मिस्टर खन्ना को मजूरों की यह हड़ताल बिलकुल बेजा मालूम होती थी। उन्होंने हमेशा जनता के साथ मिले रहने की कोशिश की थी। वह अपने को जनता का ही आदमी समझते थे। पिछले कौमी आन्दोलन में उन्होंने बड़ा जोश दिखाया था। ज़िले के प्रमुख नेता रहे थे, दो बार जेल गये थे और कई हज़ार का नुक़सान उठाया था। अब भी वह मजूरों की शिकायतें सुनने को तैयार रहते थे; लेकिन यह तो नहीं हो सकता कि वह शक्कर मिल के हिस्सेदारों के हित का विचार न करें। अपना स्वार्थ त्यागने को वह तैयार हो सकते थे, अगर उनकी ऊँची मनोवृत्तियों को स्पर्श किया जाता; लेकिन हिस्सेदारों के स्वार्थ की रक्षा न करना, यह तो अधर्म था। यह तो व्यापार है, कोई सदाव्रत नहीं कि सब कुछ मजूरों को ही बाँट दिया जाय। हिस्सेदारों को यह विश्वास दिलाकर रुपये लिये गये थे कि इस काम में पन्द्रह-बीस सैकड़े का लाभ है। अगर उन्हें दस सैकड़े भी न मिले, तो वे डायरेक्टरों को और विशेष कर मिस्टर खन्ना को धोखेबाज़ ही तो समझेंगे। फिर अपना वेतन वह कैसे कम कर सकते थे। और कम्पनियों को देखते उन्होंने अपना वेतन कम रखा था। केवल एक हज़ार रुपया महीना लेते थे। कुछ कमीशन भी मिल जाता था; मगर वह इतना लेते थे, तो मिल का संचालन भी करते थे। मजूर केवल हाथ से काम करते हैं। डायरेक्टर अपनी बुद्धि से, विद्या से, प्रतिभा से, प्रभाव से काम करता है। दोनों शक्तियों का मोल बराबर तो नहीं हो सकता। मजूरों को यह सन्तोष क्यों नहीं होता कि मन्दी का समय है, और चारों तरफ़ बेकारी फैली रहने के कारण आदमी सस्ते हो गये हैं। उन्हें तो एक की जगह पौन भी मिले, तो सन्तुष्ट रहना चाहिए था। और सच पूछो तो वे सन्तुष्ट हैं। उनका कोई क़सूर नहीं। वे तो मूख हैं, बछिया के ताऊ! शरारत तो ओंकारनाथ और मिरज़ा खुशेर्द ही है। यही लोग उन बेचारों को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं, केवल थोड़े-से पैसे और यश के लोभ में पड़कर। यह नहीं सोचते कि उनकी दिल्लगी से कितने घर तबाह हो जायँगे। ओंकारनाथ का पत्र नहीं चलता तो बेचारे खन्ना क्या करें! और आज उनके पत्र के एक लाख ग्राहक हो जायँ, और उससे उन्हें पाँच लाख का लाभ होने लगे, तो क्या वह केवल अपने गुज़ारे भर को लेकर शेष कार्यकर्ताओं में बाँट देंगे? कहाँ की बात! और वह त्यागी मिरज़ा खुशेर्द भी तो एक दिन लखपति थे। हज़ारों मजूर उनके नौकर थे। तो क्या वह अपने गुज़ारे-भर को लेकर सब कुछ मजूरों को बाँट देते थे। वह उसी गुज़ारे की रक़म में युरोपियन छोकरियों के साथ विहार करते थे। बड़े-बड़े अफ़सरों के साथ दावतें उड़ाते थे, हज़ारों रुपए महीने की शराब पी जाते थे और हर-साल फ़्रांस और स्वीटज़रलैंड की सैर करते थे। आज मजूरों की दशा पर उनका कलेजा फटता है! इन दोनों नेताओं की तो खन्ना को परवाह न थी। उनकी नियत की सफ़ाई में पूरा सन्देह था। न रायसाहब की ही उन्हें परवाह थी, जो हमेशा खन्ना की हाँ-में-हाँ मिलाया करते थे और उनके हर-एक काम का समर्थन कर दिया करते थे। अपने परिचितों में केवल एक ही ऐसा व्यक्ति था, जिसके निष्पक्ष विचार पर खन्ना जी को पूरा भरोसा था और वह डाक्टर मेहता थे। जब से उन्होंने मालती से घनिष्ठता बढ़ानी शुरू की थी, खन्ना की नज़रों में उनकी इज़्ज़त बहुत कम हो गयी थी। मालती बरसों खन्ना की हृदयेश्वरी रह चुकी थी; पर उसे उन्होंने सदैव खिलौना समझा था। इसमें सन्देह नहीं कि वह खिलौना उन्हें बहुत प्रिय था। उसके खो जाने, या टूट जाने, या छिन जाने पर वह ख़ूब रोते, और वह रोये थे, लेकिन थी वह खिलौना ही। उन्हें कभी मालती पर विश्वास न हुआ। वह कभी उनके ऊपरी विलास-आवरण को छेदकर उनके अन्तःकरण तक न पहुँच सकी थी। वह अगर ख़ुद खन्ना से विवाह का प्रस्ताव करती, तो वह स्वीकार न करते। कोई बहाना करके टाल देते। अन्य कितने ही प्राणियों की भाँति खन्ना का जीवन भी दोहरा या दो-रुखी था। एक ओर वह त्याग और जन-सेवा और उपकार के भक्त थे, तो दूसरी ओर स्वार्थ और विलास और प्रभुता के। कौन उनका असली रुख़ था, यह कहना कठिन है। कदाचित् उनकी आत्मा का उत्तम आधा सेवा और सहृदयता से बना हुआ था, मद्धिम आधा स्वार्थ और विलास से। पर उत्तम और मद्धिम में बराबर संघर्ष होता रहता था। और मद्धिम ही अपनी उद्दंडता और हठ के कारण सौम्य और शान्त उत्तम पर ग़ालिब आता था। उनका मद्धिम मालती की ओर झुकता था, उत्तम मेहता की ओर; लेकिन वह उत्तम अब मद्धिम के साथ एक हो गया था। उनकी समझ में न आता था कि मेहता-जैसा आदर्शवादी व्यक्ति मालती-जैसी चंचल, विलासिनी रमणी पर कैसे आसक्त हो गया। वह बहुत प्रयास करने पर भी मेहता को वासनाओं का शिकार न स्थिर कर सकते थे और कभी-कभी उन्हें यह सन्देह भी होने लगता था कि मालती का कोई दूसरा रूप भी है, जिसे वह न देख सके या जिसे देखने की उनमें क्षमता न थी। पक्ष और विपक्ष के सभी पहलुओं पर विचार करके उन्होंने यही नतीजा निकाला कि इस परिस्थिति में मेहता ही से उन्हें प्रकाश मिल सकता है। डाक्टर मेहता को काम करने का नशा था। आधी रात को सोते थे और घड़ी रात रहे उठ जाते थे। कैसा भी काम हो, उसके लिए वह कहीं-न-कहीं से समय निकाल लेते थे। हाकी खेलना हो या यूनिवसिर्टी डिबेट, ग्राम्य संगठन हो या किसी शादी का नैवेद्य, सभी कामों के लिए उनके पास लगन थी और समय था। वह पत्रों में लेख भी लिखते थे और कई साल से एक बृहद् दर्शन-ग्रन्थ लिख रहे थे, जो अब समाप्त होनेवाला था। इस वक़्त भी वह एक वैज्ञानिक खेल ही खेल रहे थे। अपने बागीचे में बैठे हुए पौधों पर विद्युत-संचार-क्रिया की परीक्षा कर रहे थे। उन्होंने हाल में एक विद्वान-परिषद् में यह सिद्ध किया था कि फ़सलें बिजली की ज़ोर से बहुत थोड़े समय में पैदा की जा सकती हैं, उनकी पैदावार बढ़ायी जा सकती है और बेफ़स्ल की चीज़ें भी उपजायी जा सकती हैं। आज-कल सबेरे के दो तीन घंटे वह इन्हीं परीक्षाओं में लगाया करते थे। मिस्टर खन्ना की कथा सुनकर उन्होंने कठोर मुद्रा से उनकी ओर देखकर कहा -- क्या यह ज़रूरी था कि डयूटी लग जाने से मजूरों का वेतन घटा दिया जाय? आपको सरकार से शिकायत करनी चाहिए थी। अगर सरकार ने नहीं सुना तो उसका दंड मजूरों को क्यों दिया जाय? क्या आपका विचार है कि मजूरों को इतनी मजूरी दी जाती है कि उसमें चौथाई कम कर देने से मजूरों को कष्ट नहीं होगा। आपके मजूर बिलों में रहते हैं -- गन्दे, बदबूदार बिलों में -- जहाँ आप एक मिनट भी रह जायँ, तो आपको क़ै हो जाय। कपड़े जो पहनते हैं, उनसे आप अपने जूते भी न पोछेंगे। खाना जो वह खाते हैं, वह आपका कुत्ता भी न खायेगा। मैंने उनके जीवन में भाग लिया है। आप उनकी रोटियाँ छीनकर अपने हिस्सेदारों का पेट भरना चाहते हैं ... खन्ना ने अधीर होकर कहा -- लेकिन हमारे सभी हिस्सेदार तो धनी नहीं हैं। कितनों ही ने अपना सर्वस्व इसी मिल को भेंट कर दिया है और इसके नफ़े के सिवा उनके जीवन का कोई आधार नहीं है। मेहता ने इस भाव से जवाब दिया, जैसे इस दलील का उनकी नज़रों में कोई मूल्य नहीं है -- जो आदमी किसी व्यापार में हिस्सा लेता है, वह इतना दरिद्र नहीं होता कि इसके नफ़े ही को जीवन का आधार समझे। हो सकता है कि नफ़ा कम मिलने पर उसे अपना एक नौकर कम कर देना पड़े या उसके मक्खन और फलों का बिल कम हो जाय; लेकिन वह नंगा या भूखा न रहेगा। जो अपनी जान खपाते हैं, उनका हक़ उन लोगों से ज़्यादा है, जो केवल रुपया लगाते हैं। यही बात पण्डित ओंकारनाथ ने कही थी। मिरज़ा खुर्शेद ने भी यही सलाह दी थी। यहाँ तक कि गोविन्दी ने भी मजूरों ही का पक्ष लिया था; पर खन्नाजी ने उन लोगों की परवाह न की थी, लेकिन मेहता के मुँह से वही बात सुनकर वह प्रभावित हो गये। ओंकारनाथ को वह स्वार्थी समझते थे, मिरज़ा खुर्शेद को ग़ैरज़िम्मेदार और गोविन्दी को अयोग्य। मेहता की बात में चरित्र, अध्ययन और सद्भाव की शक्ति थी।

सहसा मेहता ने पूछा -- आपने अपनी देवीजी से भी इस विषय में राय ली?

खन्ना ने सकुचाते हुए कहा -- हाँ, पूछा था।

' उनकी क्या राय थी? '

' वही जो आप की है। '

' मुझे यही आशा थी। और आप उस विदुषी को अयोग्य समझते हैं। '

उसी वक़्त मालती आ पहुँची और खन्ना को देखकर बोली -- अच्छा, आप विराज रहे हैं? मैंने मेहताजी की आज दावत की है। सभी चीज़ें अपने हाथ से पकायी हैं। आपको भी नेवता देती हूँ। गोविन्दी देवी से आपका यह अपराध क्षमा करा दूँगी।

खन्ना को कुतूहल हुआ। अब मालती अपने हाथों से खाना पकाने लगी है? मालती, वही मालती, जो ख़ुद कभी अपने जूते न पहनती थी, जो ख़ुद कभी बिजली का बटन तक न दबाती थी, विलास और विनोद ही जिसका जीवन था। मुस्कराकर कहा -- अगर आपने पकाया है, तो ज़रूर खाऊँगा। मैं तो कभी सोच ही न सकता था कि आप पाक-कला में भी निपुण हैं।

मालती निःसंकोच भाव से बोली -- इन्होंने मार-मारकर वैद्य बना दिया। इनका हुक्म कैसे टाल सकती। पुरुष देवता ठहरे।

खन्ना ने इस व्यंग का आनन्द लेकर मेहता की ओर आँखें मारते हुए कहा -- पुरुष तो आपके लिए इतने सम्मान की वस्तु न थी।

मालती झेंपी नहीं। इस संकोच का आशय समझकर जोश-भरे स्वर में बोली -- लेकिन अब हो गयी हूँ; इसलिए कि मैंने पुरुष का जो रूप अपने परिचितों की परिधि में देखा था, उससे यह कहीं सुन्दर है। पुरुष इतना सुन्दर, इतना कोमल हृदय ...।

मेहता ने मालती की ओर दीन-भाव से देखा और बोले -- नहीं मालती, मुझ पर दया करो, नहीं मैं यहाँ से भाग जाऊँगा।

इन दिनों जो कोई मालती से मिलता, वह उससे मेहता की तारीफ़ों के पुल बाँध देती, जैसे कोई नवदीक्षित अपने नये विश्वासों का ढिंढोरा पीटता फिरे। सुरुचि का ध्यान भी उसे न रहता। और बेचारे मेहता दिल में कटकर रह जाते थे। वह कड़ी और कड़वी आलोचना तो बड़े शौक़ से सुनते थे; लेकिन अपनी तारीफ़ सुनकर जैसे बेवक़ूफ़ बन जाते थे; मुँह ज़रा-सा निकल आता था, जैसे कोई फ़बती छा गयी हो। और मालती उन औरतों में न थी, जो भीतर रह सके। वह बाहर ही रह सकती थी, पहले भी और अब भी; व्यवहार में भी, विचार में भी। मन में कुछ रखना वह न जानती थी। जैसे एक अच्छी साड़ी पाकर वह उसे पहनने के लिए अधीर हो जाती थी, उसी तरह मन में कोई सुन्दर भाव आये, तो वह उसे प्रकट किये बिना चैन न पाती थी।

मालती ने और समीप आकर उनकी पीठ पर हाथ रखकर मानो उनकी रक्षा करते हुए कहा -- अच्छा भागो नहीं, अब कुछ न कहूँगी। मालूम होता है, तुम्हें अपनी निन्दा ज़्यादा पसन्द है। तो निन्दा ही सुनो -- खन्नाजी, यह महाशय मुझ पर अपने प्रेम का जाल ... शक्कर-मिल की चिमनी यहाँ से साफ़ नज़र आती थी।

खन्ना ने उसकी तरफ़ देखा। वह चिमनी खन्ना के कीर्तिस्तम्भ की भाँति आकाश में सिर उठाये खड़ी थी। खन्ना की आँखों में अभिमान चमक उठा। इसी वक़्त उन्हें मिल के दफ़्तर में जाना है। वहाँ डायरेक्टरों की एक अर्जेंट मीटिंग करनी होगी और इस परिस्थिति को उन्हें समझाना होगा और इस समस्या को हल करने का उपाय भी बतलाना होगा। मगर चिमनी के पास यह धुआँ कहाँ से उठ रहा है। देखते-देखते सारा आकाश वैलून की भाँति धुएँ से भर गया। सबों ने सशंक होकर उधर देखा। कहीं आग तो नहीं लग गयी? आग ही मालूम होती है। सहसा सामने सड़क पर हज़ारों आदमी मिल की तरफ़ दौड़े जाते नज़र आये।

खन्ना ने खड़े होकर ज़ोर से पूछा -- तुम लोग कहाँ दौड़े जा रहे हो?

एक आदमी ने रुककर कहा -- अजी, शक्कर-मिल में आग लग गयी। आप देख नहीं रहे हैं?

खन्ना ने मेहता की ओर देखा और मेहता ने खन्ना की ओर। मालती दौड़ी हुई बँगले में गयी और अपने जूते पहन आयी। अफ़सोस और शिकायत करने का अवसर न था। किसी के मुँह से एक बात न निकली। ख़तरे में हमारी चेतना अन्तमुर्खी हो जाती है। खन्ना की कार खड़ी थी ही। तीनों आदमी घबड़ाये हुए आकर बैठे और मिल की तरफ़ भागे। चौरस्ते पर पहुँचे, तो देखा, सारा शहर मिल की ओर उमड़ा चला आ रहा है। आग में आदमियों को खींचने का जादू है। कार आगे न बढ़ सकी।

मेहता ने पूछा -- आग-बीमा तो करा लिया था न?

खन्ना ने लम्बी साँस खींचकर कहा -- कहाँ भाई, अभी तो लिखा-पढ़ी हो रही थी। क्या जानता था, यह आफ़त आनेवाली है।

कार वहीं राम-आसरे छोड़ दी गयी और तीनों आदमी भीड़ चीरते हुए मिल के सामने जा पहुँचे। देखा तो अग्नि का एक सागर आकाश में उमड़ रहा था। अग्नि की उन्मत्त लहरें एक-पर-एक, दाँत पीसती थीं, जीभ लपलपाती थीं जैसे आकाश को भी निगल जायँगी, उस अग्नि-समुद्र के नीचे ऐसा धुआँ छाया था, मानो सावन की घटा कालिख में नहाकर नीचे उतर आयी हो। उसके ऊपर जैसे आग का थरथराता हुआ, उबलता हुआ हिमाचल खड़ा था। हाते में लाखों आदमियों की भीड़ थी, पुलिस भी थी, फ़ायर ब्रिगेड भी, सेवा-समितियों के सेवक भी; पर सब-के-सब आग की भीषणता से मानो शिथिल हो गये हों। फ़ायर ब्रिगेड के छींटे उस अग्नि-सागर में जाकर जैसे बुझ जाते थे। ईंटें जल रही थीं, लोहे के गार्डर जल रहे थे और पिघली हुई शक्कर के परनाले चारों तरफ़ बह रहे थे। और तो और, ज़मीन से भी ज्वाला निकल रही थी।

दूर से मेहता और खन्ना को यह आश्चर्य हो रहा था कि इतने आदमी खड़े तमाशा क्यों देख रहे हैं, आग बुझाने में मदद क्यों नहीं करते; मगर अब इन्हें भी ज्ञात हुआ कि तमाशा देखने के सिवा और कुछ करना अपने वश से बाहर है। मिल की दीवारों से पचास गज के अन्दर जाना जान-जोख़िम था। ईट और पत्थर के टुकड़े चटाक-चटाक टूटकर उछल रहे थे। कभी-कभी हवा का रुख़ इधर हो जाता था, तो भगदड़ पड़ जाती थी। ये तीनों आदमी भीड़ के पीछे खड़े थे। कुछ समझ में न आता था, क्या करें। आख़िर आग लगी कैसे! और इतनी जल्द फैल कैसे गयी? क्या पहले किसी ने देखा ही नहीं? या देखकर भी बुझाने का प्रयास न किया? इस तरह के प्रश्न सभी के मन में उठ रहे थे; मगर वहाँ पूछें किससे, मिल के कर्मचारी होंगे तो ज़रूर; लेकिन उस भीड़ में उनका पता मिलना कठिन था।

सहसा हवा का इतना तेज़ झोंका आया कि आग की लपटें नीची होकर इधर लपकीं, जैसे समुद्र में ज्वार आ गया हो। लोग सिर पर पाँव रखकर भागे। एक दूसरे पर गिरते, रेलते, जैसे कोई शेर झपटा आता हो। अग्नि-ज्वालाएँ जैसे सजीव हो गयी थीं, सचेष्ट भी, जैसे कोई शेषनाग अपने सह्रस मुख से आग फुँकार रहा हो। कितने ही आदमी तो इस रेले में कुचल गये। खन्ना मुँह के बल गिर पड़े, मालती को मेहताजी दोनों हाथों से पकड़े हुए थे, नहीं ज़रूर कुचल गयी होतीं?

तीनों आदमी हाते की दीवार के पास एक इमली के पेड़ के नीचे आकर रुके। खन्ना एक प्रकार की चेतना-शून्य तन्मयता से मिल की चिमनी की ओर टकटकी लगाये खड़े थे। मेहता ने पूछा -- आपको ज़्यादा चोट तो नहीं आयी?

खन्ना ने कोई जवाब न दिया। उसी तरफ़ ताकते रहे। उनकी आँखों में वह शून्यता थी, जो विक्षिप्तता का लक्षण है। मेहता ने उनका हाथ पकड़कर फिर पूछा -- हम लोग यहाँ व्यर्थ खड़े हैं, मुझे भय होता है आपको चोट ज़्यादा आ गयी। आइए, लौट चलें।

खन्ना ने उनकी तरफ़ देखा और जैसे सनककर बोले -- जिनकी यह हरकत है, उन्हें मैं ख़ूब जानता हूँ। अगर उन्हें इसी में सन्तोष मिलता है, तो भगवान् उनका भला करे। मुझे कुछ परवा नहीं, कुछ परवा नहीं। कुछ परवा नहीं! मैं आज चाहूँ, तो ऐसी नयी मिल खड़ी कर सकता हूँ। जी हाँ, बिलकुल नयी मिल खड़ी कर सकता हूँ। ये लोग मुझे क्या समझते हैं? मिल ने मुझे नहीं बनाया, मैंने मिल को बनाया। और मैं फिर बना सकता हूँ; मगर जिनकी यह हरकत है, उन्हें मैं ख़ाक में मिला दूँगा। मुझे सब मालूम है, रत्ती-रत्ती मालूम है।

मेहता ने उनका चेहरा और उनकी चेष्टा देखी और घबराकर बोले -- चलिए, आपको घर पहुँचा दूँ। आपकी तबीयत अच्छी नहीं है।

खन्ना ने क़हक़हा मार कर कहा -- मेरी तबीयत अच्छी नहीं है! इसलिए कि मिल जल गयी। ऐसी मिलें मैं चुटकियों में खोल सकता हूँ। मेरा नाम खन्ना है, चन्द्रप्रकाश खन्ना! मैंने अपना सब कुछ इस मिल में लगा दिया। पहली मिल में हमने २० प्रतिशत नफ़ा दिया। मैंने प्रोत्साहित होकर यह मिल खोली। इसमें आधे रुपए मेरे हैं। मैंने बैंक के दो लाख इस मिल में लगा दिये। मैं एक घंटा नहीं, आध घंटा पहले, दस लाख का आदमी था। जी हाँ, दस लाख; मगर इस वक़्त फ़ाकेमस्त हूँ -- नहीं दिवालिया हूँ! मुझे बैंक को दो लाख देना है। जिस मकान में रहता हूँ, वह अब मेरा नहीं है। जिस बर्तन में खाता हूँ, वह भी अब मेरा नहीं है। बैंक से मैं निकाल दिया जाऊँगा। जिस खन्ना को देखकर लोग जलते थे, वह खन्ना अब धूल में मिल गया है। समाज में अब मेरा कोई स्थान नहीं है, मेरे मित्र मुझे अपने विश्वास का पात्र नहीं, दया का पात्र समझेंगे। मेरे शत्रु मुझसे जलेंगे नहीं, मुझ पर हँसेंगे। आप नहीं जानते मिस्टर मेहता, मैंने अपने सिद्धान्तों की कितनी हत्या की है। कितनी रिश्वतें दी हैं, कितनी रिश्वतें ली हैं। किसानों की ऊख तौलने के लिए कैसे आदमी रखे, कैसे नक़ली बाट रखे। क्या कीजिएगा, यह सब सुनकर; लेकिन खन्ना अपनी यह दुर्दशा कराने के लिए क्यों ज़िन्दा रहे। जो कुछ होना है हो, दुनिया जितना चाहे हँसे, मित्र लोग जितना चाहें अफ़सोस करें, लोग जितनी गालियाँ देना चाहें दें। खन्ना अपनी आँखों से देखने और अपने कानों से सुनने के लिए जीता न रहेगा। वह बेहया नहीं, बे ग़ैरत नहीं है!

यह कहते-कहते खन्ना दोनों हाथों से सिर पीटकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। मेहता ने उन्हें छाती से लगाकर दुखित स्वर में कहा -- खन्नाजी, ज़रा धीरज से काम लीजिए। आप समझदार होकर दिल इतना छोटा करते हैं। दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका सम्मान नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है। आप निर्धन रहकर भी स्त्रियों के विश्वास-पात्र रह सकते हैं और शत्रुओं के भी; बल्कि तब कोई आपका शत्रु रहेगा ही नहीं। आइए, घर चलें। ज़रा आराम कर लेने से आपका चित्त शान्त हो जायगा।

खन्ना ने कोई जवाब न दिया। तीनों आदमी चौरस्ते पर आये। कार खड़ी थी। दस मिनट में खन्ना की कोठी पर पहुँच गये। खन्ना ने उतरकर शान्त स्वर में कहा -- कार आप ले जायँ। अब मुझे इसकी ज़रूरत नहीं है।

मालती और मेहता भी उतर पड़े। मालती ने कहा -- तुम चलकर आराम से लेटो, हम बैठे गप-शप करेंगे; घर जाने की तो ऐसी कोई जल्दी नहीं है।

खन्ना ने कृतज्ञता से उसकी ओर देखा और करुण-कंठ से बोले -- मुझसे जो अपराध हुए हैं, उन्हें क्षमा कर देना मालती! तुम और मेहता, बस तुम्हारे सिवा संसार में मेरा कोई नहीं है। मुझे आशा है तुम मुझे अपनी नज़रों से न गिराओगी। शायद दस-पाँच दिन में यह कोठी भी छोड़नी पड़े। क़िस्मत ने कैसा धोखा दिया।

मेहता ने कहा -- मैं आपसे सच कहता हूँ खन्नाजी, आज मेरी नज़रों में आपकी जो इज़्ज़त है वह कभी न थी।

तीनों आदमी कमरे में दाख़िल हुए। द्वार खुलने की आहट पाते ही गोविन्दी भीतर से आकर बोली -- क्या आप लोग वहीं से आ रहे हैं? महाराज तो बड़ी बुरी ख़बर लाया।

खन्ना के मन में ऐसा प्रबल, न रुकनेवाला, तूफ़ानी आवेश उठा कि गोविन्दी के चरणों पर गिर पड़े, और उसे आँसुओं से धो दें। भारी गले से बोले -- हाँ प्रिये, हम तबाह हो गये। उनकी निर्जीव, निराश आहत आत्मा सान्त्वना के लिए विकल हो रही थी; सच्ची स्नेह में डूबी हुई सान्त्वना के लिए, उस रोगी की भाँति जो जीवन-सूत्र क्षीण हो जाने पर भी वैद्य के मुख की ओर आशा-भरी आँखों से ताक रहा हो। वही गोविन्दी जिस पर उन्होंने हमेशा ज़ुल्म किया, जिसका हमेशा अपमान किया, जिससे हमेशा बेवफ़ाई की, जिसे सदैव जीवन का भार समझा, जिसकी मृत्यु की सदैव कामना करते रहे, वही इस समय जैसे अंचल में आशीर्वाद और मंगल और अभय लिये उन पर वार रही थी, जैसे उन चरणों में ही उनके जीवन का स्वर्ग हो, जैसे वह उनके अभागे मस्तक पर हाथ रखकर ही उनकी प्राणहीन धमनियों में फिर रक्त का संचार कर देगी। मन की इस दुर्बल दशा में, इस घोर विपत्ति में, मानो वह उन्हें कंठ से लगा लेने के लिए खड़ी थी। नौका पर बैठे हुए जल-विहार करते समय हम जिन चट्टानों को घातक समझते हैं, और चाहते हैं कि कोई इन्हें खोद कर फेंक देता, उन्हीं से, नौका टूट जाने पर, हम चिमट जाते हैं।

गोविन्दी ने उन्हें एक सोफ़ा पर बैठा दिया और स्नेह-कोमल स्वर में बोली -- तो तुम इतना दिल छोटा क्यों करते हो? धन के लिए, जो सारे पाप की जड़ है? उस धन से हमें क्या सुख था? सबेरे से आधी रात तक एक-न-एक झंझट -- आत्मा का सर्वनाश! लड़के तुमसे बात करने को तरस जाते थे, तुम्हें सम्बन्धियों को पत्र लिखने तक की फ़ुरसत न मिलती थी। क्या बड़ी इज़्ज़त थी? हाँ, थी; क्योंकि दुनिया आज तक धन की पूजा करती चली आयी है। उसे तुमसे कोई प्रयोजन नहीं। जब तक तुम्हारे पास लक्ष्मी है, तुम्हारे सामने पूँछ हिलायेगी। कल उतनी ही भक्ति से दूसरों के द्वार पर सिजदे करेगी। तुम्हारी तरफ़ ताकेगी भी नहीं। सत्पुरुष धन के आगे सिर नहीं झुकाते। वह देखते हैं, तुम क्या हो; अगर तुममें सच्चाई है, न्याय है, त्याग है, पुरुषार्थ है, तो वे तुम्हारी पूजा करेंगे। नहीं तुम्हें समाज का लुटेरा समझकर मुँह फेर लेंगे; बल्कि तुम्हारे दुश्मन हो जायँगे! मैं ग़लत तो नहीं कहती मेहताजी?

मेहता ने मानो स्वर्ग-स्वप्न से चौंककर कहा -- ग़लत? आप वही कह रही हैं, जो संसार के महान् पुरुषों ने जीवन का सात्विक अनुभव करने के बाद कहा है। जीवन का सच्चा आधार यही है।

गोविन्दी ने मेहता को सम्बोधित करके कहा -- धनी कौन होता है, इसका कोई विचार नहीं करता। वही जो अपने कौशल से दूसरों को बेवक़ूफ़ बना सकता है ...।

खन्ना ने बात काटकर कहा -- नहीं गोविन्दी, धन कमाने के लिए अपने में संस्कार चाहिए। केवल कौशल से धन नहीं मिलता। इसके लिए भी त्याग और तपस्या करनी पड़ती है। शायद इतनी साधना में ईश्वर भी मिल जाय। हमारी सारी आत्मिक और बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों के सामंजस्य का नाम धन है।

गोविन्दी ने विपक्षी न बनकर मध्यस्थ भाव से कहा -- मैं मानती हूँ कि धन के लिए थोड़ी तपस्या नहीं करनी पड़ती; लेकिन फिर भी हमने उसे जीवन में जितने महत्व की वस्तु समझ रखा है, उतना महत्व उसमें नहीं है। मैं तो ख़ुश हूँ कि तुम्हारे सिर से यह बोझ टला। अब तुम्हारे लड़के आदमी होंगे, स्वार्थ और अभिमान के पुतले नहीं। जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं। बुरा न मानना, अब तक तुम्हारे जीवन का अर्थ था आत्मसेवा, भोग और विलास। दैव ने तुम्हें उस साधन से वंचित करके तुम्हें ज़्यादा ऊँचे और पवित्र जीवन का रास्ता खोल दिया है। यह सिद्धि प्राप्त करने में अगर कुछ कष्ट भी हो, तो उसका स्वागत करो। तुम इसे विपत्ति समझते ही क्यों हो? क्यों नहीं समझते, तुम्हें अन्याय से लड़ने का यह अवसर मिला है। मेरे विचार में तो पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है। धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महँगा सौदा नहीं है। न्याय के सैनिक बनकर लड़ने में जो गौरव, जो उल्लास है, क्या उसे इतनी जल्द भूल गये?

गोविन्दी के पीले, सूखे मुख पर तेज की ऐसी चमक थी, मानो उसमें कोई विलक्षण शक्ति आ गयी हो, मानो उसकी सारी मूक साधना प्रगल्भ हो उठी हो। मेहता उसकी ओर भक्ति-पूर्ण नेत्रों से ताक रहे थे, खन्ना सिर झुकाये इसे दैवी प्रेरणा समझने की चेष्टा कर रहे थे और मालती मन में लज्जित थी। गोविन्दी के विचार इतने ऊँचे, उसका हृदय इतना विशाल और उसका जीवन इतना उज्ज्वल है!

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