सिद्धान्त का सबसे बड़ा दुश्मन है मुरौवत। कठिनाइयों, बाघओं, प्रलोभनों का सामना आप कर सकते हैं दृढ़ संकल्प और आत्मबल से। लेकिन एक दिली दोस्त से बेमुरौबती तो नहीं की जाती, सिद्धन्त रहे या जाय। कई साल पहले मैंने जनेऊ हाथ में लेकर प्रतिज्ञा की थी कि अब कभी किसी की बरात में न जाऊंगा, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय। ऐसी विकट प्रतिज्ञा करने की जरूरत क्यों पड़ी, इसकी कथा लंबी है और आज भी उसे याद करके मेरी प्रतिज्ञा को जीवन मिल जाता है। बरात थी कायस्थों की। समधी थे मेरे पुराने मित्र। बरातियों में अधिकांश जान-पहचान के लोग थे। देहात में जाना था। मैंने सोचा, चलो दो-तीन दिन देहात की सैर रहेगी, चल पड़ा। लेकिन मुझे यह देखकर हैरत हुई कि बरातियों की वहां जाकर बुद्धि ही कुछ भ्रष्ट हो गई है। बात-बात पर झगड़ा-तकरार। सभी कन्यापक्षवालों से मानो लड़ने को तैयार। यह चीज नहीं आई, वह चीज नहीं भेजी, यह आदमी है या जानवर, पानी बिना बरफ के कौन पियेगा। गधे ने बरफ भेजी भी तो दस सेर। पूछो दस सेर बरफ लेकिर आंखों में लगायें या किसी देवता को चढ़ाएं! अजबचिल्ल-पों मची हुई थी। कोई किसी की न सुनता था। समधी साहब सिर पीट रहे थे कि यहां उनके मित्रों की जितनी दुर्गति हुई, उसका उन्हें उम्र-भर खेद रहेगा। वह क्या जानते थे कि लड़कीवाले इतने गंवार हैं। गंवार क्यों, मतलबी कहिए। कहने को शिक्षित हैं, सभ्य हैं, भद्र हैं, धन भी भगवान् की दया से कम नहीं, मगर दिल के इतने छोटे। दस सेर बरफ भेजते हैं! सिगरेट की एक डिबिया भी नहीं। फंस गया और क्या।
मैंने उनसे बिना सहानुभूति दिखाये कहा-सिगरेट नहीं भेजे तो कौन-सा बड़ा अनर्थ हो गया, खमीरा तम्बाकू तो दस सेर भेज दिया है, पीती क्यों नहीं घोल-घोल कर।
मेरे समधी मित्र ने विस्मय-भरी आंखों से मुझे मानो उन्हें कानों पर विश्वास न हो। ऐसी अनीति!
बोले-आप भी अजीब आदमी हैं, खमीरा यहां कौन पीता है। मुद्दत हुई लोगों ने गुड़गुड़ियां और फर्शियां गुदड़ी बाजार में बेच डालीं। थोड़े-से दकियानूसी अब भी हुक्का गुड़गुड़ाते हैं लेकिन बहुत कम। यहां तो ईश्वर की कृपा से सभी नई रोशनी, नये विचार, नये जमाने के लोग हैं और कन्यावाले यह बात जानते हैं, फिर भी गिगरेट नहीं भेजी, यहां कई सज्जन आठ-दस डिबियां रोज पी जाते हैं। एक साहब तो बारह तक पहुंच जाते हैं। और चार-पांच डिबियां तो आम बात है। इतने आदमियों के बीच में पांच सौ डिबियां भी न हों तो क्या हो। और बरफ देखी आपने, जेसे दवा के लिए भेजी है। यहां इतनी बरफ घर-घर आती है। मैं तो अकेला ही दस सेर पी जाता हूं। देहातियों को कभी हगल न आएगी, पढ़लिख कितने ही जाए।
मैंने कहा-तो आपको अपने साथ एक गाड़ी सिगरेट और टन-भर बरफ लेते आना चाहिए था।
वह स्तम्भित हो गए-आप भंग तो नहीं खा गए?
--जी नहीं, कभी उम्र-भर नहीं खाई।
--तो फिर ऐसी ऊल-जलूल बातें क्यों करते हो?
--मैं तो सम्पूर्णत: अपने होश में हूं।
--होश में रहने वाला आदमी ऐसी बात नहीं कर सकता। हम यहां लड़का ब्याहने आए हैं, लड़कीवालों को हमारी सारी फरमाइशें पूरी करनी पड़ेंगी, सारी। हम जो कुद मांगेंगे उन्हें देना पड़ेगा, रो-रोकर देना पड़ेगा, दिल्लगी नहीं है। नाकों चने न चबवा दें तो कहिएगा। यह हमारा खुला हुआ अपमान है। द्वार पर बुलाकर जलील करना। मेरे साथ जो लोग आए हैं वे नाई-कहार नहीं हैं, बड़े-बड़े आदमी हैं। मैं उनकी तौहीन नहीं देख सकता। अगर इन लोगों की यह जिद है तो बरात लौट जाएगी।
मैंने देखा यह इस वक्त ताव में हैं, इनसे बहस करना उचित नहीं। आज जीवन में पहली बार, केवल दो दिन के लिए, इन्हें एक आदमी पर अधिकार मिल गया है। उसकी गर्दन इनके पांव के नीचे है। फिर उन्हें क्यों न नशा हो जाय क्यों न सिर फिर जाय, क्यों न उस दिल खोलकर रोब जमाएं। वरपक्षवाले कन्यापक्षवालों पर मुद्दतों से हुकूमत करते चले आए हैं, और उस अधिकार को त्याग देना आसान नहीं। इन लोगों के दिमाग में इस वक्त यह बात कैसे आएगी कि तुम कन्यपक्षवालों के मेहमान हो और वे तुम्हें जिस तरह रखना चाहें तुम्हें रहना पड़ेगा। मेहमान को जो आदर-सत्कार, चूनी-चोकर, रूखा-सूखा मिले, उस पर उसे सन्तुष्ट होना चाहिए, शिष्टता यह कभी गवारा नहीं कर सकती कि वह जिनका मेहमान है, उनसे अपनी खातिरदारी का टैक्स वसूल करे। मैंने वहां से टल जाना ही मुनासिब समझा।
लेकिन जब विवाह का मुर्हूत आया, इधर से एक दर्जन व्हिस्की की बोतलों की फरमाइश हुई और कहा गया कि जब तक बोतलें न आ जाएगी हम विवाह-संस्कार के लिए मंडप में न जाएंगे। तब मुझसे न देखा गया। मैंने समझ लिया कि ये सब एशु हैं, इंसानियत से खाली। इनके साथ एक क्षण रहना भी अपनी आत्मा का खून करना है। मैंने उसी वक्त प्रतिज्ञा की कि अब कभी किसी बरात में न जाऊंगा और अपना बोरिया-बकचा लेकर उसी क्षण वहां से चल दिया।
इसलिए जब गत मंगलवार को मेरे परम मित्र सुरेश बाबू ने मुझ अपने लडके के विवाह का निमन्त्रण दिया तो मैंने सुरेश बाबू को दोनों हाथों से पकड़कर कहा-जी नहीं, मुझे कीजिए, मैं न जाऊंगा।
उन्होंने खिन्न होकर कहा-आखिर क्यों?
‘मैंने प्रतिज्ञा कर ली है अब किसी बरात में न जाऊंगा।’
‘अपने बेटे की बरात में भी नहीं?’
‘बेटे की बरात में खुद अपना स्वामी रहूंगा।’
‘तो समझ लीजिए यह आप ही का पुत्र है और आप यहाँ अपने स्वामी हैं।’
मैं निरुतर हो गया। फिर भी मैंने अपना पक्ष न छोड़ा।
‘आप लोग वहां कन्यापक्षवालों से सिगरेट बर्फ, तेल, शराब आदि-आदि चीजों के लिए आग्रह तो न करेंगे?’
‘भूलकर भी नहीं, इस विषय में मेरे विचार वहीं हैं जो आपके।’
‘ऐसा तो न होगा कि मेरे जैसे विचार रखते हुए भी आप वहीं दुराग्रहियों की बातों में आ जाएं और वे अपने हथकन्डे शुरू कर दें?’
‘मैं आप ही को अपना प्रतिनिधि बनाता हूं। आपके फैसले की वहां कहीं अपील न होगीं।’
दिल में तो मेरे अब भी कुछ संशय था, लेकिन इतना आश्वासन मिलने पर और ज्यादा अड़ना असज्जनता थी। आखिर मेरे वहां जाने से यह बेचारे तर तो नहीं जाएंगे। केवल मुझसे स्नेह रखने के कारण ही तो सब कुछ मेरे हाथों में सौंप रहे हैं। मैंने चलने का वादा कर लिया। लेकिन जब सुरश बाबू विदा होने लगे तो मैंने घड़े को जरा और ठोका-
‘लेन-देन का तो कोई झगड़ा नहीं है?’
‘नाम को नहीं। वे लोग अपनी खुशी से जो कुछ देंगे, वह हम ले लेंगे। मांगने न मांगने का अधिकार तो आपको रहेगा।’
‘अच्छी बात है, मैं चलूंगा।’
शुक्रवार को बरात चली। केवल रेल का सफर था और वह भी पचास मील का। तीसरे पहरके एक्सप्रेस से चले और शाम को कन्या के द्वार पर पहुंच गए। वहां हर तरह का सामान मौजूद था। किसी चीज के मांगने की जरुरत न थी। बरातियों की इतनी खातिरदारी भी हो सकती है, इसकी मुझे कल्पना भी न थी। घराती इतने विनीत हो सकते हैं, कोई बात मुंह से निकली नहीं कि एक की जगह चार आदमी हाथ बांधे हाजिर!
लगन का मुहूर्त आया। हम सभी मंडप में पहुंचे। वहां तिल रखने की जगह भी न थी। किसी तरह धंस-धंसाकर अपने लिए जगह निकाली। सुरेश बाबू मेरे पीछे खड़े थे। बैठने को वहां जगह न थी।
कन्या-दान संस्कार शुरु हुआ। कन्या का पिता, एक पीताम्बर पहने आकर वर के सामने बैठ गया और उसके चरणों को धोकर उन पर अक्षत, फूल आदि चढ़ाने लगा। मैं अब तक सैकड़ों बरातों में जा चुका था, लेकिन विवाह-संस्कार देखने का मुझे कभी अवसर न मिला था। इस समय वर के सगे-संबंधी ही जाते हैं। अन्य बराती जनवासे में पड़े सोते हैं। या नाच देखते हैं, या ग्रामाफोन के रिकार्ड सुनते हैं। और कुछ न हुआ तो कई टोलियों में ताश खेलते हैं। अपने विवाह की मुझे याद नहीं। इस वक्त कन्या के वृद्ध पिता को एक युवक के चरणों की पूजा करते देखकर मेरी आत्मा को चोट लगी। यह हिन्दू विवाह का आदर्श है या उसका परिहास? जामाता एक प्रकार से अपना पुत्र है, उसका धर्म है कि अपने धर्मपिता के चरण धोये, उस पर पान-फूल चढ़ाये। यह तो नीति-संगत मालूम होता है। कन्या का पिता वर के पांव पूजे यह तो न शिष्टता है, न धर्म, न मर्यादा। मेरी विद्रोही आत्मा किसी तरह शांत न रह सकी। मैंने झल्लाए हुए स्वर में कहा-यह क्या अनर्थ हो रहा है, भाइयो! कन्या के पिता का यह अपमान! क्या आप लोगों में आदमियत रही ही नहीं?
मंडप में सन्नाटा छा गया। मैं सभी आंखों का केन्द्र बन गया। मेरा क्या आशाय है, यह किसी की समझ में न आया।
आखिर सुरेश बाबू ने पूछा-कैसा अपमान और किसका अपमान? यहां तो किसी का अपमान नहीं हो रहा है।
‘कन्या का पिता वर के पांव पूजे, यह अपमान नहीं तो क्या है?’
‘यह अपमान नहीं, भाई साहब, प्राचीन प्रथा है।’
कन्या के पिता महोदय बोले-यह मेरा अपमान नहीं है मान्यवर, मेरा अहोभाग्य कि आज का यह शुभ अवसर आया। आप इतने ही से घबरा गये। अभी तो कम से कम एक सौ आदमी पैपुजी के इन्तजार में बैठे हुए हैं। कितने ही तरसते हैं कि कन्या होती तोवर के पांव पूजकर अपना जन्म सफल करते।
मैं लाजवाब हो गया। समधी साहब पांव पूज चुके तो त्रियों और पुरुषों का एक समूह वर की तरफ उमड़ पड़ा। और प्रत्येक प्राणी लगा उसके पांव पूजने जो आता था, अपनी हैसियत के अनुसार कुछ न कुछ चढ़ा जाता था। सब लोग प्रसन्नचित्त और गदगद नेत्रों से यह नाटक देख रहे थे और मैं मन में सोच रहा था-जब समाज में औचित्य ज्ञान का इतना लोप हो गया है और लोग अपने अपमान को अपना सम्मान समझते हैं तो फिर क्यों न त्रियों की समाज में दुर्दशा हो, क्यों न वे अपने को पुरुष के पांव की जूती समझें, क्यों न उनके आत्मसम्मान का सर्वनाश हो जाय!
जब विवाह-संस्कार समाप्त हो गया और वर-वधू मंडप से निकले तो मैंने जल्दी से आगे बढ़कर उसी थाल से थोड़े-से फूल चुन लिए और एक अर्द्ध-चेतना की दशा में, न जाने किन भावों से प्रेरित होकर, उन फूलों को वधू के चरणों पर रख दिया, और उसी वक्त वहां से घर चल दिया।
-‘माधुरी’, अक्तूबर, १९३५
मैंने उनसे बिना सहानुभूति दिखाये कहा-सिगरेट नहीं भेजे तो कौन-सा बड़ा अनर्थ हो गया, खमीरा तम्बाकू तो दस सेर भेज दिया है, पीती क्यों नहीं घोल-घोल कर।
मेरे समधी मित्र ने विस्मय-भरी आंखों से मुझे मानो उन्हें कानों पर विश्वास न हो। ऐसी अनीति!
बोले-आप भी अजीब आदमी हैं, खमीरा यहां कौन पीता है। मुद्दत हुई लोगों ने गुड़गुड़ियां और फर्शियां गुदड़ी बाजार में बेच डालीं। थोड़े-से दकियानूसी अब भी हुक्का गुड़गुड़ाते हैं लेकिन बहुत कम। यहां तो ईश्वर की कृपा से सभी नई रोशनी, नये विचार, नये जमाने के लोग हैं और कन्यावाले यह बात जानते हैं, फिर भी गिगरेट नहीं भेजी, यहां कई सज्जन आठ-दस डिबियां रोज पी जाते हैं। एक साहब तो बारह तक पहुंच जाते हैं। और चार-पांच डिबियां तो आम बात है। इतने आदमियों के बीच में पांच सौ डिबियां भी न हों तो क्या हो। और बरफ देखी आपने, जेसे दवा के लिए भेजी है। यहां इतनी बरफ घर-घर आती है। मैं तो अकेला ही दस सेर पी जाता हूं। देहातियों को कभी हगल न आएगी, पढ़लिख कितने ही जाए।
मैंने कहा-तो आपको अपने साथ एक गाड़ी सिगरेट और टन-भर बरफ लेते आना चाहिए था।
वह स्तम्भित हो गए-आप भंग तो नहीं खा गए?
--जी नहीं, कभी उम्र-भर नहीं खाई।
--तो फिर ऐसी ऊल-जलूल बातें क्यों करते हो?
--मैं तो सम्पूर्णत: अपने होश में हूं।
--होश में रहने वाला आदमी ऐसी बात नहीं कर सकता। हम यहां लड़का ब्याहने आए हैं, लड़कीवालों को हमारी सारी फरमाइशें पूरी करनी पड़ेंगी, सारी। हम जो कुद मांगेंगे उन्हें देना पड़ेगा, रो-रोकर देना पड़ेगा, दिल्लगी नहीं है। नाकों चने न चबवा दें तो कहिएगा। यह हमारा खुला हुआ अपमान है। द्वार पर बुलाकर जलील करना। मेरे साथ जो लोग आए हैं वे नाई-कहार नहीं हैं, बड़े-बड़े आदमी हैं। मैं उनकी तौहीन नहीं देख सकता। अगर इन लोगों की यह जिद है तो बरात लौट जाएगी।
मैंने देखा यह इस वक्त ताव में हैं, इनसे बहस करना उचित नहीं। आज जीवन में पहली बार, केवल दो दिन के लिए, इन्हें एक आदमी पर अधिकार मिल गया है। उसकी गर्दन इनके पांव के नीचे है। फिर उन्हें क्यों न नशा हो जाय क्यों न सिर फिर जाय, क्यों न उस दिल खोलकर रोब जमाएं। वरपक्षवाले कन्यापक्षवालों पर मुद्दतों से हुकूमत करते चले आए हैं, और उस अधिकार को त्याग देना आसान नहीं। इन लोगों के दिमाग में इस वक्त यह बात कैसे आएगी कि तुम कन्यपक्षवालों के मेहमान हो और वे तुम्हें जिस तरह रखना चाहें तुम्हें रहना पड़ेगा। मेहमान को जो आदर-सत्कार, चूनी-चोकर, रूखा-सूखा मिले, उस पर उसे सन्तुष्ट होना चाहिए, शिष्टता यह कभी गवारा नहीं कर सकती कि वह जिनका मेहमान है, उनसे अपनी खातिरदारी का टैक्स वसूल करे। मैंने वहां से टल जाना ही मुनासिब समझा।
लेकिन जब विवाह का मुर्हूत आया, इधर से एक दर्जन व्हिस्की की बोतलों की फरमाइश हुई और कहा गया कि जब तक बोतलें न आ जाएगी हम विवाह-संस्कार के लिए मंडप में न जाएंगे। तब मुझसे न देखा गया। मैंने समझ लिया कि ये सब एशु हैं, इंसानियत से खाली। इनके साथ एक क्षण रहना भी अपनी आत्मा का खून करना है। मैंने उसी वक्त प्रतिज्ञा की कि अब कभी किसी बरात में न जाऊंगा और अपना बोरिया-बकचा लेकर उसी क्षण वहां से चल दिया।
इसलिए जब गत मंगलवार को मेरे परम मित्र सुरेश बाबू ने मुझ अपने लडके के विवाह का निमन्त्रण दिया तो मैंने सुरेश बाबू को दोनों हाथों से पकड़कर कहा-जी नहीं, मुझे कीजिए, मैं न जाऊंगा।
उन्होंने खिन्न होकर कहा-आखिर क्यों?
‘मैंने प्रतिज्ञा कर ली है अब किसी बरात में न जाऊंगा।’
‘अपने बेटे की बरात में भी नहीं?’
‘बेटे की बरात में खुद अपना स्वामी रहूंगा।’
‘तो समझ लीजिए यह आप ही का पुत्र है और आप यहाँ अपने स्वामी हैं।’
मैं निरुतर हो गया। फिर भी मैंने अपना पक्ष न छोड़ा।
‘आप लोग वहां कन्यापक्षवालों से सिगरेट बर्फ, तेल, शराब आदि-आदि चीजों के लिए आग्रह तो न करेंगे?’
‘भूलकर भी नहीं, इस विषय में मेरे विचार वहीं हैं जो आपके।’
‘ऐसा तो न होगा कि मेरे जैसे विचार रखते हुए भी आप वहीं दुराग्रहियों की बातों में आ जाएं और वे अपने हथकन्डे शुरू कर दें?’
‘मैं आप ही को अपना प्रतिनिधि बनाता हूं। आपके फैसले की वहां कहीं अपील न होगीं।’
दिल में तो मेरे अब भी कुछ संशय था, लेकिन इतना आश्वासन मिलने पर और ज्यादा अड़ना असज्जनता थी। आखिर मेरे वहां जाने से यह बेचारे तर तो नहीं जाएंगे। केवल मुझसे स्नेह रखने के कारण ही तो सब कुछ मेरे हाथों में सौंप रहे हैं। मैंने चलने का वादा कर लिया। लेकिन जब सुरश बाबू विदा होने लगे तो मैंने घड़े को जरा और ठोका-
‘लेन-देन का तो कोई झगड़ा नहीं है?’
‘नाम को नहीं। वे लोग अपनी खुशी से जो कुछ देंगे, वह हम ले लेंगे। मांगने न मांगने का अधिकार तो आपको रहेगा।’
‘अच्छी बात है, मैं चलूंगा।’
शुक्रवार को बरात चली। केवल रेल का सफर था और वह भी पचास मील का। तीसरे पहरके एक्सप्रेस से चले और शाम को कन्या के द्वार पर पहुंच गए। वहां हर तरह का सामान मौजूद था। किसी चीज के मांगने की जरुरत न थी। बरातियों की इतनी खातिरदारी भी हो सकती है, इसकी मुझे कल्पना भी न थी। घराती इतने विनीत हो सकते हैं, कोई बात मुंह से निकली नहीं कि एक की जगह चार आदमी हाथ बांधे हाजिर!
लगन का मुहूर्त आया। हम सभी मंडप में पहुंचे। वहां तिल रखने की जगह भी न थी। किसी तरह धंस-धंसाकर अपने लिए जगह निकाली। सुरेश बाबू मेरे पीछे खड़े थे। बैठने को वहां जगह न थी।
कन्या-दान संस्कार शुरु हुआ। कन्या का पिता, एक पीताम्बर पहने आकर वर के सामने बैठ गया और उसके चरणों को धोकर उन पर अक्षत, फूल आदि चढ़ाने लगा। मैं अब तक सैकड़ों बरातों में जा चुका था, लेकिन विवाह-संस्कार देखने का मुझे कभी अवसर न मिला था। इस समय वर के सगे-संबंधी ही जाते हैं। अन्य बराती जनवासे में पड़े सोते हैं। या नाच देखते हैं, या ग्रामाफोन के रिकार्ड सुनते हैं। और कुछ न हुआ तो कई टोलियों में ताश खेलते हैं। अपने विवाह की मुझे याद नहीं। इस वक्त कन्या के वृद्ध पिता को एक युवक के चरणों की पूजा करते देखकर मेरी आत्मा को चोट लगी। यह हिन्दू विवाह का आदर्श है या उसका परिहास? जामाता एक प्रकार से अपना पुत्र है, उसका धर्म है कि अपने धर्मपिता के चरण धोये, उस पर पान-फूल चढ़ाये। यह तो नीति-संगत मालूम होता है। कन्या का पिता वर के पांव पूजे यह तो न शिष्टता है, न धर्म, न मर्यादा। मेरी विद्रोही आत्मा किसी तरह शांत न रह सकी। मैंने झल्लाए हुए स्वर में कहा-यह क्या अनर्थ हो रहा है, भाइयो! कन्या के पिता का यह अपमान! क्या आप लोगों में आदमियत रही ही नहीं?
मंडप में सन्नाटा छा गया। मैं सभी आंखों का केन्द्र बन गया। मेरा क्या आशाय है, यह किसी की समझ में न आया।
आखिर सुरेश बाबू ने पूछा-कैसा अपमान और किसका अपमान? यहां तो किसी का अपमान नहीं हो रहा है।
‘कन्या का पिता वर के पांव पूजे, यह अपमान नहीं तो क्या है?’
‘यह अपमान नहीं, भाई साहब, प्राचीन प्रथा है।’
कन्या के पिता महोदय बोले-यह मेरा अपमान नहीं है मान्यवर, मेरा अहोभाग्य कि आज का यह शुभ अवसर आया। आप इतने ही से घबरा गये। अभी तो कम से कम एक सौ आदमी पैपुजी के इन्तजार में बैठे हुए हैं। कितने ही तरसते हैं कि कन्या होती तोवर के पांव पूजकर अपना जन्म सफल करते।
मैं लाजवाब हो गया। समधी साहब पांव पूज चुके तो त्रियों और पुरुषों का एक समूह वर की तरफ उमड़ पड़ा। और प्रत्येक प्राणी लगा उसके पांव पूजने जो आता था, अपनी हैसियत के अनुसार कुछ न कुछ चढ़ा जाता था। सब लोग प्रसन्नचित्त और गदगद नेत्रों से यह नाटक देख रहे थे और मैं मन में सोच रहा था-जब समाज में औचित्य ज्ञान का इतना लोप हो गया है और लोग अपने अपमान को अपना सम्मान समझते हैं तो फिर क्यों न त्रियों की समाज में दुर्दशा हो, क्यों न वे अपने को पुरुष के पांव की जूती समझें, क्यों न उनके आत्मसम्मान का सर्वनाश हो जाय!
जब विवाह-संस्कार समाप्त हो गया और वर-वधू मंडप से निकले तो मैंने जल्दी से आगे बढ़कर उसी थाल से थोड़े-से फूल चुन लिए और एक अर्द्ध-चेतना की दशा में, न जाने किन भावों से प्रेरित होकर, उन फूलों को वधू के चरणों पर रख दिया, और उसी वक्त वहां से घर चल दिया।
-‘माधुरी’, अक्तूबर, १९३५