हम ऊपर के दूसरा भाग : बयान में सुबह का दृश्य लिखकर कह आये हैं कि राजा वीरेंद्रसिंह, कुंअर आनंदसिंह और तेजसिंह सेना सहित किसी तरफ को जा रहे हैं। पाठक तो समझ ही गये होंगे कि इन्होंने जरूर किसी तरफ चढ़ाई की है और बेशक ऐसा ही है भी। राजा वीरेंद्रसिंह ने यकायक माधवी के गयाजी पर धावा कर दिया जिसका लेना इस समय उन्होंने बहुत ही सहज समझ रखा था, क्योंकि माधवी के चाल-चलन की खबर बखूबी लग गई थी। वे जानते थे कि राजकाज पर ध्यान न दे दिन-रात ऐश में डूबे रहने वाले राजा का राज्य कितना कमजोर हो जाता है। रैयत को ऐसे राजा से कितनी नफरत हो जाती है और किसी दूसरे नेक धर्मात्मा के आ पहुंचने के लिए वे लोग कितनी मन्नतें मानते रहते हैं।

वीरेंद्रसिंह का खयाल बहुत ही ठीक था। गया पर दखल करने में उनको जरा भी तकलीफ न हुई, किसी ने उनका मुकाबला न किया। एक तो उनका चढ़ा-बढ़ा प्रताप ही ऐसा था कि कोई मुकाबला करने का साहस भी नहीं कर सकता था, दूसरे बेदिल रियाया और फौज तो चाहती ही थी कि वीरेंद्रसिंह के ऐसा कोई यहां का भी राजा हो। चाहे दिन-रात ऐश में डूबे और शराब के नशे में चूर रहने वाले मालिकों को कुछ भी खबर न हो पर बड़े जमींदारों और राजकर्मचारियों को माधवी और कुंअर इंद्रजीतसिंह के खिंचाखिंची की खबर लग चुकी थी और उन्हें मालूम हो चुका था कि आजकल वीरेंद्रसिंह के ऐयार लोग राजगृह ही में विराज रहे हैं।

राजा वीरेंद्रसिंह ने बेरोक-टोक शहर में पहुंचकर अपना दखल जमा लिया और अपने नाम की मुनादी करवा दी। वहां के दो-एक कर्मचारी जो दीवान अग्निदत्त के दोस्त और खैरख्वाह थे रंग-कुरंग देखकर भाग गये, बाकी फौजी अफसरों और रैयतों ने उनकी अमलदारी खुशी से कबूल कर ली, जिसका हाल राजा वीरेंद्रसिंह को इसी से मालूम हो गया कि उन लोगों ने दरबार में बेखौफ और हंसते हुए पहुंचकर मुबारकबाद के साथ नजरें गुजारीं।

विजयदशमी के एक दिन पहले गया का राज्य राजा वीरेंद्रसिंह के कब्जे में आ गया और विजयदशमी को अर्थात दूसरे दिन प्रातःकाल उनके लड़के आनंदसिंह को यहां की गद्दी पर बैठे हुए लोगों ने देखा तथा नजरें दीं। अपने छोटे लड़के कुंअर आनंदसिंह को गया की गद्दी दे दूसरे ही दिन राजा वीरेंद्रसिंह चुनार लौट आने वाले थे मगर उनके रवाना होने के पहले ही ऐयार लोग जख्मी और बेहोश कुंअर इंद्रजीतसिंह को लिए हुए गयाजी पहुंच गये जिन्हें देख राजा वीरेंद्रसिंह को अपना इरादा छोड़ देना पड़ा और बहुत दिनों से बिछुड़े हुए प्यारे लड़के को आज इस अवस्था में पाकर अपने तन-बदन की सुध भुला देनी पड़ी।

राजा वीरेंद्रसिंह के मौजूद होने पर भी गयाजी का बड़ा भारी राजभवन सूना हो रहा था क्योंकि उसमें रहने वाले माधवी और दीवान अग्निदत्त के रिश्तेदार लोग भाग गये थे और हुक्म के मुताबिक किसी ने भी उनको भागते समय नहीं रोका था। इस समय राजा वीरेन्द्रसिंह, उनके दोनों लड़कों और ऐयारों के सिवाय सिर्फ थोड़े से ही फौजी अफसरों का डेरा इस महल में पड़ा हुआ है। ऐयारों में सिर्फ भैरोसिंह और तारासिंह यहां मौजूद हैं, बाकी के कुल ऐयार चुनार लौटा दिये गये थे। शहर के इंतजाम में सबके पहले यह किया गया कि चीठी या अरजी डालने के लिए एक बगल छेद करके दो बड़े-बड़े संदूक राजभवन के फाटक के दोनों तरफ लटका दिये गये और मुनादी करवा दी गई कि जिसको अपना सुख-दुख अर्ज करना हो दरबार में हाजिर होकर अर्ज किया करें और जो किसी कारण से हाजिर न हो सके वह अर्जी लिखकर इन्हीं संदूकों में डाल दिया करें। हुक्म था कि बारी-बारी से ये संदूक दिन-रात में छह मर्तबे कुंअर आनंदसिंह के सामने खोले जाया करें। इस इंतजाम से गयाजी की रियाया बहुत प्रसन्न थी।

रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। एक सजे हुए कमरे में, जिसमें रोशनी अच्छी तरह हो रही है, छोटी-सी खूबसूरत मसहरी पर जख्मी कुंअर इंद्रजीतसिंह लेटे हुए हलकी दुलाई गर्दन तक ओढ़े हैं। आज कई दिनों पर उन्हें होश आया है, इससे अचंभे में आकर इस नये कमरे में चारों तरफ निगाह दौड़ाकर अच्छी तरह देख रहे हैं। बगल में बायें हाथ का ढासना पलंगड़ी पर दिए हुए उनके पिता राजा वीरेंद्रसिंह बैठे उनका मुंह देख रहे हैं और कुछ पायताने की तरफ हटकर पाटी पकड़े कुंअर आनंदसिंह बैठे बड़े भाई की तरफ देख रहे हैं। पायताने की तरफ पलंगड़ी के नीचे भैरोसिंह और तारासिंह धीरे-धीरे तलवा झंस रहे हैं। कुंअर आनंदसिंह के बगल में देवीसिंह बैठे हैं। उनके अलावा वैद्य, जर्राह और बहुत से सिपाही नंगी तलवार लिए पहरा दे रहे हैं।

थोड़ी देर तक कमरे में सन्नाटा रहा, इसके बाद कुंअर इंद्रजीतसिंह ने अपने पिता की तरफ देखकर पूछा -

इंद्र - यह कौन-सी जगह है यह किसका मकान है

वीरेंद्र - यह चंद्रदत्त की राजधानी गयाजी है। ईश्वर की कृपा से आज यह हमारे कब्जे में आ गयी है। मकान भी चंद्रदत्त ही के रहने का है। हम लोग इस शहर में अपना दखल जमा चुके थे जब तुम यहां पहुंचाये गये।

यह सुन इंद्रजीतसिंह चुप हो रहे और कुछ सोचने लगे, साथ ही इसके राजगृह में दीवान अग्निदत्त के साथ होने वाली लड़ाई का समां उनकी आंखों के आगे घूम गया और किशोरी को याद कर अफसोस करने लगे। इनके बेहोश होने के बाद क्या हुआ और किशोरी पर क्या बीती इसको जानने के लिए दिल बेचैन था मगर पिता का लिहाज कर भैरोसिंह से कुछ पूछ न सके सिर्फ ऊंची सांस लेकर रह गये मगर देवीसिंह उनके जी का भाव समझ गये और बिना पूछे ही कुछ कहने का मौका समझकर बोले, ''राजगृह में लड़ाई के समय जितने आदमी आपके साथ थे ईश्वर की कृपा से सब बच गये और अपने ठिकाने पर हैं, केवल आप ही को इतना कष्ट भोगना पड़ा।''

देवीसिंह के इतना कहने से इंद्रजीतसिंह की बेचैनी बिल्कुल ही जाती तो नहीं रही मगर कुछ कम जरूर हो गयी। इतने में दिल बहलाने का कुछ ठिकाना समझकर देवीसिंह पुनः बोल उठे -

देवी - अर्जियों वाला संदूक हाजिर है, उसके देखने का समय भी हो गया है।

इंद्र - कैसा संदूक?

आनंद - यहां महल के फाटक पर दो संदूक इसलिये रख दिए गए हैं कि जो लोग दरबार में हाजिर होकर अपना दुख-सुख न कह सकें वे लोग अर्जी लिखकर इस संदूक में डाल दिया करें।

इंद्र - बहुत मुनासिब है, इससे रैयतों के दिल का हाल अच्छी तरह मालूम हो सकता है। इस तरह के कई संदूक शहर में इधर-उधर भी रखवा देना चाहिए क्योंकि बहुत से आदमी खौफ से फाटक तक आते भी हिचकेंगे।

आनंद - बहुत खूब, कल इसका इंतजाम हो जायगा।

वीरेंद्र - हमने यहां की गद्दी पर आनंदसिंह को बैठा दिया है।

इंद्र - बड़ी खुशी की बात है, यहां का इंतजाम ये बहुत ही अच्छी तरह कर सकेंगे क्योंकि यह तीर्थ का मुकाम है और इनका पुराणों से बड़ा प्रेम है और उन्हें अच्छी तरह समझते भी हैं। (देवीसिंह की तरफ देखकर) हां साहब, वह संदूक मंगवाइये जरा दिल तो बहले।

हाथ भर का चौखूटा संदूक हाजिर किया गया और उसे खोलकर बिल्कुल अर्जियां जिनसे वह संदूक भरा था बाहर निकाली गयीं। पढ़ने से मालूम हुआ कि यहां की रियाया नये राजा की अमलदारी से बहुत प्रसन्न है और मुबारकबाद दे रही है, हां एक अर्जी उसमें ऐसी भी निकली जिसके पढ़ने से सभों को तरद्दुद ने आ घेरा और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। पाठकों की दिलचस्पी के लिए हम उस अर्जी की नकल नीचे लिखे देते हैं - ''हम लोग मुद्दत से मनाते थे कि यहां की गद्दी पर हुजूर को या हुजूर के खानदान में से किसी को बैठा देखें। ईश्वर ने आज हम लोगों की आरजू पूरी की और कम्बख्त माधवी और अग्निदत्त का बुरा साया हम लोगों के सिर से हटाया। चाहे उन दोनों दुष्टों का खौफ अभी हम लोगों को बना हो, मगर फिर भी हुजूर के भरोसे पर हम लोग बिना मुबारकबाद दिए और खुशी मनाये नहीं रह सकते। वह डर इस बात का नहीं है कि यहां फिर उन दुष्टों की अमलदारी होगी तो कष्ट भोगना पड़ेगा। राम-राम, ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता, हम लोगों को यह गुमान तो स्वप्न में भी नहीं हो सकता। वह डर बिल्कुल दूसरा ही है, जो हम लोग नीचे अर्ज करते हैं। आशा है कि बहुत जल्द उससे हम लोगों की रिहाई होगी, नहीं तो महीने भर में यहां की चौथाई रियाया यमलोक में पहुंच जायगी। मगर नहीं, हुजूर के नामी और अपनी आप नजीर रखने वाले ऐयारों के हाथ से वे बेईमान हरामजादे कब बच सकते हैं जिनके डर से हम लोगों को पूरी नींद सोना नसीब नहीं होता।

कुछ दिनों से दीवान अग्निदत्त की तरफ से थोड़े बदमाश इस काम के लिए मुकर्रर कर दिए हैं कि अगर कोई आदमी अग्निदत्त के खिलाफ नजर आवे तो बेधड़क उसका सिर चोरी से रात के समय काट डालें, या दीवान साहब को जब रुपये की जरूरत हो तो जिस अमीर या जमींदार के घर में चाहे डाका डाल दें या चोरी करके कंगाल बना दें। इसकी फरियाद कहीं सुनी नहीं जाती, इसी वजह से और भी बाहरी चोरों को अपना घर भरने और हम लोगों को सताने का मौका मिलता है। हम लोगों ने अभी उन दुष्टों की सूरत नहीं देखी और नहीं जानते कि वे लोग कौन हैं, या कहां रहते हैं जिनके खौफ से दिन-रात हम लोग कांपा करते हैं।''

इस अर्जी के नीचे कई मशहूर और नामी रईसों और जमींदारों के दस्तखत थे। यह अर्जी उसी समय देवीसिंह के हवाले कर दी गई और देवीसिंह ने वादा किया कि एक महीने के अंदर इन दुष्टों को जिंदा या मरे हुए हुजूर में हाजिर करेंगे।

इसके बाद जर्राहों ने कुंअर इंद्रजीतसिंह के जख्मों को खोला और दूसरी पट्टी बदली, कविराज ने दवा खिलाई और हुक्म पाकर सब अपने-अपने ठिकाने चले गए। देवीसिंह उसी समय विदा हो न मालूम कहां चले गए और राजा वीरेंद्रसिंह भी वहां से हटकर अपने कमरे में चले गए।

इस कमरे के दोनों तरफ छोटी-छोटी दो कोठरियां थीं। एक में संध्या-पूजा का सामान दुरुस्त था। और दूसरी में खाली फर्श पर एक मसहरी बिछी हुई थी जो उस मसहरी से कुछ छोटी थी जिस पर कुंअर इंद्रजीतसिंह आराम कर रहे थे। कोठरी से वह मसहरी बाहर निकाली गई और कुंअर आनंदसिंह के सोने के लिए कुंअर इंद्रजीतसिंह की मसहरी के पास बिछाई गई। भैरोसिंह और तारासिंह ने भी दोनों मसहरियों के नीचे अपना बिस्तर जमाया। सिवाय इन चारों के उस कमरे में और कोई न रहा। इन लोगों ने रात-भर आराम से काटी और सबेरा होने पर आंख खुलते ही विचित्र तमाशा देखा।

सुबह के पहले ही दोनों ऐयारों की आंखें खुलीं और हैरतभरी निगाहों से चारों तरफ देखने लगे, इसके बाद कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह भी जागे और फूलों की खुशबू जो इस कमरे में बहुत देर पहले से ही भर रही थी लेने तथा दोनों ऐयारों की तरह ताज्जुब से चारों तरफ देखने लगे।

आनंद - खुशबूदार फूलों के गजरे और गुलदस्ते इस कमरे में किसने सजाए हैं

इंद्र - ताज्जुब है, हमारे आदमी बिना हुक्म पाए ऐसा कब कर सकते हैं

भैरो - हम दोनों आदमी घंटे भर के पहले से उठकर इस पर गौर कर रहे हैं मगर कुछ समझ में नहीं आता कि क्या मामला है।

आनंद - गुलदस्ते भी बहुत खूबसूरत और बेशकीमती मालूम पड़ते हैं।

तारा - (एक गुलदस्ता उठाकर ओैर पास लाकर) देखिए इस सोने के गुलदस्ते पर क्या उम्दा मीने का काम किया हुआ है! बेशक किसी बहुत बड़े शौकीन का बनवाया हुआ है, इसी ढंग के सब गुलदस्ते हैं।

भेरो - हां एक बात ताज्जुब की और भी है जो मैंने अभी तक आपसे नहीं कही।

इंद्र - वह क्या?

भैरो - (हाथ का इशारा करके) ये दोनों दरवाजे सिर्फ घुमाकर मैंने खुले छोड़ दिए थे मगर सुबह को और दरवाजों की तरह इन्हें भी बंद पाया।

तारा - (आनंदसिंह की तरफ देखकर) शायद रात को आप उठे हों

आनंद - नहीं।

इसी तरह देर तक ये लोग ताज्जुब भरी बातें करते रहे मगर अकल ने कुछ गवाही न दी कि क्या मामला है। राजा वीरेंद्रसिंह भी आ पहुंचे, उनके साथ और भी कई मुसाहिब लोग आ जमे। सभी इस आश्चर्य की बात को सुनकर सोचने और गौर करने लगे। कई बुजदिलों को भूत-प्रेत और पिशाच का ध्यान आया मगर महाराज और दोनों कुमारों के खौफ से कुछ बोल न सके, क्योंकि ये लोग ऐसे डरपोक और इस खयाल के आदमी न थे और न ऐसे आदमियों को अपने साथ रखना ही पसंद करते थे।

इन फूलों के गजरों और गुलदस्तों को किसी ने न छेड़ा और वे ज्यों-के-त्यों जहां के तहां लगे रह गये। रईसों की हाजिरी और शहर के इंतजाम में दिन बीत गया और रात को फिर कल ही की तरह दोनों भाई मसहरी पर सो रहे, दोनों ऐयार भी मसहरी के बगल में जमीन पर लेट गये, मगर आपस में मिल-जुलकर बारी-बारी से जागते रहने का विचार दोनों ने ही कर लिया था और अपने बीच में एक लंबी छड़ी इसलिए रख ली थी कि अगर रात को किसी समय कोई ऐयार कुछ देखे तो बिना मुंह से बोले लकड़ी के इशारे से दूसरे को जगा दे। इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह ने भी कह रखा था कि अगर घर में किसी को देखना तो चुपके से हमें जगा देना जिससे हम लोग भी देख लें कि कौन है और कहां से आता है।

आधी रात से कुछ ज्यादे जा चुकी है। कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह गहरी नींद में बेसुध पड़े हैं। पहरे के मुताबिक लेटे-लेटे तारासिंह दरवाजे की तरफ देख रहे हैं। यकायक पूरब तरफ वाली कोठरी में कुछ खटका हुआ। तारासिंह जरा-सा घूम गए और पड़े-पड़े ही उस कोठरी की तरफ देखने लगे। बारीक चादर पहले ही से दोनों ऐयारों के मुंह पर पड़ी हुई थी और रोशनी अच्छी तरह हो रही थी।

कोठरी का दरवाजा धीरे-धीरे खुलने लगा। तारासिंह ने लकड़ी के इशारे से भैरोसिंह को उठा दिया जो बड़ी होशियारी से घूमकर कोठरी की तरफ देखने लगे। कोठरी के दरवाजे का एक पल्ला अब अच्छी तरह खुल गया और एक निहायत हसीन और कमसिन औरत किवाड़ पर हाथ रखे खड़ी दोनों मसहरियों की तरफ देखती नजर पड़ी। भैरोसिंह और तारासिंह ने मसहरी के पांव पर हाथ का इशारा देकर दोनों भाइयों को भी जगा दिया।

इंद्रजीतसिंह का रुख तो पहले ही उस कोठरी की तरफ था मगर आनंदसिंह उस तरफ पीठ किए सो रहे थे। जब उनकी आंखें खुलीं तो अपने सामने की तरफ जहां तक देख सकते थे कुछ भी न देखा, लाचार धीरे से उनको करवट बदलनी पड़ी और तब मालूम हुआ कि इस कमरे में क्या आश्चर्य की बात दिखाई दे रही है।

अब कोठरी का दूसरा पल्ला भी खुल गया और वह हसीन औरत सिर से पैर तक अच्छी तरह इन चारों को दिखाई देने लगी क्योंकि उसके तमाम बदन पर बखूबी रोशनी पड़ रही थी। वह औरत नखशिख से ऐसी दुरुस्त थी कि उसकी तरफ चारों की टकटकी बंध गई। बेशकीमती सफेद साड़ी और जड़ाऊ जेवरों से वह बहुत ही भली मालूम हो रही थी। जेवरों में सिर्फ खुशरंग मानिक जड़ा हुआ था जिसकी सुर्खी उसके गोरे रंग पर पड़कर उसके हुस्न को हद्द से ज्यादा रौनक दे रही थी। उसकी पेशानी (माथे) पर एक दाग था जिसके देखने से विश्वास होता था कि बेशक इसने कभी तलवार या किसी हरबे की चोट खाई है। यह दो अंगुल का दाग भी उसकी खूबसूरती को बढ़ाने के लिए जेवर ही हो रहा था। उसे देख ये चारों आदमी यही सोचते होंगे कि इससे बढ़कर खूबसूरत रंभा और उर्वशी अप्सरा भी न होंगी। कुंअर इंद्रजीतसिंह तो किशोरी पर मोहित हो रहे थे, उसकी तस्वीर इनके दिल में खिंच रही थी, उन पर चाहे उसके हुस्न ने ज्यादा असर न किया हो मगर आनंदसिंह की क्या हालत हो गई यह वे ही जानते होंगे। बहुत बचाते रहने पर भी ठंडी सांसें उनसे न रुक सकीं जिससे हम भी कह सकते हैं कि उनके दिल ने उनकी ठंडी सांसों के साथ ही बाहर निकलकर कह दिया कि अब तुम्हारे कब्जे में नहीं है।

कुंअर आनंदसिंह अपने को संभाल न सके, उठ बैठे और उधर ही देखने लगे जिधर वह औरत किवाड़ का पल्ला थामे खड़ी थी। उनकी यह हालत देख तीनों आदमियों को विश्वास हो गया कि वह भाग जायगी, मगर नहीं, वह इनको उठकर बैठते देख जरा भी न हिचकी, ज्यों-की-त्यों खड़ी रही, बल्कि इनकी तरफ देख उसने जरा-सा हंस दिया, जिससे ये और भी बेचैन हो गए।

कुंअर आनंदसिंह यह सोचकर कि उस कोठरी में किसी दूसरी तरफ निकल जाने के लिए दूसरा दरवाजा नहीं है मसहरी पर से उठ खड़े हुए और उस औरत की तरफ चले। इनको अपनी तरफ आते देख वह औरत कोठरी में चली गई और फुर्ती से उसका दरवाजा भीतर से बंद कर लिया।

कुंअर इंद्रजीतसिंह की तबीयत चाहे दुरुस्त हो गई हो मगर कमजोरी अभी तक मौजूद है, बल्कि सब जख्म भी अभी तक कुछ गीले हैं, इसलिए अभी घूमने-फिरने लायक नहीं हुए। उस परीजमाल को भीतर से किवाड़ बंद कर लेते देख सब उठ खड़े हुए, कुंअर इंद्रजीतसिंह भी तकिए का सहारा लेकर बैठ गए और बोले, ''इस कोठरी में किसी तरफ निकल जाने का रास्ता तो नहीं है।''

भैरो - जी नहीं।

आनंद - (किवाड़ में धक्का देकर) इसे खोलना चाहिए।

तारा - मुश्किल तो कुछ नहीं, (इंद्रजीतसिंह की तरफ देखकर) क्या हुक्म होता है

इंद्र - जब इस कोठरी में दूसरी तरफ निकल जाने का रास्ता ही नहीं तो जल्दी क्यों करते हो

इंद्रजीतसिंह के इतना कहते ही आनंदसिंह वहां से हटे और अपने भाई के पास जाकर बैठ गए। भैरोसिंह और तारासिंह भी पास आकर बैठ गए और यों बातचीत होने लगी -

इंद्र - (भैरोसिंह और तारासिंह की तरफ देखकर) तुममें से कोई जागता भी रहा या दोनों सो गए थे

भैरो - नहीं, सो क्या जाएंगे हम लोग बारी-बारी से बराबर जागते और महीन चादर से मुंह ढांके दरवाजे की तरफ देखते रहे।

इंद्र - तो क्या इसी दरवाजे में से इस औरत को आते देखा था?

आनंद - बेशक इसी तरफ से आई होगी।

तारा - जी नहीं, यही तो ताज्जुब है कि कमरे के दरवाजे ज्यों-के-त्यों भिड़के रह गये और यकायक कोठरी का दरवाजा खुला और वह नजर आई।

इंद्र - यह तो अच्छी तरह मालूम है न कि उस कोठरी में और कोई दरवाजा नहीं है।

भेरो - जी हां, अच्छी तरह जानते हैं, और कोई दरवाजा नहीं है।

तारा - क्या कहें, कोई सुने तो यही कहे कि चुड़ैल थी!

आनंद - राम, राम! यह भी कोई बात है!

इंद्र - खैर जो हो, मेरी राय यही है कि पिताजी के आने तक कोठरी का दरवाजा न खोला जाय।

आनंद - जो हुक्म, मगर मैं तो यह चाहता था कि पिताजी के आने तक दरवाजा खोलकर सब कुछ दरियाफ्त कर लिया जाता।

इंद्र - खैर खोलो।

हुक्म पाते ही कुंअर आनंदसिंह उठ खड़े हुए, खूंटी से लटकती हुई एक भुजाली उतार ली और उस दरवाजे के पास जा एक-एक हाथ दोनों कुलाबों पर मारा जिससे कुलाबे कट गए। तारासिंह ने दोनों पल्ले उतार अलग रख दिए। भैरोसिंह ने एक बलता हुआ शमादान उठा लिया और चारों आदमी उस कोठरी के अंदर गए मगर वहां एक चूहे का बच्चा भी नजर न आया।

इस कोठरी में तीन तरफ मजबूत दीवारें थीं और एक तरफ वही दरवाजा था जिसका कुलाबा काट के ये लोग अंदर आए थे, हां, सामने की तरफ वाली अर्थात बिचली दीवार में काठ की एक अलमारी जड़ी हुई थी। इन लोगों का ध्यान उस अलमारी पर गया और सोचने लगे कि शायद यह अलमारी इस ढंग की हो जो दरवाजे का काम देती हो और इसी राह से वह औरत आई हो, मगर उन लोगों का यह खयाल भी तुरंत जाता रहा और विश्वास हो गया कि अलमारी किसी तरह दरवाजा नहीं हो सकती और न इस राह से वह औरत आई ही होगी, क्योंकि उस अलमारी में भैरोसिंह ने अपने हाथ से कुछ जरूरी असबाब रखकर ताला लगा दिया था जो अभी तक ज्यों का त्यों बंद था। यह कब हो सकता है कि कोई ताला खोलकर इस अलमारी के अंदर घुस गया हो और बाहर का ताला जैसा-का-तैसा दुरुस्त कर दिया हो! लेकिन तब फिर क्या हुआ यह औरत क्योंकर आई और किस राह से चली गई उन लोगों ने लाख सिर धुना और गौर किया मगर कुछ समझ में न आया।

ताज्जुब भरी बातों ही में रात बीत गई। सुबह को जब राजा वीरेंद्रसिंह अपने लड़के को देखने के लिए उस कमरे में आए तो जर्राह-वैद्य तथा और मुसाहिब लोग भी उनके साथ थे। वीरेंद्रसिंह ने इंद्रजीतसिंह से तबीयत का हाल पूछा। उन्होंने कहा, ''अब तबीयत अच्छी है मगर एक जरूरी बात अर्ज किया चाहता हूं जिसके लिए तखलिया (एकांत) हो जाना बेहतर होगा।''

वीरेंद्रसिंह ने भैरोसिंह की तरफ देखा। उसने तखलिया हो जाने में महाराज की रजामंदी जानकर सभी को हट जाने का इशारा किया। बात की बात में सन्नाटा हो गया और सिर्फ वही पांच आदमी उस कमरे में रह गए।

वीरेंद्र - कहो क्या बात है

इंद्र - आज रात एक अजीब बात देखने में आई।

वीरेंद्र - वह क्या?

इंद्र - (तारासिंह की तरफ देखकर) तारासिंह, तुम्हीं सब हाल कह जाओ क्योंकि उस समय तुम्हीं जागते थे, हम लोग तो पीछे जगाए गए थे।

तारा - बहुत खूब।

तारासिंह ने रात का पूरा-पूरा हाल राजा वीरेंद्रसिंह से कह सुनाया जिसे सुनकर उन्होंने बहुत ताज्जुब किया और घंटों तक गौर में डूबे रहने के बाद बोले, ''खैर यह बात किसी और को न मालूम हो नहीं तो मुसाहिबों और अहलकारों में खलबली पैदा हो जायगी और सैकड़ों तरह की गप्पें उड़ने लगेंगी। देखो तो क्या होता है और कब तक पता नहीं लगता, आज हम भी इसी कमरे में सोएंगे।''

एक दिन क्या कई दिनों तक राजा वीरेंद्रसिंह उस कमरे में सोए मगर कुछ मालूम न हुआ और न फिर कोई बात ही देखने में आई, आखिर उन्होंने हुक्म दिया कि उस कोठरी का दरवाजा नया कुलाबा लगाकर फिर उसी तरह बंद कर दिया जाय।

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