके लिए जाना आवश्यक ही है, तो इतना जान लीजिए, कि आपके बिना मैं रह नहीं पाऊँगी। शूरसेन ने उसे समझाया-बुझाया।
तब सुषेणा ने वचन लिया कि वसन्त के आते ही शूरसेन लौट आएगा। वह बोली कि यदि वसन्त के आने के पश्चात आपके आने में एक दिन का भी विलम्ब हुआ, तो मैं जीवित नहीं रहूँगी। शूरसेन ने भी वचन दिया, प्रिये! चैत्र मास के पहले दिन चाहे जो भी कार्य हो, मैं सब छोड़कर तुम्हारे पास लौट आऊँगा। तब सुषेणा ने उसे जाने की अनुमति दे दी। शूरसेन सेना के साथ चला गया। सुषेणा चैत्र मास के पहले दिन की व्याकुलता के साथ प्रतीक्षा करने लगी। वह प्रतिदिन दिवसगणना करती रहती। एक-एक करके किसी तरह दिन बीतने लगे। मधूत्सव (वसन्तोत्सव) का दिन आ गया। कोकिल कूजन कर रहे थे, नगर में उल्लास छाया हुआ था। सुषेणा भी सोच रही थी कि वसन्तोत्सव का दिन आ गया, आज तो प्रिय अवश्य ही लौट आएँगे। उसने स्नान करके अच्छी तरह शृंगार किया और प्रिय का बाट जोहती रही। शूरसेन नहीं आया। दिन बीता, साँझ हुई, फिर रात आ गयी। सुषेणा के चित्त को निराशा ने ग्रस लिया।
वह सोचने लगी-मेरे मृत्यु का समय आ गया, प्रिय नहीं आये। परसेवा के कार्य में लगे रहने वाले लोगों के जी में अपनों के लिए स्नेह बच ही कहाँ पाता है! इस प्रकार अपने प्रिय का चिन्तन करते हुए विरह के दावानल में झुलसते हुए उसके प्राण निकल गये। इधर शूरसेन दिन भर तो सेना के कार्य में व्यस्त रहा, साँझ होते ही राजा से किसी तरह अनुमति लेकर वह गाँव चल पड़ा। वह एक तेज चलने वाले ऊँट पर सवार हुआ। उसके प्राण कण्ठ में आ रहे थे। ऊँट को सरपट भगाता हुआ वह किसी तरह आधी रात होते-होते घर पहुँच पाया। घर पहुँचकर देखा कि प्रिया सेज पर सोयी हुई थी, उसने अपूर्व शृंगार कर रखा था और सारे अलंकार पहन रखे थे।
शूरसेन ने जैसे ही उसे अंक में उठाया, तो जान गया कि सुषेणा की देह में प्राण नहीं हैं। फिर तो वह उसका मृत देह अंक में भरे हुए करुण विलाप करने लगा और विलाप करते-करते ही शोक के आवेग में उसके भी प्राण निकल गये। कुलदेवी चण्डी ने देखा कि एक-दूसरे के लिए निश्छल प्रेम के कारण दोनों दम्पती ने प्राण दे दिये हैं, तो उसने दोनों को जीवन प्रदान कर दिया और दोनों सहसा जी उठे, तो एक-दूसरे के अंक में अपने को पाकर आनन्द से विभोर हो गये।
इतनी कथा सुनाकर गोमुख ने कहा, हे महाराज! प्रियजनों का वियोग इसी तरह पीड़ादायी होता है। गोमख की सुनायी कथा से नरवाहनदत्त का मन अपने पिता और माता के लिए और भी अकुला उठा। किसी तरह उसने दिन बिताया। रात को कठिनाई से उसे नींद आ पायी और नींद आने पर उसने एक सपना देखा। सपने में क्या देखता है कि उसके पिता महाराज उदयन को काले रंग की कोई स्त्री दक्षिण दिशा की ओर खींचकर ले जा रही है। नरवाहनदत्त ने उससे पूछा, बताओ, मेरे इस स्वप्न का क्या अर्थ है? प्रज्ञप्ति ने कहा, देव, सुनिए! महाराज उदयन को समाचार मिला है कि उनके ससुर महाराज चण्डमहासेन नहीं रहे और सास देवी अंगारवती उनकी चिता पर सती होने जा रही हैं। यह समाचार सुनकर वे मूर्च्छित हो गये हैं, कुछ देर में ही वे देवी वासवदत्ता को लेकर उज्जयिनी प्रस्थान करेंगे।
प्रज्ञप्ति विद्या से नरवाहनदत्त को जो सूचना मिली थी, वह सत्य थी। महाराज उदयन को जैसे ही अपने ससुर महाराज चण्डमहासेन के निधन का समाचार मिला, वे शोकाकुल हो गये। फिर किसी तरह धैर्य धारण कर महारानी वासवदत्ता को साथ लेकर वे उज्जयिनी पहुँचे। उज्जयिनी में महाराज उदयन चण्डमहासेन के शव से लिपट कर फूट-फूटकर रोने लगे। उज्जयिनी के मन्त्रियों ने उन्हें समझाया, महाराज! धीरज रखिए। महाराज चण्डमहासेन ने पूरी आयु भरपूर जीवन जीया, इनके गोपालक जैसा पुत्र और आपके जैसा दामाद है।
ये शोक के योग्य नहीं हैं। इस तरह समझाये बुझाये जाने पर महाराज उदयन ने किसी तरह आश्वस्त होकर अपने ससुर के और्ध्वदैहिक कृत्य निपटाने में सहयोग किया। इसके पश्चात महाराज उदयन को जैसे संसार से वैराग्य-सा हो गया। वे यौगन्धरायण से कहने लगे, यह संसार असार है। अब मुझे मुक्ति के लिए यत्न करना चाहिए। अब मुझे चाहिए भी क्या। बेटा नरवाहन तो विद्याधरों का चक्रवर्ती हो गया। सारे भोग हमने भोग लिये। इसलिए अब हम कालंजर गिरि पर जाकर इस देह का त्याग करेंगे। यह निश्चय करके महाराज उदयन ने पालक का राज्याभिषेक उज्जयिनी के राजपद पर तथा गोपालक का राज्याभिषेक बलपूर्वक समझा-बुझाकर कौशाम्बी के राजपद पर कर दिया और कालंजर गिरि जाने को तैयार हो गये। महारानी वासवदत्ता तथा यौगन्धरायण, रुमण्वान आदि मन्त्रियों ने कहा कि हम लोग आपके साथ ही चलेंगे।
महाराज उदयन के पीछे-पीछे गोपालक और कौशाम्बी के प्रजाजन रोते-रोते चलने लगे। महाराज उदयन ने उन सबको समझा-बुझाकर लौटाया। पर कालंजर गिरि पर जाकर अपनी पत्नी और मन्त्रियों के साथ उन्होंने देहत्याग किया। महाराज उदयन के चले जाने पर गोपालक का मन कौशाम्बी में नहीं लगा। उसने छोटे भाई पालक को बुलाकर कहा कि तुम उज्जयिनी और कौशाम्बी दोनों का राज्य सँभालो और बहुत आग्रह करके उसे कौशाम्बी का राज्य सौंपकर वह तपोवन चला गया। नरवाहनदत्त को अपनी विद्या के प्रभाव से सब वृत्तान्त विदित हुआ, तो उसने शोकाकुल होकर पिता और माता का और्ध्वदैहिक कृत्य पूरा किया। उसके बाद से तो उसे विद्याधर राज्य का अटूट ऐश्वर्य भी निस्सार प्रतीत होने लगा। इधर गोपालक का छोटा भाई पालक उज्जयिनी तथा कौशाम्बी का राज्य सँभालने लगा।
एक दिन उसके मन्त्रियों ने कहा, राजन्! आज जलदानोत्सव है। आप जलदान कराइए। पालक ने पूछा, जलदानोत्सव क्यों कराया जाता है? मन्त्रियों ने कहा, आपके पिता महाराज चण्डमहासेन ने अंगारक नामक असुर को मारकर उसकी पुत्री देवी अंगारवती से विवाह किया था। मरते समय असुर ने शाप दिया था कि जिसने भी उसे मारा है,
वह यदि प्रतिवर्ष उसके लिए जलदानोत्सव नहीं कराएगा, तो उसके मन्त्री मारे जाएँगे। इसलिए उज्जयिनी में प्रतिवर्ष उस असुर की पुण्यतिथि पर जलदानोत्सव कराया जाता है।
यह सुनकर पालक ने जलदानोत्सव की आज्ञा दे दी। सारा नगर कोलाहल नृत्य, संगीत में डूब गया। उसके कोलाहल में राजा की सेना का एक हाथी बावला होकर आलान तोड़कर भाग निकला। मेंठ (महावत) और महापात्र उसे वश में करने के लिए दौड़े, पर उनमें से किसी का उस पर बस न चला, न अंकुशों के प्रहार का उस पर कोई प्रभाव हुआ। लोग उसके भय से राजमार्ग छोड़कर भागने लगे। सारे नगर में भगदड़ मच गयी। भागते-भागते वह हाथी नगर के बाहर चण्डालवाट में जा पहुँचा।
वह चण्डालवाट में भीतर घूमने लगा। तभी एक परिपूर्ण यौवनवती परम रूपवती चाण्डालकन्या किसी घर से बाहर आयी। उसने उस हाथी के सामने जाकर उसकी सूँड पकड़ ली। हाथी पर उसके छूते ही जादू की तरह प्रभाव हुआ। वह चीखना-चिंघाड़ना और भागना बन्द कर उसके आगे शान्त बैठ गया। तब वह सुन्दरी उसके ऊपर चढ़ गयी। तब हाथी खड़ा हो गया और धीरे-धीरे उसे नगर में घुमाने लगा। इसी समय पालक के पुत्र राजकुमार अवन्तिवर्धन की दृष्टि हाथी पर बैठी उस कन्या पर पड़ी।
उज्जयिनी के लोग तो चकित होकर उस चमत्कार को देख ही रहे थे कि जो हाथी बड़े-बड़े मेंठों और महापात्रों के बस में न आया, उसे इस कन्या ने जैसे क्रीतदास बना लिया। राजकुमार अवन्तिवर्धन भी मुग्ध होकर उस कन्या को देखता रहा गया। तभी उस कन्या की दृष्टि भी राजकुमार पर पड़ी और वह राजकुमार को निर्निमेष नेत्रों से निहारती रह गयी। इसी समय वह हाथी भी धूप अधिक होने से उस कन्या को जैसे विश्राम देने के लिए एक पेड़ की छाया में रुक गया। तभी उस हाथी के रखवाने महावत आ गये।
वह कन्या हाथी से उतरी और राजकुमार को प्रेम से भरे नयनों से ताकती हुई चण्डालवाट में लौट गयी। राजकुमार का जी उस उत्सव से उचट गया। चाण्डालकन्या उसके चित्त में बस गयी। उसने हँसना-बोलना बन्द कर दिया और रात-दिन चाण्डालकन्या के ध्यान में ही डूबा रहने लगा। राजकुमार की यह स्थिति देखकर माता अवन्तिदेवी और पिता पालक तथा उसके मित्र चिन्तित हो उठे। महाराज पालक ने पता लगवाया। वह कन्या उत्पलहस्त नामक चाण्डाल की बेटी थी। उसका नाम सुरतमंजरी था।
उसके अप्रतिम रूप की चर्चा चण्डालवाट से बाहर निकलकर सारे नगर में फैल गयी थी। महाराज पालक असमंजस में पड़ गये कि बेटे को प्रेम भी हुआ तो अन्त्यज की बेटी से, अब क्या करें। रानी अवन्तिदेवी ने कहा, पुत्र को समझाया जाए तो हो सकता है, वह मान जाए। महाराज पालक ने कहा, प्रेम की गति विचित्र होती है देवि। समझाने-बुझाने का हमारे पुत्र पर कोई प्रभाव न होगा। महाराज प्रसेनजित के राजकुल में भी ऐसा हो चुका है।