दोहा

गुर श्रुति संमत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस।
हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस ॥६१॥

चौपाला

मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी । बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी ॥
दिवस जात नहिं लागिहि बारा । सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा ॥
जौ हठ करहु प्रेम बस बामा । तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा ॥
काननु कठिन भयंकरु भारी । घोर घामु हिम बारि बयारी ॥
कुस कंटक मग काँकर नाना । चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना ॥
चरन कमल मुदु मंजु तुम्हारे । मारग अगम भूमिधर भारे ॥
कंदर खोह नदीं नद नारे । अगम अगाध न जाहिं निहारे ॥
भालु बाघ बृक केहरि नागा । करहिं नाद सुनि धीरजु भागा ॥

दोहा

भूमि सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल।
ते कि सदा सब दिन मिलिहिं सबुइ समय अनुकूल ॥६२॥

चौपाला

नर अहार रजनीचर चरहीं । कपट बेष बिधि कोटिक करहीं ॥
लागइ अति पहार कर पानी । बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी ॥
ब्याल कराल बिहग बन घोरा । निसिचर निकर नारि नर चोरा ॥
डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ । मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ ॥
हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू । सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू ॥
मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली । जिअइ कि लवन पयोधि मराली ॥
नव रसाल बन बिहरनसीला । सोह कि कोकिल बिपिन करीला ॥
रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी । चंदबदनि दुखु कानन भारी ॥

दोहा

सहज सुह्द गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि ॥
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि ॥६३॥

चौपाला

सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के । लोचन ललित भरे जल सिय के ॥
सीतल सिख दाहक भइ कैंसें । चकइहि सरद चंद निसि जैंसें ॥
उतरु न आव बिकल बैदेही । तजन चहत सुचि स्वामि सनेही ॥
बरबस रोकि बिलोचन बारी । धरि धीरजु उर अवनिकुमारी ॥
लागि सासु पग कह कर जोरी । छमबि देबि बड़ि अबिनय मोरी ॥
दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई । जेहि बिधि मोर परम हित होई ॥
मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं । पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं ॥

दोहा

प्राननाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान।
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान ॥६४॥

चौपाला

मातु पिता भगिनी प्रिय भाई । प्रिय परिवारु सुह्रद समुदाई ॥
सासु ससुर गुर सजन सहाई । सुत सुंदर सुसील सुखदाई ॥
जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते । पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते ॥
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू । पति बिहीन सबु सोक समाजू ॥
भोग रोगसम भूषन भारू । जम जातना सरिस संसारू ॥
प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं । मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं ॥
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी । तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी ॥
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें । सरद बिमल बिधु बदनु निहारें ॥

दोहा

खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल।
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल ॥६५॥

चौपाला

बनदेवीं बनदेव उदारा । करिहहिं सासु ससुर सम सारा ॥
कुस किसलय साथरी सुहाई । प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई ॥
कंद मूल फल अमिअ अहारू । अवध सौध सत सरिस पहारू ॥
छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकि । रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी ॥
बन दुख नाथ कहे बहुतेरे । भय बिषाद परिताप घनेरे ॥
प्रभु बियोग लवलेस समाना । सब मिलि होहिं न कृपानिधाना ॥
अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि । लेइअ संग मोहि छाड़िअ जनि ॥
बिनती बहुत करौं का स्वामी । करुनामय उर अंतरजामी ॥

दोहा

राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान।
दीनबंधु संदर सुखद सील सनेह निधान ॥६६॥

चौपाला

मोहि मग चलत न होइहि हारी । छिनु छिनु चरन सरोज निहारी ॥
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं । मारग जनित सकल श्रम हरिहौं ॥
पाय पखारी बैठि तरु छाहीं । करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं ॥
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें । कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें ॥
सम महि तृन तरुपल्लव डासी । पाग पलोटिहि सब निसि दासी ॥
बारबार मृदु मूरति जोही । लागहि तात बयारि न मोही।
को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा । सिंघबधुहि जिमि ससक सिआरा ॥
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू । तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू ॥

दोहा

ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न ह्रदउ बिलगान।
तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्रान ॥६७॥

चौपाला

अस कहि सीय बिकल भइ भारी । बचन बियोगु न सकी सँभारी ॥
देखि दसा रघुपति जियँ जाना । हठि राखें नहिं राखिहि प्राना ॥
कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा । परिहरि सोचु चलहु बन साथा ॥
नहिं बिषाद कर अवसरु आजू । बेगि करहु बन गवन समाजू ॥
कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई । लगे मातु पद आसिष पाई ॥
बेगि प्रजा दुख मेटब आई । जननी निठुर बिसरि जनि जाई ॥
फिरहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी । देखिहउँ नयन मनोहर जोरी ॥
सुदिन सुघरी तात कब होइहि । जननी जिअत बदन बिधु जोइहि ॥

दोहा

बहुरि बच्छ कहि लालु कहि रघुपति रघुबर तात।
कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहउँ गात ॥६८॥

चौपाला

लखि सनेह कातरि महतारी । बचनु न आव बिकल भइ भारी ॥
राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना । समउ सनेहु न जाइ बखाना ॥
तब जानकी सासु पग लागी । सुनिअ माय मैं परम अभागी ॥
सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा । मोर मनोरथु सफल न कीन्हा ॥
तजब छोभु जनि छाड़िअ छोहू । करमु कठिन कछु दोसु न मोहू ॥
सुनि सिय बचन सासु अकुलानी । दसा कवनि बिधि कहौं बखानी ॥
बारहि बार लाइ उर लीन्ही । धरि धीरजु सिख आसिष दीन्ही ॥
अचल होउ अहिवातु तुम्हारा । जब लगि गंग जमुन जल धारा ॥

दोहा

सीतहि सासु असीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार।
चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार ॥६९॥

चौपाला

समाचार जब लछिमन पाए । ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए ॥
कंप पुलक तन नयन सनीरा । गहे चरन अति प्रेम अधीरा ॥
कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े । मीनु दीन जनु जल तें काढ़े ॥
सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा । सबु सुखु सुकृत सिरान हमारा ॥
मो कहुँ काह कहब रघुनाथा । रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा ॥
राम बिलोकि बंधु कर जोरें । देह गेह सब सन तृनु तोरें ॥
बोले बचनु राम नय नागर । सील सनेह सरल सुख सागर ॥
तात प्रेम बस जनि कदराहू । समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू ॥

दोहा

मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहि सुभायँ।
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ ॥७०॥

चौपाला

अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई । करहु मातु पितु पद सेवकाई ॥
भवन भरतु रिपुसूदन नाहीं । राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं ॥
मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा । होइ सबहि बिधि अवध अनाथा ॥
गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू । सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू ॥
रहहु करहु सब कर परितोषू । नतरु तात होइहि बड़ दोषू ॥
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी । सो नृपु अवसि नरक अधिकारी ॥
रहहु तात असि नीति बिचारी । सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी ॥
सिअरें बचन सूखि गए कैंसें । परसत तुहिन तामरसु जैसें ॥

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