देवीसिंह उस बुङ्ढी के पीछे रवाना हुए। जब तक दिन बाकी रहा बुङ्ढी चलती गई। उन्होंने भी पीछा न छोड़ा। कुछ रात गये तक वह चुडैल एक छोटे से पहाड़ के दर्रे में पहुंची जिसके दोनों तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ियां थीं। थोड़ी दूर इस दर्रे के अंदर जा वह एक खोह में घुस गई जिसका मुंह बहुत छोटा, सिर्फ एक आदमी के जाने लायक था।

देवीसिंह ने समझा शायद यही इसका घर होगा, यह सोच पेड़ के नीचे बैठ गये। रात भर उसी तरह बैठे रह गये मगर फिर वह बुढ़िया उस खोह में से बाहर न निकली। सबेरा होते ही देवीसिंह भी उसी खोह में घुसे।

उस खोह के अंदर बिल्कुल अंधकार था, देवीसिंह टटोलते हुए चले जा रहे थे। अगल-बगल जब हाथ फैलाते तो दीवार मालूम पड़ती जिससे जाना जाता कि यह खोह एक सुरंग के तौर पर है, इसमें कोई कोठरी या रहने की जगह नहीं है। लगभग दो मील गये होंगे कि सामने की तरफ चमकती हुई रोशनी नजर आई। जैसे-जैसे आगे जाते थे रोशनी बढ़ी मालूम होती थी, जब पास पहुंचे तो सुरंग के बाहर निकलने का दरवाजा देखा।

देवीसिंह बाहर हुए, अपने को एक छोटी-सी पहाड़ी नदी के किनारे पाया, इधर-उधर निगाह दौड़ाकर देखा तो चारों तरफ घना जंगल। कुछ मालूम न पड़ा कि कहां चले आए और लश्कर में जाने की कौन-सी राह है। दिन भी पहर भर से ज्यादे जा चुका था। सोचने लगे कि उस बुङ्ढी ने खूब छकाया, न मालूम वह किस राह से निकलकर कहां चली गई, अब उसका पता लगाना मुश्किल है। फिर इसी सुरंग की राह से फिरना पड़ा क्योंकि ऊपर से जंगल-जंगल लश्कर में जाने की राह मालूम नहीं, कहीं ऐसा न हो कि भूल जायं तो और भी खराबी हो, बड़ी भूल हुई कि रात को बुङ्ढी के पीछे-पीछे हम भी इस सुरंग में न घुसे,मगर यह क्या मालूम था कि इस सुरंग में दूसरी तरफ निकल जाने के लिए रास्ता है।

देवीसिंह मारे गुस्से के दांत पीसने लगे मगर कर ही क्या सकते थे? बुङ्ढी तो मिली नहीं कि कसर निकालते, आखिर लाचार हो उसी सुरंग की राह से वापस हुए और शाम होते-होते लश्कर में पहुंचे।

कुमार के खेमे में गये, देखा कि कई आदमी बैठे हैं और वीरेन्द्रसिंह फतहसिंह से बातें कर रहे हैं। देवीसिंह को देख सब कोई खेमे के बाहर चले गये सिर्फ फतहसिंह रह गये। कुमार ने पूछा, “क्यो उस बुङ्ढी की क्या खबर लाए?”

देवी-बुङ्ढी ने तो बेहिसाब धोखा दिया!

कुमार-(हंसकर) क्या धोखा दिया?

देवीसिंह ने बुङ्ढी के पीछे जाकर परेशान होने का सब हाल कहा जिसे सुनकर कुमार और भी उदास हुए। देवीसिंह ने फतहसिंह से पूछा, “हमारे ओस्ताद और ज्योतिषीजी कहां हैं?”

उन्होंने जवाब दिया कि ”बुङ्ढी चुड़ैल के आने से कुमार बहुत रंज में थे, उसी हालत में तेजसिंह से कह बैठे कि तुम लोगों की ऐयारी में इन दिनों उल्ली लग गई। इतना सुन गुस्से में आकर ज्योतिषीजी को साथ ले कहीं चले गए, अभी तक नहीं आए।”

देवी-कब गए?

फतह-तुम्हारे जाने के थोड़ी देर बाद।

देवी-इतने गुस्से में ओस्ताद का जाना खाली न होगा, जरूर कोई अच्छा काम करके आवेंगे!

कुमार-देखना चाहिए।

इतने में तेजसिंह और ज्योतिषीजी वहां आ पहुंचे। इस वक्त उनके चेहरे पर खुशी और मुस्कराहट झलक रही थी जिससे सब समझे कि जरूर कोई काम कर आए हैं। कुमार ने पूछा, “क्यों क्या खबर है?”

तेज-अच्छी खबर है।

कुमार-कुछ कहोगे भी कि इसी तरह?

तेज-आप सुन के क्या कीजिएगा?

कुमार-क्या मेरे सुनने लायक नहीं है?

तेज-आपके सुनने लायक क्यों नहीं है मगर अभी न कहेंगे।

कुमार-भला कुछ तो कहो?

तेज-कुछ भी नहीं।

देवी-भला ओस्ताद हमें भी बताओगे या नहीं?

तेज-क्या तुमने ओस्ताद कहकर पुकारा इससे तुमको बता दें?

देवी-झख मारोगे और बताओगे!

तेज-(हंसकर) तुम कौन-सा जस लगा आए पहले यह तो कहो?

देवी-मैं तो आपकी शागिर्दी में बट्टा लगा आया।

तेज-तो बस हो चुका।

ये बातें हो ही रही थीं कि चोबदार ने आकर हाथ जोड़ अर्ज किया कि ”महाराज शिवदत्त के दीवान आये हैं।” सुनकर कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा फिर कहा, “अच्छा आने दो, उनके साथ वाले बाहर ही रहें।”

महाराज शिवदत्त के दीवान खेमे में हाजिर हुए और सलाम करके बहुत-सा जवाहरात नजर किया। कुमार ने हाथ से छू दिया। दीवान ने अर्ज किया, “यह नजर महाराज शिवदत्त की तरफ से ले आया हूं। ईश्वर की दया और आपकी कृपा से महाराज कैद से छूट गये हैं। आते ही दरबार करके हुक्म दे दिया कि आज से हमने कुंअर वीरेन्द्रसिंह की ताबेदारी कबूल की, हमारे जितने मुलाजिम या ऐयार हैं वे भी आज से कुमार को अपना मालिक समझें, बाद इसके मुझको यह नजर और अपने हाथ की लिखी खत देकर हुजूर में भेजा है, इस नजर को कबूल किया जाय!”

कुमार ने नजर कबूल कर तेजसिंह के हवाले की और दीवान साहब को बैठने का इशारा किया, वे खत देकर बैठ गये।

कुछ रात जा चुकी थी, कुमार ने उसी वक्त दरबारेआम किया, जब अच्छी तरह दरबार भर गया तब तेजसिंह को हुक्म दिया कि खत जोर से पढ़ो। तेजसिंह ने पढ़ना शुरू किया, लंबे-चौड़े सिरनामे के बाद यह लिखा था-

“मैं किसी ऐसे सबब से उस तहखाने की कैद से छूटा जो आप ही की कृपा से छूटना कहला सकता है। आप जरूर इस बात को सोचेंगे कि मैं आपकी दया से कैसे छूटा, आपने तो कैद ही किया था, तो ऐसा सोचना न चाहिए। किसी सबब से मैं अपने छूटने का खुलासा हाल नहीं कह सकता और न हाजिर ही हो सकता हूं। मगर जब मौका होगा और आपको मेरे छूटने का हाल मालूम होगा यकीन हो जायगा कि मैंने झूठ नहीं कहा था। अब मैं उम्मीद करता हूं कि आप मेरे बिल्कुल कसूरों को माफ करके यह नजर कबूल करेंगे। आज से हमारा कोई ऐयार या मुलाजिम आपसे ऐयारी या दगा न करेगा और आप भी इस बात का ख्याल रखें।

-आपका शिवदत्त।”

इस खत को सुनकर सब खुश हो गए। कुमार ने हुक्म दिया कि पंडित बद्रीनाथजी, जो हमारे यहां कैद हैं लाये जावें। जब वे आये कुमार के इशारे से उनके हाथ-पैर खोल दिए गए। उन्हें भारी खिलअत पहिराकर दीवान साहब के हवाले किया और हुक्म दिया कि आप दो रोज यहां रहकर चुनार जायें। फतहसिंह को उनकी मेहमानी के लिए हुक्म देकर दरबार बर्खास्त किया।

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