कुंअर इंद्रजीतसिंह अभी तक उस रमणीक स्थान में विराज रहे हैं। जी कितना ही बेचैन क्यों न हो मगर उन्हें लाचार माधवी के साथ दिन काटना ही पड़ता है। खैर जो होगा देखा जायगा मगर इस समय दो पहर दिन बाकी रहने पर भी कुंअर इंद्रजीतसिंह कमरे के अंदर सुनहले पावों की चारपाई पर आराम कर रहे हैं और एक लौंडी धीरे-धीरे पंखा झल रही है। हम ठीक नहीं कह सकते कि उन्हें नींद दबाये हुए है या जान-बूझकर हठियाये पड़े हैं और अपनी बदकिस्मती के जाल को सुलझाने की तरकीब सोच रहे हैं। खैर इन्हें इसी तरह पड़े रहने दीजिए और आप जरा तिलोत्तमा के कमरे में चलकर देखिए कि वह माधवी के साथ किस तरह की बातचीत कर रही है। माधवी का हंसता हुआ चेहरा कहे देता है कि बनिस्बत और दिनों के आज वह खुश है, मगर तिलोत्तमा के चेहरे से किसी तरह की खुशी नहीं मालूम होती।

माधवी ने तिलोत्तमा का हाथ पकड़कर कहा, ''सखी, आज तुझे उतना खुश नहीं पाती हूं जितना मैं खुद हूं।''

तिलो - तुम्हारा खुश होना बहुत ठीक है।

माधवी - तो क्या तुम्हें इस बात की खुशी नहीं है कि किशोरी मेरे फंदे में फंस गई और एक कैदी की तरह मेरे यहां तहखाने में बंद है!

तिलो - इस बात की तो मुझे भी खुशी है।

माधवी - तो रंज किस बात का है हां समझ गई, अभी तक ललिता के लौटकर न आने का बेशक तुम्हें दुख होगा।

तिलो - ठीक है, मैं ललिता के बारे में भी बहुत कुछ सोच रही हूं। मुझे तो विश्वास हो गया है कि उसे कमला ने पकड़ लिया।

माधवी - तो उसे छुड़ाने की फिक्र करनी चाहिए।

तिलो - मुझे इतनी फुरसत नहीं है कि उसे छुड़ाने के लिए जाऊं क्योंकि मेरे हाथ-पैर किसी दूसरे ही तरद्दुद ने बेकार कर दिए हैं जिसकी तुम्हें जरा भी खबर नहीं, अगर खबर होती तो आज तुम्हें भी अपनी ही तरह उदास पाती।

तिलोत्तमा की इस बात ने माधवी को चौंका दिया और वह घबड़ाकर तिलोत्तमा का मुंह देखने लगी।

तिलो - मुंह क्या देखती है, मैं झूठ नहीं कहती। तू तो अपने ऐश-आराम में ऐसी मस्त हो रही है कि दीन दुनिया की खबर नहीं। तू जानती ही नहीं कि दो ही चार दिन में तुझ पर कैसी आफत आने वाली है। क्या तुझे विश्वास हो गया कि किशोरी तेरी कैद में रह जायगी, कुछ बाहर की भी खबर है कि क्या हो रहा है क्या बदनामी ही उठाने के लिए तू गया का राज्य कर रही है मैं पचास दफे तुझे समझा चुकी कि अपनी चाल-चलन को दुरुस्त कर मगर तूने एक न सुनी, लाचार तुझे तेरी मर्जी पर छोड़ दिया और प्रेम के सबब तेरा हुक्म मानती आई मगर अब मेरे सम्हाले नहीं सम्हलता।

माधवी - तिलोत्तमा, आज तुझे क्या हो गया है जो इतना कूद रही है! ऐसी कौन-सी आफत आ गई है जिसने तुझे बदहवास कर दिया है क्या तू नहीं जानती कि दीवान साहब इस राज्य का इंतजाम कैसी अच्छी तरह कर रहे हैं और सेनापति तथा कोतवाल अपने काम में कितने होशियार हैं क्या इन लोगों के रहते हमारे राज्य में कोई विघ्न डाल सकता है?

तिलो - यह जरूर ठीक है कि इन तीनों के रहते कोई इस राज्य में विघ्न नहीं डाल सकता, लेकिन तुझे तो इन्हीं तीनों की खबर नहीं! कोतवाल साहब जहन्नुम में चले ही गये, दीवान साहब और सेनापति साहब भी आजकल में जाया चाहते हैं बल्कि चले भी गए हों तो ताज्जुब नहीं।

माधवी - यह तू क्या कह रही है!

तिलो - जी हां, में बहुत ठीक कहती हूं। बिना परिश्रम ही यह राज्य वीरेन्द्रेसिंह का हुआ चाहता है। इसीलिए कहती थी कि इंद्रजीतसिंह को अपने यहां मत फंसा, उनके एक-एक ऐयार आफत के परकाले हैं। मैं कई दिनों से उन लोगों की कार्रवाई देख रही हूं। उन लोगों को छेड़ना ऐसा है जैसा आतिशबाजी की चरखी में आग लगा देना।

माधवी - क्या वीरेंद्रसिंह को पता लग गया कि उनका लड़का यहां कैद है?

तिलो - पता नहीं लगा तो इसी तरह उनके ऐयार सब यहां पहुंचकर ऊधम मचा रहे हैं?

माधवी - तो तूने मुझे खबर क्यों न की?

तिलो - क्या खबर करती, तुझे इस खबर को सुनने की छुट्टी भी है!

माधवी - तिलोत्तमा, ऐसी जली-कटी बातों का कहना छोड़ दे और मुझे ठीक-ठीक बता कि क्या हुआ और क्या हो रहा है सच पूछ तो मैं तेरे ही भरोसे कूद रही हूं। मैं खूब जानती हूं कि सिवाय तेरे मेरी रक्षा करने वाला कोई नहीं। मुझे विश्वास था कि इन चार पहाड़ियों के बीच में जब तक मैं हूं मुझ पर किसी तरह की आफत न आवेगी, मगर अब तेरी बातों से यह उम्मीद बिल्कुल जाती रही।

तिलो - ठीक है, तुझे अब ऐसा भरोसा न रखना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि मैं तेरे लिए जान देने को तैयार हूं, मगर तू ही बता कि वीरेंद्रसिंह के ऐयारों के सामने मैं क्या कर सकती हूं, एक बेचारी ललिता मेरी मददगार थी, सो वह भी किशोरी को फंसाने में आप पकड़ी गई, अब अकेली मैं क्या - क्या करूं।

माधवी - तू सब-कुछ कर सकती है हिम्मत मत हार, हां यह तो बता कि वीरेंद्रसिंह के ऐयार यहां क्योंकर आये और अब क्या कर रहे हैं।

तिलो - अच्छा सुन, मैं सब-कुछ कहती हूं, यह तो मैं नहीं जानती कि पहले-पहल यहां कौन आया, हां जब से चपला आई है तब से मैं थोड़ा-बहुत हाल जानती हूं।

माधवी - (चौंककर) क्या चपला यहां पहुंच गयी?

तिलो - हां पहुंच गयी, उसने यहां पहुंचकर उस सुरंग की दूसरी ताली भी तैयार कर ली जिस राह से तू आती-जाती है और जिसमें मैंने किशोरी को कैद कर रखा है। एक दिन रात को जब तू इंद्रजीतसिंह को सोता छोड़ दीवान साहब से मिलने के लिए गयी तो वह चपला भी इंद्रजीतसिंह को साथ ले, अपनी ताली से सुरंग का ताला खोल तेरे पीछे-पीछे चली गयी और छिपकर तेरी और दीवान साहब की कैफियत इन दोनों ने देख ली, यह न समझ कि इंद्रजीतसिंह बेचारे सीधे-सादे हैं और तेरा हाल नहीं जानते, वे सब-कुछ जान गये।

माधवी - (कुछ देर तक सोच में डूबी रहने के बाद) तूने चपला को कैसे देखा?

तिलो - मेरा बल्कि ललिता का भी कायदा है कि रात को तीन-चार दफे उठकर इधर-उधर घूमा करती हैं। उस समय मैं अपने दालान में खंभे की आड़ में खड़ी इधर-उधर देख रही थी जब चपला ओैर इंद्रजीतसिंह तेरा हाल देखकर सुरंग से लौटे थे। इसके बाद वे दोनों बहुत देर तक नहर के किनारे खड़े बातचीत करते रहे, बस उसी समय से मैं होशियार हो गई और अपनी कार्रवाई करने लगी।

माधवी - इसके बाद भी कुछ हुआ?

तिलो - हां बहुत कुछ हुआ, सुनो मैं कहती हूं। दूसरे दिन मैं ललिता को साथ ले उस तालाब पर पहुंची, देखा कि वीरेंद्रसिंह के कई ऐयार वहां बैठे बातचीत कर रहे हैं। मैंने छिपकर उनकी बातचीत सुनी। मालूम हुआ कि वे लोग दीवान साहब, सेनापति और कोतवाल साहब को गिरफ्तार किया चाहते हैं। मुझे उस समय एक दिल्लगी सूझी। जब वे लोग राय पक्की करके वहां से जाने लगे, मैंने वहां से कुछ दूर हटकर एक छींक मारी और दूर भाग गई।

माधवी - (मुस्कराकर) वे लोग घबड़ा गये होंगे!

तिलो - बेशक घबड़ाये होंगे, उसी समय गाली-गुफ्तार करने लगे, मगर हम दोनों ने वहां ठहरना पसंद नहीं किया।

माधवी - फिर क्या हुआ?

तिलो - मैंने तो सोचा था कि वे लोग मेरी छींक से डरकर अपनी कार्रवाई रोकेंगे मगर ऐसा न हुआ। दो ही दिन की मेहनत में उन लोगों ने कोतवाल को गिरफ्तार कर लिया, भैरोसिंह और तारासिंह ने उन्हें बुरा धोखा दिया।

इसके बाद तिलोत्तमा ने कोतवाल साहब के गिरफ्तार होने का पूरा हाल जैसा हम ऊपर लिख आये हैं माधवी से कहा, साथ ही उसने यह भी कह दिया कि दीवान साहब को भी गुमान हो गया कि तूने किसी मर्द को यहां लाकर रखा है और उसके साथ आनंद कर रही है।

तिलोत्तमा की जुबानी सब हाल सुनकर माधवी सोच-सागर में गोते लगाने लगी और आधे घंटे तक उसे तनोबदन की सुध न रही, इसके बाद उसने अपने को सम्हाला और फिर तिलोत्तमा से बातचीत करना आरंभ किया।

माधवी - खैर जो हुआ सो हुआ, यह बता कि अब क्या करना चाहिए।

तिलो - मुनासिब तो यही है कि इंद्रजीतसिंह और किशोरी को छोड़ दो, तब फिर तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ेगा।

माधवी - (तिलोत्तमा के पैरों पर गिरकर और रोकर) ऐसा न कहो, अगर मुझ पर तुम्हारा सच्चा प्रेम है तो ऐसा करने के लिए जिद न करो, अगर मेरा सिर चाहो तो काट लो मगर इंद्रजीतसिंह को छोड़ने के लिए मत कहो।

तिलो - अफसोस कि इन बातों की खबर दीवान साहब को भी नहीं कर सकती, बड़ी मुश्किल है, अच्छा मैं उद्योग करती हूं मगर निश्चय नहीं कह सकती कि क्या होगा।

माधवी - तुम चाहोगी तो सब काम हो जायेगा।

तिलो - पहले तो मुझे ललिता को छुड़ाना मुनासिब है।

माधवी - अवश्य।

तिलो - हां, एक काम इसके भी पहले करना चाहिए, नहीं तो किशोरी दो ही दिन में यहां से गायब हो जायेगी और ताज्जुब नहीं कि धड़धड़ाते हुए वीरेंद्रसिंह के कई ऐयार यहां पहुंच जाएं और मनमानी धूम मचावें।

माधवी - शायद तुम्हारा मतलब उस पानी वाली सुरंग को बंद कर देने से हो

तिलो - हां।

माधवी - मैं भी यही मुनासिब समझती हूं। मैं सोचती हूं कि जरूर कोई ऐयार उस रोज उस पानी वाली सुरंग की राह से यहां आया था जिसकी देखा-देखी इंद्रजीतसिंह उस सुरंग में घुसे थे, मगर बेचारे पानी में आगे न जा सके और लौट आये। तुम जरूर उस सुरंग को अच्छी तरह बंद करा दो जिससे कोई ऐयार उस राह से आने-जाने न पावे। तुम लोगों के लिए वह रास्ता है ही जिधर से मैं आती हूं। हां एक बात और है तुम अपने पिता को मेरी मदद के लिए क्यों नहीं ले आतीं, उनसे और मेरे पिता से बड़ी दोस्ती थी मगर अफसोस आजकल वे मुझसे बहुत रंज हैं।

तिलो - मैं कल उनके पास गई थी पर वे किसी तरह नहीं मानते, तुमसे बहुत ज्यादे रंज हैं, मुझ पर बहुत बिगड़ते थे, अगर मैं तुरंत न चली आती तो बेइज्जती के साथ निकलवा देते, मैं उनके पास कभी न जाऊंगी।

माधवी - खैर जो कुछ किस्मत में है भोगूंगी। अच्छा अब तो सभों की आमदरफ्त इसी सुरंग से होगी, तो किशोरी को वहां से निकाल किसी दूसरी जगह रखना चाहिए।

तिलो - उस सुरंग से बढ़कर कौन-सी ऐसी जगह है जहां उसे रखोगी, दीवान साहब का भी तो डर है!

थोड़ी देर तक इन दोनों में बातचीत होती रही इसके बाद इंद्रजीतसिंह के सोकर उठने की खबर आई। शाम भी हो चुकी थी, माधवी उठकर उनके पास गई और तिलोत्तमा पानी वाली सुरंग को बंद करने की फिक्र में लगी।

पाठक, इस जगह मामला बड़ा गोलमाल हो गया। तिलोत्तमा ने चालाकी से वीरेंद्रसिंह के ऐयारों की कार्रवाई देख ली। माधवी और तिलोत्तमा की बातचीत से आप यह भी जान गये होंगे कि बेचारी किशोरी उसी सुरंग में कैद की गई जिसकी ताली चपला ने बनाई थी या जिस सुरंग की राह चपला और कुंअर इंद्रजीतसिंह ने माधवी के पीछे जाकर यह मालूम कर लिया था कि वह कहां जाती है। उस सुरंग की दूसरी ताली तो मौजूद ही थी, किशोरी को छुड़ाना चपला के लिए कोई बड़ी बात न थी, अगर तिलोत्तमा होशियार होकर उस आने-जाने वाली राह अर्थात पानी वाली सुरंग को जिसमें इंद्रजीतसिंह गये थे और आगे जलमय देखकर लौट आये थे पत्थर के ढोकों से मजबूती के साथ बंद न कर देती। कुंअर इंद्रजीतसिंह को मालूम हो ही गया था कि हमारे ऐयार लोग इसी राह से आया-जाया करते हैं, अब उन्होंने अपनी आंखों से यह भी देख लिया कि यह सुरंग बखूबी बंद कर दी गई। उनकी नाउम्मीदी हर तरह से बढ़ने लगी, उन्होंने समझ लिया कि अब चपला से मुलाकात न होगी और बाहर हमारे छुड़ाने के लिए क्या - क्या तरकीब हो रही है इसका पता भी बिल्कुल न लगेगा। सुरंग की नई ताली जो चपला ने बनाई थी वह उसी के पास थी, तो भी इंद्रजीतसिंह ने हिम्मत न हारी। उन्होंने जी में ठान लिया कि अब जबर्दस्ती से काम लिया जायेगा, जितनी औरतें यहां मौजूद हैं सभों की मुश्कें बांध नहर के किनारे डाल देंगे और सुरंग की असली ताली माधवी के पास से लेकर सुरंग की राह माधवी के महल में पहुंचकर खून खराबी मचावेंगे। आखिर क्षत्रियों को इससे बढ़कर लड़ने-भिड़ने और जान देने का कौन-सा समय हाथ लगेगा। मगर ऐसा करने के लिए सबसे पहले सुरंग की ताली अपने कब्जे में कर लेना मुनासिब है, नहीं तो मुझे बिगड़ा हुआ देख जब तक मैं दो-चार औरतों की मुश्कें बांधूंगा सब सुरंग की राह भाग जायेंगी, फिर मेरा मतलब जैसा मैं चाहता हूं सिद्ध न होगा।

इंद्रजीतसिंह ने सुरंग की ताली लेने की बहुत कोशिश की मगर न ले सके क्योंकि अब वह ताली उस जगह से, जहां पहले रहती थी, हटाकर किसी दूसरी जगह रख दी गई थी।

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