दूसरे दिन दो पहर दिन चढ़े बाद किशोरी की बेहोशी दूर हुई। उसने अपने को एक गहन वन के पेड़ों की झुरमुट में जमीन पर पड़े पाया और अपने पास कुंदन और कई आदमियों को देखा। बेचारी किशोरी इन थोड़े ही दिनों में तरह-तरह की मुसीबतों में पड़ चुकी थी। जिस सायत से वह घर से निकली आज तक एक पल के लिए भी सुखी न हुई, मानो सुख तो उसके हिस्से ही में न था। इस समय भी उसने अपने को बुरी अवस्था में पाया। यद्यपि कुंदन उसके सामने बैठी थी परंतु उसे उसकी तरफ से किसी तरह की भलाई की आशा न थी। इसके अतिरिक्त वहां और भी कई आदमियों को देख तथा अपने को बेहोशी की अवस्था से चैतन्य होते पा उसे विश्वास हो गया कि कुंदन ने उसके साथ दगा किया। रात की बातें वह स्वप्न की तरह याद करने लगी और इस समय भी वह इस बात का निश्चय न कर सकी कि उसके साथ कैसा बर्ताव किया जायगा। थोड़ी देर तक वह अपनी मुसीबतों को सोचती और ईश्वर से अपनी मौत मांगती रही। आखिर उस समय उसे कुछ होश आया जब धनपति (कुंदन) ने उसे पुकारकर कहा, ''किशोरी, तू घबरा मत तेरे साथ कोई बुराई न की जायगी।''

किशोरी - मेरी समझ में नहीं आता कि तुम क्या कह रही हो। जो कुछ तुमने किया उससे बढ़कर और बुराई क्या हो सकती है

धन - तेरी जान न मारी जायगी बल्कि जहां तू रहेगी हर तरह से आराम मिलेगा।

किशोरी - क्या इंद्रजीतसिंह भी वहां दिखाई देंगे

धन - हां, अगर तू चाहेगी।

किशोरी - (चौंककर) हैं, क्या कहा अगर मैं चाहूंगी

धन - हां, यही बात है।

किशोरी - कैसे

धन - एक चीठी इंद्रजीतसिंह के नाम जो कुछ मैं कहूं लिख दे!

किशोरी - उसमें क्या लिखना पड़ेगा

धन - केवल इतना ही लिखना पड़ेगा, ''अगर आप मुझे चाहते हैं तो बिना कुछ विचार किए इस आदमी के साथ मेरे पास चले आइये और जो कुछ यह मांगे दे दीजिए, नहीं तो मुझसे मिलने की आशा छोड़िए!''

किशोरी - (कुछ देर तक सोचने के बाद) मैं समझ गई कि तुम्हारी नीयत क्या है। नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता, मैं ऐसी चीठी लिखकर प्यारे इंद्रजीतसिंह को आफत में नहीं फंसा सकती।

धन - तब तू किसी तरह छूट भी नहीं सकती।

किशोरी - जो हो।

धन - बल्कि तेरी जान भी चली जायगी।

किशोरी - बला से, इंद्रजीतसिंह के नाम पर मैं जान देने को तैयार हूं। इतना सुनते ही धनपति (कुंदन) का चेहरा मारे गुस्से के लाल हो गया, अपने साथियों की तरफ देखकर बोली, ''अब मैं इसे नहीं छोड़ सकती, लाचार हूं। इसके हाथ-पैर बांधो और मुझे तलवार दो!'' हुक्म पाते ही उसके साथियों ने बड़ी बेहरमी से किशोरी के हाथ-पैर बांध दिए। धनपति तलवार लेकर किशोरी का सिर काटने के लिए जैसे ही आगे बढ़ी उसके एक साथी ने कहा, ''नहीं, इस तरह मारना मुनासिब न होगा, हम लोग बात की बात में सूखी लकड़ियां बटोरकर ढेर करते हैं, इसे उसी पर रख के फूंक दो, जलकर भस्म हो जायगी और हवा के झोंकों में इसकी राख का भी पता न लगेगा।''

इस राय को धनपति ने पसंद किया और ऐसा ही करने के लिए हुक्म दिया। संगदिल हरामखोरों ने थोड़ी देर में जंगल से चुनकर सूखी लकड़ियों का ढेर लगा दिया। हाथ-पैर बांधकर बेबस की हुई किशोरी उस पर रख दी गई। धनपति के साथियों ने एक छोटा-सा मशाल जलाया और उसे धनपति ने अपने हाथ में लिया। मुंह बंद किए हुए किशोरी यह सब बात देख-सुन और सह रही थी। जिस समय धनपति मशाल लिए चिता के पास पहुंची किशोरी ने ऊंचे स्वर में कहा - ''हे अग्निदेव, तुम साक्षी रहना! मैं कुंअर इंद्रजीतसिंह की मुहब्बत में खुशी-खुशी अपनी जान देती हूं। मैं खूब जानती हूं कि तुम्हारी आंच प्यारे की जुदाई की आंच से बढ़कर नहीं है। जान निकलने में मुझे कुछ भी कष्ट न होगा। प्यारे इंद्रजीत! देखना मेरे लिए दुखी न होना, बल्कि मुझे बिल्कुल ही भूल जाना!!''

हाय! प्रेम से भरी बेचारी किशोरी की दिल को टुकड़े-टुकड़े कर देने वाली इन बातों से भी संगदिलों का दिल नरम न हुआ और हरामजादी कुंदन ने, नहीं-नहीं धनपति ने, चिता में मशाल रख ही दी।

(चौथा भाग समाप्त)

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