राजा गोपालसिंह को देखते ही सब कोई उठ खड़े हुए और बारी-बारी से सलाम की रस्म अदा की। इस समय भैरोसिंह ने लक्ष्मीदेवी की आंखों से मिलती हुई राजा गोपालसिंह की उस मुहब्बत, मेहरबानी और हमदर्दी की निगाह पर गौर किया जिसे आज के थोड़े दिन पहिले लक्ष्मीदेवी बेताबी के साथ ढूंढ़ती थी या जिसके न पाने से वह तथा उसकी बहिनें तरह-तरह का इलजाम गोपालसिंह पर लगाने का खयाल कर रही थीं।

सभों की इच्छानुसार राजा गोपालसिंह भी दोनों कुमारों के पास ही बैठ गए और सभों के कुशल-मंगल पूछने के बाद कुमार से बोले, “क्या आपको उस बड़े इजलास की फिक्र नहीं है जो चुनार में होने वाला है, जिसमें भूतनाथ का दिलचम्प मुकद्दमा फैसला किया जायेगा और जिसमें उसका तथा और भी कई कैदियों के सम्बन्ध में एक से एक बढ़कर अनूठा हाल खुलेगा साथ ही इसके मुझे यह भी सन्देह होता है कि आप उनकी तरफ से भी कुछ बेफिक्र हो रहे हैं जिनके लिए...।”

इन्द्र - नहीं-नहीं मैं न तो बेफिक्र हूं और न अपने काम में सुस्ती ही किया चाहता हूं!

गोपाल - क्या हम लोग नहीं जानते कि इधर के कई दिन आपने किस तरह व्यर्थ नष्ट किए हैं और इस समय भी किस बेफिक्री के साथ बैठे गप्पें उड़ा रहे हैं?

इन्द्र - (कुछ कहते-कहते रुककर) जी नहीं, इस समय तो हम लोग इन्दिरा का किस्सा सुन रहे थे।

गोपाल - इन्दिरा कहीं भागी नहीं जाती थी, यहां नहीं तो चुनार में हर तरह से बेफिक्र होकर आप इसका किस्सा सुन सकते थे, जहां और भी कई अनूठे किस्से आप सुनेंगे। खैर बताइए कि आप इन्दिरा का किस्सा सुन चुके या नहीं?

इन्द्र - हां और सब किस्सा तो सुन चुका केवल इतना सुनना बाकी है कि आपकी वह तिलिस्मी किताब क्योंकर इसके हाथ लगी और यह उस पुतली की सूरत में क्यों वहां रहा करती थी।

गोपाल - इतना किस्सा आप तिलिस्मी कार्रवाई से छुट्टी पाकर सुन लीजिएगा और खैर अगर इस पर ऐसा ही जी लगा हुआ है तो मैं मुख्तसर में आपको समझाये देता हूं क्योंकि मैं यह सब हाल इन्दिरा से सुन चुका हूं। असल यह है कि मेरे यहां दो ऐयार हरनामसिंह और बिहारीसिंह रहते थे। वे रुपये की लालच में पड़कर कम्बख्त मायारानी से मिल गए थे और मुझे कैदखाने में पहुंचाने के बाद वे लोग उसी की इच्छानुसार काम करते थे, मगर बुरी राह चलने वालों को या बुरों का संग करने वालों को जो कुछ फल मिलता है वही उन्हें भी मिला, अर्थात् एक दिन मायारानी ने धोखा देकर उन्हें खास बाग के एक गुप्त कुएं में ढकेल दिया। जिसके बारे में वह केवल इतना ही जानती थी कि वह तिलिस्मी ढंग का कुआं लोगों को मार डालने के लिए बना हुआ है, मगर वास्तव में ऐसा नहीं है। वह कुआं उन लोगों के लिए बना है जिन्हें तिलिस्म में कैद करना मंजूर होता है। मायारानी को चाहे यह निश्चय हो गया कि दोनों ऐयार मर गए लेकिन वास्तव में वे मरे नहीं बल्कि तिलिस्म में कैद हो गये थे। इस बात को मायारानी बहुत दिनों तक छिपाये रही लेकिन आखिर एक दिन उसने अपनी लौंडी लीला से कह दिया और लीला से यह बात हरनामसिंह की लड़की ने सुन ली।

जब आपने मुझे कैद से छुड़ाया और मैं खुल्लमखुल्ला पुनः जमानिया का राजा बना तब हरनामसिंह की लड़की फरियाद करने के लिए मेरे पास पहुंची और मुझसे वह हाल कहा। मैंने जवाब में कहा कि 'वे दोनों ऐयार उस कुएं में ढकेल देने से मरे नहीं बल्कि तिलिस्म में कैद हो गए हैं जिन्हें मैं छुड़ा तो सकता हूं मगर उन दोनों ने मेरे साथ दगा की है इसलिए छुड़ाने योग्य नहीं हैं और न मैं उन्हें छुड़ाऊंगा ही।' इतना सुन वह चली गई मगर छिपे-छिपे उसने ऐसा भेद लगाया और चालाकी की जिसे सुनेंगे तो दंग हो जायेंगे। मुख्तसर यह कि अपने बाप को छुड़ाने की नीयत से उसी लड़की ने मेरी तिलिस्मी किताब चुराई और उसकी मदद से तिलिस्म के अन्दर पहुंची, मगर उस किताब का मतलब ठीक-ठीक न समझने के सबब वह न तो अपने बाप को छुड़ा सकी और न खुद ही तिलिस्म के बाहर निकल सकी, हां उसी जगह अकस्मात् इन्दिरा से उसकी मुलाकात हो गई। इन्दिरा को भी अपनी तरह दुःखी जानकर उसने सब हाल इससे कहा और इन्दिरा ने चालाकी से वह किताब अपने कब्जे में कर ली तथा उससे बहुत कुछ फायदा भी उठाया। तिलिस्म में आने-जाने वालों से अपने को बचाने के लिए इन्दिरा उस पुतली की सूरत बनकर रहने लगी, क्योंकि उसी ढंग के कपड़े इन्दिरा को उस पुतली वाले घर से मिल गए थे। जब मैंने इन्दिरा से यह हाल सुना तो बिहारीसिंह और हरनामसिंह तथा उसकी लड़की को बाहर निकाला। वे सब भी चुनारगढ़ पहुंचाए जा चुके हैं। जब आप चुनारगढ़ पहुंचेंगे तो औरों के साथ-साथ उन लोगों का भी तमाशा देखेंगे, तथा...।

लक्ष्मीदेवी - (गोपालसिंह से) मगर आप इन बातों को इतनी जल्दी-जल्दी और संक्षेप में कहकर कुमारों को भगाना क्यों चाहते हैं इन्हें यहां अगर एक दिन की देर ही हो जायगी तो क्या हर्ज है?

कमलिनी - मेहमानदारी के खयाल से जल्द छूटना चाहते हैं!

गोपाल - औरतों का काम तो आवाज कसने का हई है मगर मैं किसी और ही सबब से जल्दी मचा रहा हूं। महाराज (वीरेन्द्रसिंह) के पत्र बराबर आ रहे हैं कि दोनों कुमारों को शीघ्र भेज दो, इसके अतिरिक्त वहां कैदियों का जमाव हो रहा है और नित्य एक नया रंग खिलता है। वहां जितनी आफतें थीं वह सब जाती रहीं...।

लक्ष्मी - (बात काटकर) तो कुमार को और हम लोगों को आप तिलिस्म के बाहर क्यों नहीं ले चलते वहां से कुमार बहुत जल्दी चुनार पहुंच सकते हैं।

गोपाल - (कुमार से) आप इस समय मेरे साथ तिलिस्म के बाहर जा सकते हैं मगर ऐसा होना न चाहिए। आप लोगों के हाथ से जो कुछ तिलिस्म टूटने वाला है उसे तोड़कर ही आपका इस तिलिस्म के अन्दर ही अन्दर चुनार पहुंचना उचित होगा। जब आपकी शादी हो जायगी तब मैं आपको यहां लाकर अच्छी तरह इस तिलिस्म की सैर कराऊंगा। इस समय मैं (किशोरी, कामिनी, इन्दिरा वगैरह की तरफ बताकर) इन सभों को लेकर खास बाग में जाता हूं क्योंकि अब वहां सब तरह से शान्ति हो चुकी है और किसी तरह का अन्देशा नहीं। वहां आठ-दस दिन रहकर सभों को लिए हुए मैं चुनार चला जाऊंगा और तब उसी जगह आपसे हम लोगों की मुलाकात होगी।

इन्द्रजीत - जो कुछ आप कहते हैं वही होगा मगर यहां की अद्भुत बातें देखकर मेरे दिल में कई तरह का खुटका बना हुआ है...।

गोपाल - वह सब चुनार में निकल जायगा, यहां मैं आपको कुछ न बताऊंगा। देखिए अब रात बीता चाहती है, सबेरा होने के पहिले ही आपको अपने काम में हाथ लगा देना चाहिए।

लक्ष्मी - (हंसकर) आप क्या आये मानो भूचाल आ गया! अच्छी जल्दी मचाई, बात तक नहीं करने देते! (कुमार से) जरा इन्हें अच्छी तरह जांच तो लीजिए, कहीं कोई ऐयार रूप बदलकर न आया हो।

गोपाल - (इन्द्रजीतसिंह के कान में कुछ कहकर) बस अब आप विलम्ब न कीजिए।

इन्द्रजीत - (उठकर) अच्छा तो फिर मैं प्रणाम करता हूं और भैरोसिंह को भी आपके ही सुपुर्द किए जाता हूं। (लक्ष्मीदेवी से) आप किसी तरह की चिन्ता न करें, ये (गोपालसिंह) वास्तव में हमारे भाई साहब ही हैं, अस्तु अब चुनार में पुनः मुलाकात की उम्मीद करता हुआ मैं आप लोगों से बिदा होता हूं।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह ने मुस्कुराते हुए सभों की तरफ देखा और आनन्दसिंह ने भी बड़े भाई का अनुसरण किया। राजा गोपालसिंह दोनों कुमारों को लिए कमरे के बाहर चले गए और कुछ देर तक बातचीत करने तथा समझाकर बिदा करने के बाद पुनः कमरे में चले आये।

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