यद्यपि भूतनाथ को तरद्दुदों से छुट्टी मिल चुकी थी, यद्यपि उसका कसूर माफ हो चुका था, और वह महाराज के खास ऐयारों में मिला लिया गया था मगर इस जगह उस आदमी को, जितने नकाबपोशों के मकान में तस्वीर पेश कर उस पर दावा करना चाहा था, देखकर उसकी अवस्था फिर बिगड़ गई और साथ ही इसके अपनी स्त्री को भी वहां काम करते हुए देखकर उसे क्रोध चढ़ आया।

जब वह आदमी पानी का घड़ा और झारी रखकर लौट चला तब इंद्रदेव ने उसे पुकारकर कहा, “अर्जुन, जरा वह तस्वीर भी तो ले आओ जिसे बार-बार तुम दिखाया करते हो और जो हमारे दोस्त भूतनाथ को डराने और धमकाने के लिए एक औजार की तरह तुम्हारे पास रखी हुई है।”

इस नाम ने भूतनाथ के कलेजे को और भी हिला दिया। वास्तव में उस आदमी का यही नाम था और इस खयाल ने तो उसे और भी बदहवास कर दिया कि अब वह तस्वीर लेकर आयेगा।

इस समय सब कोई बाग में टहल रहे थे और इसीलिए एक-दूसरे से कुछ दूर हो रहे थे। भूतनाथ बढ़कर देवीसिंह के पास चला गया और उसका हाथ पकड़कर धीरे-से बोला, “देखा इंद्रदेव का रंग-ढंग!'

देवी - (धीरे से) मैं सब-कुछ देख और समझ रहा हूं, मगर तुम घबड़ाओ नहीं।

भूत - मालूम होता है कि इंद्रदेव का दिल अभी तक मेरी तरफ से साफ नहीं हुआ।

देवी - शायद ऐसा ही हो मगर इंद्रदेव से ऐसी उम्मीद हो नहीं सकती, मेरा दिल इसे कबूल नहीं करता। मगर भूतनाथ तुम भी अजीब सिड़ी हो।

भूत - सो क्या?

देवी - यही कि नकाबपोशों का पीछा करके तुमने कैसे-कैसे तमाशे देखे और तुम्हें विश्वास भी हो गया कि इन नकाबपोशों से तुम्हारा कोई भेद छिपा नहीं है, फिर अंत में यह भी मालूम हो गया कि उन नकाबपोशों के सरदार कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह थे अस्तु इन दोनों से भी अब कोई बात छिपी नहीं रही।

भूत - बेशक ऐसा ही है।

देवी - तो फिर अब क्यों तुम्हारा दम घुटा जाता है अब तुम्हें किसका डर रह गया।

भूत - कहते तो ठीक हो, खैर कोई चिंता नहीं जो कुछ होगा देखा जायगा।

देवी - बल्कि तुम्हें यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि दोनों कुमारों को तुम्हारे भेदों का पता क्योंकर लगा। ताज्जुब नहीं कि अब वे सब बातें खुला चाहती हों।

भूत - शायद ऐसा ही हो, मगर मेरी स्त्री के बारे में तुम क्या खयाल करते हो?

देवी - इस बारे में मेरा-तुम्हारा मामला एक-सा हो रहा है अस्तु इस विषय में मैं कुछ भी नहीं कह सकता। वह देखो इंद्रदेव तेजसिंह के पास चला गया है और तुम्हारी स्त्री की तरफ इशारा करके कुछ कह रहा है। तेजसिंह अलग हों तो मैं उनसे कुछ पूछूं। यहां की छटा ने तो लोगों का दिल ऐसा लुभा लिया है कि सभों ने एक-दूसरे का साथ ही छोड़ दिया। (चौंककर) लो देखो, तुम्हारा लड़का नानक भी तो आ पहुंचा, उसके हाथ में भी कोई तस्वीर मालूम पड़ती है, अर्जुन भी उसी के साथ है।

भूत - (ताज्जुब से) आश्चर्य की बात है! नानक और अर्जुन का साथ कैसे हुआ और नानक यहां आया ही क्यों क्या अपनी मां के साथ आया है क्या कपूत छोकरे ने भी मेरी तरफ से आंखें फेर ली हैं ओफ, यह तिलिस्मी जमीन तो मेरे लिए भयानक सिद्ध हो रही है, अच्छा-खासा तिलिस्म मुझे दिखाई दे रहा है। जिन पर मुझे विश्वास था, जिनका मुझे भरोसा था, जो मेरी इज्जत करते थे यहां उन्हीं को मैं अपना विपक्षी पाता हूं और वे मुझसे बात तक करना पसंद नहीं करते।

नानक और अर्जुन को भूतनाथ ओैर देवीसिंह ताज्जुब के साथ देख रहे थे। नानक ने भी भूतनाथ को देखा मगर दूर ही से प्रणाम करके रह गया पास न आया और अर्जुन को लिए सीधे इंद्रदेव की तरफ चला गया जो तेजसिंह से बातें कर रहे थे। इस समय आज्ञानुसार अर्जुन अपने हाथ में तस्वीर लिए हुए था और नानक के हाथ में भी एक तस्वीर थी।

नानक और अर्जुन को अपने पास आते देख इंद्रदेव ने हाथ के इशारे से उन्हें दूर ही खड़े रहने के लिए कहा और उन्होंने भी ऐसा ही किया। कुछ देर तक और भी तेजसिंह के साथ इंद्रदेव बातें करता रहा इसके बाद इशारे से अर्जुन और नानक को अपने पास बुलाया और जब वे दोनों पास आ गए तो कुछ कह-सुनकर बिदा किया।

भूतनाथ यह सब तमाशा देखकर ताज्जुब कर रहा था। अर्जुन और नानक को बिदा करने के बाद तेजसिंह को साथ लिए हुए इंद्रदेव महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास गया जो एक सुंदर चट्टान पर खड़े-खड़े ढालवीं जमीन और पहाड़ी पर से नीचे की तरफ गिरते हुए सुंदर झरने की शोभा देख रहे थे और वीरेन्द्रसिंह भी उन्हीं के पास खड़े थे। वहां भी कुछ देर तक इंद्रदेव ने महाराज से बातचीत की और इसके बाद चारों आदमी लौटकर बगीचे में चले आये। महाराज को बगीचे में आते देख और सब कोई भी जो इधर-उधर फैले हुए तमाशा देख रहे थे बगीचे में आकर इकट्ठे हो गए और अब मानो महाराज का यह एक छोटा-सा दरबार बगीचे में लग गया।

वीरेन्द्र - (इंद्रदेव से) हां तो अब वे तमाशे कब देखने में आवेंगे जो आप अपने साथ तिलिस्म में लेते गये थे?

इंद्रदेव - जब आज्ञा हो तभी दिखाए जायं।

वीरेन्द्र - हम लोग तो देखने के लिए तैयार बैठे हैं।

जीत - मगर पहले यह मालूम हो जाना चाहिए कि उनके देखने में कितना समय लगेगा, अगर थोड़ी देर का काम हो तो अभी देख लिया जाय।

इंद्र - जी वह थोड़ी देर का काम तो नहीं है, इससे यही बेहतर होगा कि पहले जरूरी कामों से छुट्टी पाकर स्नान, ध्यान तथा भोजन इत्यादि से निवृत्त हो लें।

महाराज - हमारी भी यही राय है।

महाराज का मतलब समझकर सब कोई उठ खड़े हुए और जरूरी कामों से छुट्टी पाने की फिक्र में लगे। महाराज सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह तथा और भी सब कोई इंद्रदेव के उचित प्रबंध को देखकर बहुत प्रसन्न हुए, किसी को किसी तरह की तकलीफ न हुई और न कोई चीज मांगने की जरूरत ही पड़ी। इंद्रदेव के ऐयार और कई खिदमतगार आकर मौजूद हो गए और बात की बात में सब सामान ठीक हो गया।

स्नान तथा संध्या-पूजा इत्यादि से छुट्टी पाकर सभों ने भोजन किया और इसके बाद इंद्रदेव ने (बंगले के) एक बहुत बड़े और सजे हुए कमरे में सभों को बैठाया जहां सभों के योग्य दर्जे बदर्जे बैठने का इंतजाम किया गया था। एक ऊंची गद्दी पर महाराज सुरेन्द्रसिंह और उनके दाहिनी तरफ वीरेन्द्रसिंह, गोपालसिंह, तेजसिंह, पंडित बद्रीनाथ, रामनारायण, पन्नालाल तथा भूतनाथ वगैरह बैठे।

कुछ देर तक इधर-उधर की बातचीत होती रही, इसके बाद इंद्रदेव ने हाथ जोड़कर पूछा - “अब यदि आज्ञा हो तो तमाशों को...।”

महाराज - हां-हां, अब तो हम लोग हर तरह से निश्चिंत हैं!

सलाम करके इंद्रदेव कमरे के बाहर चला गया और घड़ी भर तक लौट के नहीं आया, इसके बाद जब आया तो चुपचाप अपने स्थान पर आकर बैठ गया। सब कोई (भूतनाथ, पन्नालाल वगैरह) ताज्जुब के साथ उसका मुंह देख रहे थे कि इतने में ही सामने वाले दरवाजे का परदा हटा और नानक कमरे के अंदर आता हुआ दिखाई दिया। नानक ने बड़े अदब के साथ महाराज को सलाम किया और इंद्रदेव का इशारा पाकर एक किनारे बैठ गया। इस समय नानक के हाथ में एक बहुत बड़ी मगर लपेटी हुई तस्वीर थी जो कि उसने अपने बगल में रख ली।

नानक के बाद हाथ में तस्वीर लिए अर्जुन भी आ पहुंचा और महाराज को सलाम कर नानक के पास बैठ गया, उसी समय कमला का भाई अथवा भूतनाथ का लड़का हरनामसिंह दिखाई दिया, वह भी महाराज को प्रणाम करके अर्जुन के बगल में बैठ गया। हरनामसिंह के हाथ में एक छोटी-सी सन्दूकड़ी थी जिसे उसने अपने सामने रख लिया।

इसके बाद नकाब पहने हुई तीन औरतें कमरे के अंदर आईं और अदब के साथ महाराज को सलाम करती हुई दूसरे दरवाजे से कमरे के बाहर निकल गईं।

इस समय भूतनाथ और देवीसिंह के दिल की क्या हालत थी सो वे ही जानते होंगे। उन्हें इस बात का तो विश्वास ही था कि इन औरतों में एक तो भूतनाथ की स्त्री ओैर दूसरी चंपा जरूर है मगर तीसरी औरत के बारे में कुछ भी नहीं कह सकते थे।

महाराज - (इंद्रदेव से) इन औरतों में भूतनाथ की स्त्री और चंपा जरूर होंगी!

इंद्र - (हाथ जोड़कर) जी हां कृपानाथ।

महाराज - और तीसरी औरत कौन है?

इंद्र - तीसरी एक बहुत ही गरीब, नेक, सूधी और जमाने की सताई हुई औरत है जिसे देखकर और जिसका हाल सुनकर महाराज को बड़ी ही दया आयेगी। यह वह औरत है जिसे मरे हुए एक जमाना हो गया मगर अब उसे विचित्र ढंग से पैदा होते देख लोगों को बड़ा ही ताज्जुब होगा?

महाराज - आखिर वह औरत है कौन?

इंद्र - बेचारी दुःखिनी कमला की मां यानी भूतनाथ की पहली स्त्री।

यह सुनते ही भूतनाथ चिल्ला उठा और उसने बड़ी मुश्किल से अपने को बेहोश होने से रोका।

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