दिन दो पहर से कुछ ज्यादे ढल चुका था जब जमानिया में दीवान साहब को रामदीन के आने की इत्तिला मिली। दीवान साहब ने रामदीन को अपने पास बुलाया और उसने दीवान साहब के सामने पहुंचकर गोपालसिंह की चिट्ठी उनके हाथ में दी तथा जब वे चिट्ठी पढ़ चुके तो अंगूठी भी दिखाई। दीवान साहब ने नकली रामदीन से कहा, “महाराज का हुक्म हम लोगों के सिर-आंखों पर, तुम अंगूठी को पहिन लो और हम लोगों को अपने हुक्म का पाबन्द समझो! सवारी और सवारों का इन्तजाम दो घड़ी के अन्दर हो जायगा। तुम यहां रहोगे या सवारों के साथ जाओगे?'
रामदीन ने कहा, “मैं सवारों के साथ ही राजा साहब के पास जाऊंगा मगर इस समय चार आदमियों को खास बाग के अन्दर पहुंचाकर उनके खाने-पीने का इन्तजाम कर देना है जैसा कि हमारे राजा साहब का हुक्म है।”
दीवान - (ताज्जुब से) खास बाग के अन्दर?
रामदीन - जी हां।
दीवान - और ये चारों आदमी हैं कहां पर?
रामदीन - उन्हें मैं बाहर छोड़ आया हूं।
दीवान - (कुछ सोचकर) खैर जो राजा साहब ने हुक्म दिया हो या जो तुम्हारे जी में आवे करो, अब हम लोगों को तो रोकने-टोकने का अधिकार ही नहीं रहा।
रामदीन सलाम करके उठ खड़ा हुआ और अपने चारों साथियों को लेकर तिलिस्मी बाग के अन्दर चला गया जहां इस समय बिल्कुल ही सन्नाटा था। अंगूठी के खयाल से उसे किसी ने भी नहीं रोका और मायारानी बेखटके अपने ठिकाने पहुंच गई तथा लुकने-छिपने और दरवाजों को बन्द करने लगी।
अब हम रामदीन के साथ राजा गोपालसिंह की तरफ रवाना होते हैं और देखते हैं कि बनी-बनाई बात किस तरह चौपट होती है।
संध्या होने से पहिले खाने-पीने का सामान, चार रथ और दो सौ सवारों को लेकर नकली रामदीन पिपलिया घाटी की तरफ रवाना हुआ और दूसरे दिन दोपहर के बाद वहां पहुंचा।
आज ही संध्या होने के पहिले राजा गोपालसिंह यहां पहुंचने वाले थे यह बात रामदीन की जुबानी सभों को मालूम हो चुकी थी और सभी आदमी उनके आने का इन्तजार कर रहे थे।
संध्या हो गई, चिराग जल गया, पहर रात गई, दो पहर रात गुजरी, आखिर तमाम रात बीत गई, मगर राजा गोपालसिंह न आये, इसलिए नकली रामदीन के ताज्जुब का तो कहना ही क्या उसके दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होने लगीं, मगर इसके अतिरिक्त जितने फौजी सवार तथा लोग साथ आये थे उन सभों को भी बहुत ताज्जुब हुआ और वे घड़ी-घड़ी राजा साहब के न आने का सबब उससे पूछने लगे, मगर रामदीन क्या जवाब देता उसे इन बातों की खबर ही क्या थी!
दूसरे दिन संध्या के समय राजा गोपालसिंह घोड़े पर सवार वहां आ पहुंचे मगर अकेले थे, साईस तक साथ में न था। सिपाहियाना ठाठ से बेशकीमत कपड़ों के ऊपर तिलिस्मी कवच-खंजर और ढाल-तलवार लगाये बहुत ही सुन्दर तथा रोआबदार मालूम होते थे। सभों ने झुककर सलाम किया और नकली रामदीन ने आगे बढ़कर घोड़े की लगाम थाम ली तथा उसकी गर्दन पर दो-चार थपकी देकर कहा, “आश्चर्य है कि आपके आने में पूरे आठ पहर की देर हो गई और फिर भी अकेले ही हैं!”
यह सुनकर राजा साहब ने कई पल तक रामदीन का मुंह देखा और तब कहा, “हां किशोरी, कामिनी और लक्ष्मीदेवी वगैरह ने हमारे साथ आने से इनकार किया इसलिए हम अकेले ही आए हैं और हमारे जाने में रात भर की देर है। इस समय हम किसी काम को जाते हैं सबेरे यहां आयेंगे, तब तक तुम सभों को इस घाटी में टिके रहना होगा!”
रामदीन - घोड़ों का दाना तो सिर्फ एक ही दिन का आया था, और सवार लोग भी...।
गोपाल - खैर क्या हर्ज है, घोड़े चराई पर गुजारा कर लेंगे और सवार लोग रात-भर फाका करेंगे।
इतना कहकर राजा गोपालसिंह ने घोड़े की बाग मोड़ी और जिधर से आये थे उसी तरफ तेजी के साथ रवाना हो गये। रामदीन चुपचाप ज्यों-का-त्यों खड़ा उनकी तरफ देखता ही रह गया और जब वे नजरों की ओट हो गये तब उसने सभों को राजा साहब का हुक्म सुनाया और इसके बाद अपने बिछावन पर जाकर सोचने लगा...।
गोपालसिंह की बातें कुछ समझ में नहीं आतीं और न उनके इरादे का ही पता लगता है! लक्ष्मीदेवी और कमलिनी वगैरह को न मालूम क्यों छोड़ आये और जब उन्होंने इनके साथ आने से इनकार किया तो इन्होंने मान क्यों लिया क्या अब लक्ष्मीदेवी का और इनका साथ न होगा अगर ये अकेले जमानिया गए तो क्या केवल इन्हीं के साथ वह सलूक किया जायगा जो हम सोच चुके हैं मगर कमलिनी वगैरह का बचे रह जाना तो अच्छा नहीं होगा। लेकिन फिर क्या किया जाय, लाचारी है। हां एक बात का इन्तजाम तो कुछ किया ही नहीं गया और न पहिले इस बात का विचार ही हुआ। जमानिया पहुंचने पर जब दीवान साहब की जुबानी गोपालसिंह को यह मालूम होगा कि रामदीन ने चार आदमियों को खास बाग के अन्दर पहुंचाया है तब वह क्या सोचेंगे और पूछने पर मुझसे क्या जवाब पावेंगे कुछ भी नहीं। इस बात का जवाब देना मेरे लिए कठिन हो जायगा। तब फिर खास बाग पहुंचने के पहिले ही मेरा भाग जाना उचित होगा ओफ, बड़ी भूल हो गई, यह बात पहिले न सोच ली! दीवान साहब को बिना कुछ कहे ही उन सभों को खास बाग में पहुंचा देना मुनासिब होता। मगर ऐसा करने पर भी तो काम नहीं चलता। अगर दीवान साहब को नहीं तो खास बाग के पहरेदारों को तो मालूम हो ही जाता कि रामदीन चार आदमियों को बाग के अन्दर छोड़ गया है और उन्हीं की जुबानी यह बात राजा साहब को भी मालूम हो जाती। बात एक ही थी, सबसे अच्छा तो तब होता जब वे लोग किसी गुप्त राह से बाग के अन्दर जाते, मगर यह असम्भव था क्योंकि जरूर भीतर से सभी रास्ते गोपालसिंह ने बन्द कर रक्खे होंगे। तब क्या करना चाहिए हां भाग ही जाना सबसे अच्छा होगा। मगर मायारानी को भी इस बात की खबर कर देनी चाहिए। अच्छा तब जमानिया होकर और मायारानी को कह-सुनकर भागना चाहिए। नहीं अब तो यह भी नहीं हो सकता, क्यों मायारानी फौजी सिपाहियों को बाग के अन्दर करके साथियों समेत कहीं छिप गई होगी और मैं उस भाग के गुप्त भेदों को न जानने के कारण इस लायक नहीं हूं कि मायारानी को खोज निकालूं और अपने दिल का हाल उनसे कहूं या उन्हीं के साथ आप भी छिप रहूं। ओफ्! वह तो मजे में अपने ठिकाने पहुंच गई मगर मुझे आफत में डाल गई। खैर अभी तो नहीं मगर गोपालसिंह को जमानिया की हद में पहुंचाकर जरूर भाग जाना पड़ेगा। फिर जब मायारानी उन्हें मारकर अपना दखल जमा लेंगी तब फिर उनसे मुलाकात होती रहेगी।
इन्हीं विचारों में लीला (नकली रामदीन) ने तमाम रात आंखों में बिता दी। सबेरा होने के पहिले ही वह जरूरी कामों से छुट्टी पाने के लिए घोड़े पर सवार होकर दूर चली गई और घण्टे भर बाद लौट आई।