नृप का सादर प्रश्न ‘किया है क्या माताओं ने प्रेषित?’
दौवारिक ने कहा ‘और क्या, मुझको भी है यही प्रतीत’
नृप बोले ‘तो उन्हें बुलाओ’ बोला ‘जो आदेश महीप’
करभक को सॅंग लाकर बोला ‘यह भर्ता हैं, चलो समीप’
‘स्वामी की जय हो’ वह कहता किया अधिप का अभिवादन
‘राजन्! देवी की आज्ञा है’ अक्षरशः यह किया कथन-
‘है मेरी उपवास पारणा आगामी चौथे दिन पर
आयुष्मान् करें सम्मानित उस क्षण मुझे यहॉं आकर’
लगे सोचने नृप द्विविधा में ‘प्राप्त परिस्थिति क्षण प्रतिकूल’
किंकर्तव्यविमूढ़ हुए थे विमुख किसी से भी, थी भूल,
‘इधर कार्य है तपस्वियों का, उघर गुरुजनों की आज्ञा,
दोनों अतिक्रमणीय नहीं हैं, मूढ़ हुई मेरी प्रज्ञा’
कहा विदूषक ने ‘त्रिशंकु सा रहो मध्य में ही स्थित’
बोले नृप ‘हे मित्र! सत्य ही मैं हूँ अब आकुल कवलित
आश्रम और नगर दोनों के भिन्न देश के ही कारण
है उत्पन्न धर्मसंकट यह, हुआ हमारा चित्त हरण,
नदियों का प्रवाह बॅंट जाता ज्यों पर्वत से टकराकर
द्विविधा में पड़कर मेरा मन उसी तरह है गया बिखर’
समाधान के लिए शान्त नृप बोले यह कर पुनः विचार
‘अहो सखे! तुम मॉं के द्वारा पुत्र रूप में हो स्वीकार,
जाओ नगर, मिलो तुम मॉं से पुत्र कृत्य में बनो समर्थ
मुझे तपस्वी कार्य कर्मरत कहकर टालो समय अनर्थ’
कहा विदूषक ने ‘तुम मुझको समझो राक्षस-भीरु नहीं’
किया कटाक्ष विहॅसकर नृप ने ‘यह तो संभव कभी नहीं’

किन्तु अधिप के प्रेमाग्रह को किया विदूषक ने स्वीकार
यथा चाहिए राजानुज को जाऊॅंगा मैं उसी प्रकार’
नृप बोले ‘वस्तुतः तपोवन हो जाये उपरोध रहित
अतः तुम्हारे साथ कर रहा सभी अनुचरों को प्रेषित’
नृप से ऐसा वचन विदूषक सुनकर अति प्रमुदित होकर
‘तो मै अब युवराज हो गया’ बोला नृप के हित का वर
तत्पश्चात् अधिप ने सोचा है यह ब्राह्मण अति चंचल
मेरी अर्भ्यथना कदाचित् कहे न अन्तःपुर में चल,
अच्छा तो मैं इस प्रकार ही सम्प्रति कहता हूँ इससे
उस ब्राह्मण का हाथ पकड़कर प्रकट रूप में नृप उससे
बोले ‘ऋषि गौरव के कारण जाया करता हूँ आश्रम
निश्चय ही तापस कन्या के, मित्र!, नहीं अभिलाषी हम’
देखो सर्वकला के ज्ञाता हमस ब राजा लोग कहॉं?
मृगशावक सम्बन्धित जन ये काम-कला-अनभिज्ञ कहॉं?,
अरे मित्र! परिहास भाव में मेरे सब पूर्वोक्त वचन
समझ न लेना तुम यथार्थवत् समझो थे आमोद कथन’
सुनकर यह माढ़व्य ध्यान से ‘ऐसा क्या?’ कह किया सुखान्त
उसके नगर गमन पर नृप का आकुलग्रस्त हृदय था शान्त

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