चुनारगढ़ किले के अंदर एक कमरे में महाराज सुरेंद्रसिंह, वीरेंद्रसिंह, जीतसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह बैठे हुए कुछ बातें कर रहे हैं।

जीत - भैरो ने बड़ी होशियारी का काम किया कि अपने को इंद्रजीतसिंह की सूरत बना शिवदत्त के ऐयारों के हाथ फंसाया।

सुरेंद्र - शिवदत्त के ऐयारों ने चालाकी तो की थी मगर...

वीरेंद्र - बाबाजी शेर पर सवार हो सिद्ध बने तो लेकिन अपना काम सिद्ध न कर सके।

इंद्र - मगर जैसे हो भैरोसिंह को अब बहुत जल्द छुड़ाना चाहिए।

जीत - कुमार, घबराओ मत, तुम्हारे दोस्त को किसी तरह की तकलीफ नहीं हो सकती, लेकिन अभी उसका शिवदत्त के यहां फंसे ही रहना मुनासिब है। वह बेवकूफ नहीं है, बिना मदद के आप ही छूटकर आ सकता है, तिस पर पन्नालाल, रामनारायण, चुन्नीलाल, बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी उसकी मदद को भेजे ही गये हैं, देखो तो क्या होता है! इतने दिनों तक चुपचाप बैठे रहकर शिवदत्त ने फिर अपनी खराबी कराने पर कमर बांधी है।

देवी - कुमारों के साथ जो फौज शिकारगाह में गई है उसके लिए अब क्या हुक्म होता है

जीत - अभी शिकारगाह से डेरा उठाना मुनासिब नहीं। (तेजसिंह की तरफ देखकर) क्यों तेज

तेज - (हाथ जोड़कर) जी हां, शिकारगाह में डेरा कायम रहने से हम लोग बड़ी खूबसूरती और दिल्लगी से अपना काम निकाल सकेंगे।

सुरेंद्र - कोई ऐयार शिवदत्तगढ़ से लौटे तो कुछ हाल-चाल मालूम हो।

तेज - कल तो नहीं मगर परसों तक कोई न कोई जरूर आयेगा।

पहर भर से ज्यादे देर तक बातचीत होती रही। कुल बात को खोलना हम मुनासिब नहीं समझते बल्कि आखिरी बात का पता तो हमें भी न लगा जो मजलिस उठने के बाद जीतसिंह ने अकेले में तेजसिंह को समझाई थी। खैर जाने दीजिए, जो होगा देखा जायगा, जल्दी क्या है।

गंगा के किनारे ऊंची बारहदरी में इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह दोनों भाई बैठे जल की कैफियत देख रहे हैं। बरसात का मौसम है, गंगा खूब बढ़ी हुई हैं, किले के नीचे जल पहुंचा है, छोटी-छोटी लहरें दीवारों में टक्कर मार रही हैं, अस्त होते हुए सूर्य की लालिमा जल में पड़कर लहरों की शोभा दूनी बढ़ा रही है। सन्नाटे का आलम है, इस बारहदरी में सिवाय इन दोनों भाइयों के कोई तीसरा दिखाई नहीं देता।

इंद्र - अभी जल कुछ और बढ़ेगा।

आनंद - जी हां, परसाल तो गंगा आज से कहीं ज्यादे बढ़ी हुई थीं जब दादाजी ने हम लोगों को तैरकर पार जाने के लिए कहा था।

इंद्र - उस दिन भी खूब ही दिल्लगी हुई, भैरोसिंह सभों में तेज रहा, बद्रीनाथ ने कितना ही चाहा कि उसके आगे निकल जाय मगर न हो सका।

आनंद - हम दोनों भी कोस भर तक उस किश्ती के साथ ही गए जो हम लोगों की हिफाजत के लिए संग गई थी।

इंद्र - बस वही तो हम लोगों का आखिरी इम्तिहान रहा, फिर जब से जल में तैरने की नौबत ही कहां आई।

आनंद - कल तो मैंने दादाजी से कहा था कि आजकल गंगाजी खूब बढ़ी हुई हैं तैरने को जी चाहता है।

इंद्र - तब क्या बोले

आनंद - कहने लगे कि बस अब तुम लोगों का तैरना मुनासिब नहीं है, हंसी होगी। तैरना भी एक इल्म है जिसमें तुम लोग होशियार हो चुके, अब क्या जरूरत है ऐसा ही जी चाहे तो किश्ती पर सवार होकर जाओ सैर करो।

इंद - उन्होंने बहुत ठीक कहा, चलो किश्ती पर थोड़ी दूर घूम आयें।

बातचीत हो ही रही थी कि चोबदार ने आकर अर्ज किया, ''एक बहुत बूढ़ा जौहरी हाजिर है, दर्शन किया चाहता है।''

आनंद - यह कौन-सा वक्त है

चोबदार - (हाथ जोड़कर) ताबेदार ने तो चाहा था कि इस समय उसे बिदा करे मगर यह खयाल करके ऐसा करने का हौसला न पड़ा कि एक तो लड़कपन ही से वह इस दरबार का नमकख्वार है और महाराज की भी उस पर निगाह रहती है, दूसरे अस्सी वर्ष का बुड्ढा है, तीसरे कहता है कि अभी इस शहर में पहुंचा हूं, महाराज का दर्शन कर चुका हूं, सरकार के भी दर्शन हो जायं तब आराम से सराय में डेरा डालूं और हमेशा से उसका यही दस्तूर भी है।

इंद्र - अगर ऐसा है तो उसे आने ही देना मुनासिब है।

आनंद - अब आज किश्ती पर सैर करने का रंग नजर नहीं आता।

इंद्र - क्या हर्ज है, कल सही।

चोबदार सलाम करके चला गया और थोड़ी देर में सौदागर को लेकर हाजिर हुआ। हकीकत में वह सौदागर बहुत ही बुड्ढा था, रेयासत और शराफत उसके चेहरे से बरसती थी। आते ही सलाम करके उसने दोनों भाइयों को दो अंगूठियां दीं और कबूल होने के बाद इशारा पाकर जमीन पर बैठ गया।

इस बुड्ढे जौहरी की इज्जत की गई, मिजाज का हाल तथा सफर की कैफियत पूछने के बाद डेरे पर जाकर आराम करने और कल फिर हाजिर होने का हुक्म हुआ। सौदागर सलाम करके चला गया।

सौदागर ने जो दो अंगूठियां दोनों भाइयों को नजर की थीं उनमें आनंदसिंह की अंगूठी पर निहायत खुशरंग मानिक जड़ा हुआ था और इंद्रजीतसिंह की अंगूठी पर सिर्फ एक छोटी-सी तस्वीर थी जिसे एक दफे निगाह भरकर इंद्रजीतसिंह ने देखा और कुछ सोच चुप हो रहे।

एकांत होने पर रात को शमादान की रोशनी में फिर उस अंगूठी को देखा जिसमें नगीने की जगह एक कमसिन हसीन औरत की तस्वीर जड़ी हुई थी। चाहे यह तस्वीर कितनी ही छोटी क्यों न हो मगर मुसव्वर ने गजब की सफाई इसमें खर्च की थी। इसे देखते-देखते एक मरतबे तो इंद्रजीतसिंह की यह हालत हो गई कि अपने को और उस औरत की तस्वीर को भूल गए, मालूम हुआ कि स्वयं वह नाजनीन इनके सामने बैठी है और यह उससे कुछ कहा चाहते हैं मगर उसके हुस्न के रुआब में आकर चुप रह जाते हैं। यकायक यह चौंक पड़े और अपनी बेवकूफी पर अफसोस करने लगे, लेकिन इससे क्या होता है उस तस्वीर ने तो एक ही सायत में इनके लड़कपन को धूल में मिला दिया और नौजवानी की दीवानी सूरत इनके सामने खड़ी कर दी। थोड़ी देर पहले सवारी, शिकार, कसरत वगैरह के पेचीले कायदे दिमाग में घूम रहे थे, अब ये एक दूसरी ही उलझन में फंस गये और दिमाग किसी अद्वितीय रत्न के मिलने की फिक्र में गोते खाने लगा। महाराज शिवदत्त की तरफ से अब क्या ऐयारी होती है, भैरोसिंह क्योंकर और कब कैद से छूटते हैं, देखें बद्रीनाथ वगैरह शिवदत्तगढ़ में जाकर क्या करते हैं, अब शिकार खेलने की नौबत कब तक आती है, एक ही तीर में शेर को गिरा देने का मौका कब मिलता है, किश्ती पर सवार हो दरिया की सैर करने कब जाना चाहिए इत्यादि खयालों को भूल गए। अब तो यह फिक्र पैदा हुई कि सौदागर को यह अंगूठी क्योंकर हाथ लगी यह तस्वीर खयाली है या असल में किसी ऐसे की है जो इस दुनिया में मौजूद है क्या सौदागर उसका पता-ठिकाना जानता होगा खूबसूरती की इतनी ही हद्द है या और भी कुछ है नजाकत, सुडौली और सफाई वगैरह का खजाना यही है या कोई और इसकी मोहब्बत के दरिया में हमारा बेड़ा क्योंकर पार होगा

कुंअर इंद्रजीतसिंह ने आज बहाना करना भी सीख लिया और घड़ी ही भर में उस्ताद हो गए, पेट फूला है भोजन न करेंगे, सिर में दर्द है, किसी का बोलना बुरा मालूम होता है, सन्नाटा हो तो शायद नींद आए, इत्यादि बहानों से उन्होंने अपनी जान बचाई और तमाम रात चारपाई पर करवटें बदल-बदलकर इस फिक्र में काटी कि सबेरा हो तो सौदागर को बुलाकर कुछ पूछें।

सबेरे उठते ही जौहरी को हाजिर करने का हुक्म दिया, मगर घंटे भर के बाद चोबदार ने वापस आकर अर्ज किया कि सराय में सौदागर का पता नहीं लगता।

इंद्र - उसने अपना डेरा कहां पर बतलाया था

चोब - ताबेदार को तो उसकी जुबानी यही मालूम हुआ था कि सराय में उतरेगा, मगर वहां दरियाफ्त करने से मालूम हुआ कि यहां कोई सौदागर नहीं आया।

इंद्र - किसी दूसरी जगह उतरा हो, पता लगाओ।

''बहुत खूब'' कहकर चोबदार तो चला गया मगर इंद्रजीतसिंह कुछ तरद्दुद में पड़ गये। सिर नीचा करके सोच रहे थे कि किसी के पैर की आहट ने चौंका दिया, सिर उठाकर देखा तो कुंअर आनंदसिंह।

आनंद - स्नान का तो समय हो गया।

इंद्र - हां, आज कुछ देर हो गई।

आनंद - तबीयत कुछ सुस्त मालूम होती है

इंद्र - रातभर सिर में दर्द था।

आनंद - अब कैसा है

इंद्र - अब तो ठीक है।

आनंद - कल कुछ झलक-सी मालूम पड़ी थी कि उस अंगूठी में कोई तस्वीर जड़ी हुई है तो उस जौहरी ने नजर की थी।

इंद्र - हां थी तो।

आनंद - कैसी तस्वीर है

इंद्र - न मालूम वह अंगूठी कहां रख दी कि मिलती ही नहीं। मैंने भी सोचा था कि दिन को अच्छी तरह देखूंगा मगर...

ग्रंथकर्ता - सच है, इसकी गवाही तो मैं भी दूंगा!

अगर भेद खुल जाने का डर न होता तो कुंअर इंद्रजीतसिंह सिवा ''ओफ'' करने और लंबी-लंबी सांसें लेने के कोई दूसरा काम न करते मगर क्या करें, लाचारी से सभी मामूली काम और अपने दादा के साथ बैठकर भोजन भी करना पड़ा, हां शाम को इनकी बेचैनी बहुत बढ़ गई जब सुना कि तमाम शहर छान डालने पर भी उस जौहरी का कहीं पता न लगा और यह भी मालूम हुआ कि उस जौहरी ने बिल्कुल झूठ कहा था कि महाराज का दर्शन कर आया हूं, अब कुमार के दर्शन हो जायं तब आराम से सराय में डेरा डालूं, वह वास्तव में महाराज सुरेंद्रसिंह और वीरेंद्रसिंह से नहीं मिला था।

तीसरे दिन इनको बहुत ही उदास देख आनंदसिंह ने किश्ती पर सवार होकर गंगाजी की सैर करने और दिल बहलाने के लिए जिद की, लाचार उनकी बात माननी ही पड़ी।

एक छोटी-सी खूबसूरत और तेज जाने वाली किश्ती पर सवार हो इंद्रजीतसिंह ने चाहा कि किसी को साथ न ले जायं सिर्फ दोनों भाई ही सवार हों और खेकर दरिया की सैर करें। किसकी मजाल थी जो इनकी बात काटता, मगर एक पुराने खिदमतगार ने जिसने कि वीरेंद्रसिंह को गोद में खिलाया था और अब इन दोनों के साथ रहता था ऐसा करने से रोका और जब दोनों भाइयों ने न माना तो वह खुद किश्ती पर सवार हो गया। पुराना नौकर होने के खयाल से दोनों भाई कुछ न बोले, लाचार साथ ले जाना ही पड़ा।

आनंद - किश्ती को धारा में ले जाकर बहाव पर छोड़ दीजिए - फिर खेकर ले आवेंगे।

इंद्र - अच्छी बात है।

सिर्फ दो घंटे दिन बाकी था जब दोनों भाई किश्ती पर सवार हो दरिया की सैर करने को गए क्योंकि लौटते समय चांदनी रात का भी आनंद लेना मंजूर था।

चुनार से दो कोस पश्चिम गंगा के किनारे पर एक छोटा-सा जंगल था। जब किश्ती उसके पास पहुंची, वंशी की और साथ ही गाने की बारीक सुरीली आवाज इन लोगों के कानों में पड़ी। संगीत एक ऐसी चीज है कि हर एक के दिल को, चाहे वह कैसा ही नासमझ क्यों न हो, अपनी तरफ खेंच लेती है, यहां तक कि जानवर भी इसके वश में होकर अपने को भूल जाता है। दो-तीन दिन से कुंअर इंद्रजीतसिंह का दिल चुटीला हो रहा था, दरिया की बहार देखना तो दूर रहा इन्हें अपने तनोबदन की भी सुध न थी। ये तो अपनी प्यारी तस्वीर की धुन में सिर झुकाए बैठे कुछ सोच रहे थे, इनके हिसाब से चारों तरफ सन्नाटा था, मगर इस सुरीली आवाज ने इनकी गर्दन घुमा दी और उस तरफ देखने को मजबूर किया जिधर से वह आ रही थी।

किनारे की तरफ देखने से यह तो मालूम न हुआ कि वंशी बजाने या गाने वाला कौन है मगर इस बात का अंदाजा जरूर मिल गया कि वे लोग बहुत दूर नहीं हैं जिनके गाने की आवाज सुनने वालों पर जादू का-सा असर कर रही है।

इंद्रजीत - आहा, क्या सुरीली आवाज है!

आनंद - दूसरी आवाज आई। बेशक कई औरतें मिलकर गा-बजा रही हैं।

इ्रंद - (किश्ती का मुंह किनारे की तरफ फेरकर) ताज्जुब है कि इन लोगों ने गाने-बजाने और दिल बहलाने के लिए ऐसी जगह पसंद की! जरा देखना चाहिए।

आनंद - क्या हर्ज है चलिए।

बूढ़े खिदमतगार ने किनारे किश्ती लगाने और उतरने के लिए मना किया और बहुत समझाया मगर इन दोनों ने न माना, किश्ती किनारे लगाई और उतरकर उस तरफ चले जिधर से आवाज आ रही थी। जंगल में थोड़ी ही दूर जाकर दस-पंद्रह नौजवान औरतों का झुंड नजर पड़ा जो रंग-बिरंगी पोशाक और कीमती जेवरों से अपने हुस्न को दूना किए ऊंचे पेड़ से लटकते हुए एक झूले को झुला रही थीं। कोई वंशी कोई मृदंगी बजाती, कोई हाथ से ताल दे-देकर गा रही थी। उस हिंडोले पर सिर्फ एक ही औरत गंगा की तरफ रुख किए बैठी थी। ऐसा मालूम होता था मानो परियां साक्षात् किसी देवकन्या को झुला-झुला और गा-बजाकर इसलिए प्रसन्न कर रही हैं कि खूबसूरती बढ़ने और नौजवानी के स्थिर रहने का वरदान पावें। मगर नहीं, उनके भी दिल की दिल ही में रही और कुंअर इंद्रजीतसिंह तथा आनंदसिंह को आते देख हिंडोले पर बैठी हुई नाजनीन को अकेली छोड़ न जाने क्यों भाग ही जाना पड़ा।

आनंद - भैया, यह सब तो भाग गयीं!

इंद्र - हां, मैं इस हिंडोले के पास जाता हूं, तुम देखो ये औरतें किधर गयीं

आनंद - बहुत अच्छा।

चाहे जो हो मगर कुंअर इंद्रजीतसिंह ने उसे पहचान ही लिया जो हिंडोले पर अकेली रह गई थी। भला यह क्यों न पहचानते जौहरी की नजर दी हुई अंगूठी पर उसकी तस्वीर देख चुके थे, इनके दिल में उसकी तस्वीर खुद गई थी, अब तो मुंहमांगी मुराद पाई, जिसके लिए अपने को मिटाना मंजूर था, उसे बिना परिश्रम पाया, फिर क्या चाहिए!

आनंदसिंह पता लगाने के लिए उन औरतों के पीछे गए मगर वे ऐसी भागीं कि झलक तक दिखाई न दी, लाचार आधे घंटे तक हैरान होकर फिर उस हिंडोले के पास पहुंचे। हिंडोले पर बैठी हुई औरत को कौन कहे अपने भाई को भी वहां न पाया। घबड़ाकर इधर-उधर ढूंढ़ने और पुकारने लगे, यहां तक कि रात हो गई और यह सोचकर किश्ती के पास पहुंचे कि शायद वहां चले गये हों, लेकिन वहां भी सिवाय उस बूढ़े खिदमतगार के किसी दूसरे को न देखा। जी बेचैन हो गया, खिदमतगार को सब हाल बताकर बोले, ''जब तक अपने प्यारे भाई का पता न लगा लूंगा घर न जाऊंगा, तू जाकर यहां का हाल सभों को खबर कर दे।''

खिदमतगार ने हर तरह से आनंदसिंह को समझाया और घर चलने के लिए कहा मगर कुछ फायदा न निकला। लाचार उसने किश्ती उसी जगह छोड़ी और पैदल रोता-कलपता किले की तरफ रवाना हुआ क्योंकि यहां जो कुछ हो चुका था उसका हाल राजा वीरेंद्रसिंह से कहना भी उसने आवश्यक समझा।

Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel