छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय ।
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय ॥५५१॥
मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त ।
यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त ॥५५२॥
मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि ।
साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि ॥५५३॥
साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान ।
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान ॥५५४॥
इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय ।
कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥५५५॥
खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय ।
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥५५६॥
सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि ।
कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ॥५५७॥
कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय ।
यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय ॥५५८॥
टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर ।
साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥५५९॥
कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि ।
कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि ॥५६०॥
साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह ।
माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह ॥५६१॥
साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय ।
मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय ॥५६२॥
साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन ।
धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न ॥५६३॥
साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर ।
सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर ॥५६४॥
साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट ।
शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट ॥५६५॥
साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार ।
जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार ॥५६६॥
साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग ।
तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ॥५६७॥
आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय ।
कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय ॥५६८॥
छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय ।
जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय ॥५६९॥
सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह ।
परमारथ के कारने, चारों धारी देह ॥५७०॥
बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर ।
परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर ॥५७१॥
सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध ।
कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध ॥५७२॥
साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव ।
चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव ॥५७३॥
कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल ।
कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल ॥५७४॥
हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि ।
तासु पटतरा न तुले, हरिजन की परिहारिन ॥५७५॥
क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान ।
वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम ॥५७६॥
जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप ।
जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप ॥५७७॥
साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड ।
सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड ॥५७८॥
कबीर शीतल जल नहीं, हिम न शीतल होय ।
कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय ॥५७९॥
आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद ।
षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद ॥५८०॥
कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय ।
जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥५८१॥
वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस ।
गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥५८२॥
सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान ।
शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन ॥५८३॥
साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं ।
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं ॥५८४॥
साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार ।
डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥५८५॥
साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर ।
चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥५८६॥
साधु चाल जु चालई, साधु की चाल ।
बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥५८७॥
साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल ।
परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल ॥५८८॥
साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास ।
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास ॥५८९॥
साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि ।
अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥५९०॥
साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट ।
माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥५९१
साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत ।
कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥५९२॥
साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ ।
सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥५९३॥
साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय ।
न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥५९४॥
साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥५९५॥
सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार ।
आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार ॥५९६॥
दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप ।
उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप ॥५९७॥
सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय ।
छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥५९८॥
साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक ।
बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ॥५९९॥
सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात ।
निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥६००॥
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय ॥५५१॥
मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त ।
यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त ॥५५२॥
मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि ।
साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि ॥५५३॥
साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान ।
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान ॥५५४॥
इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय ।
कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥५५५॥
खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय ।
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥५५६॥
सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि ।
कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ॥५५७॥
कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय ।
यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय ॥५५८॥
टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर ।
साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥५५९॥
कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि ।
कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि ॥५६०॥
साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह ।
माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह ॥५६१॥
साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय ।
मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय ॥५६२॥
साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन ।
धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न ॥५६३॥
साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर ।
सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर ॥५६४॥
साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट ।
शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट ॥५६५॥
साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार ।
जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार ॥५६६॥
साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग ।
तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ॥५६७॥
आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय ।
कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय ॥५६८॥
छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय ।
जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय ॥५६९॥
सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह ।
परमारथ के कारने, चारों धारी देह ॥५७०॥
बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर ।
परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर ॥५७१॥
सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध ।
कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध ॥५७२॥
साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव ।
चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव ॥५७३॥
कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल ।
कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल ॥५७४॥
हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि ।
तासु पटतरा न तुले, हरिजन की परिहारिन ॥५७५॥
क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान ।
वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम ॥५७६॥
जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप ।
जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप ॥५७७॥
साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड ।
सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड ॥५७८॥
कबीर शीतल जल नहीं, हिम न शीतल होय ।
कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय ॥५७९॥
आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद ।
षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद ॥५८०॥
कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय ।
जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥५८१॥
वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस ।
गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥५८२॥
सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान ।
शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन ॥५८३॥
साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं ।
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं ॥५८४॥
साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार ।
डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥५८५॥
साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर ।
चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥५८६॥
साधु चाल जु चालई, साधु की चाल ।
बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥५८७॥
साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल ।
परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल ॥५८८॥
साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास ।
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास ॥५८९॥
साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि ।
अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥५९०॥
साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट ।
माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥५९१
साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत ।
कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥५९२॥
साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ ।
सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥५९३॥
साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय ।
न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥५९४॥
साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥५९५॥
सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार ।
आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार ॥५९६॥
दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप ।
उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप ॥५९७॥
सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय ।
छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥५९८॥
साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक ।
बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ॥५९९॥
सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात ।
निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥६००॥