मैं कह चुका हूँ कि हाईस्कूल में मेरे थोड़े ही विश्वासपात्र मित्र थे। कहा जा सकता हैं कि ऐसी मित्रता रखने वाले दो मित्र अलग-अलग समय में रहे। एक का संबन्ध लम्बे समय तक नहीं टीका, यद्यपि मैंने मित्र को छोड़ा नही था। मैंने दूसरी सोहब्बत की, इसलिए पहले ने मुझे छोड़ दिया। दूसरी सोहब्बत मेरे जीवन का एक दुःखद प्रकरण हैं। यह सोहब्बत बहुत वर्षो तक रही। इस सोहब्बत को निभाने में मेरी दृष्टि सुधारक की थी। इन भाई की पहली मित्रता मेरे मझले भाई के साथ थी। वे मेरे भाई की कक्षा में थे। मैं देख सका था कि उनमें कई दोष हैं। पर मैंने उन्हें वफादार मान लिया था। मेरी माताजी, मेरे जेठे भाई और मेरी धर्मपत्नी तीनों को यह सोहब्बत कड़वी लगती थी। पत्नी का चेतावनी को तो मैं अभिमानी पति क्यों मानने लगा ? माता की आज्ञा का उल्लंघन मैं करता ही न था। बड़े भाई की बात मैं हमेशा सुनता था। पर उन्हें मैंने यह कह कर शान्त किया : "उसके जो दोष आप बाताते हैं, उन्हें मैं जानता हूँ। उसके गुण तो आप जानते ही नहीं। वह मुझे गलत रास्ते नहीं ले जायेगा, क्योंकि उसके साथ मेरी सम्बन्ध उसे सुधारने के लिए ही हैं। मुझे यह विश्वास हैं कि अगर वह सुधर जाये, तो बहुत अच्छा आदमी निकलेगा। मैं चाहता हूँ कि आप मेरे विषय में निर्भय रहें। " मैं नहीं मानता कि मेरी इस बात से उन्हें संतोष हुआ, पर उन्होंने मुझ प विश्वास किया और मुझे मेरे रास्ते जाने दिया।
बाद में मैं देख सका कि मेरी अनुमान ठीक नहीं था। सुधार करने के लिए भी मनुष्य को गहरे पानी में नहीं पैठना चाहिये। जिसे सुधारना हैं उसके साथ मित्रता नहीं हो सकती। मित्रता में अद्वैत-भाव होता हैं। संसार में ऐसी मित्रता क्वचित् ही पायी जाती है। मित्रता समान गुणवालों के बीच शोभती और निभती हैं। मित्र एक-दूसरे को प्रभावित किये बिना रह ही नहीं सकते। अतएव मित्रता में सुधार के लिए बहुत अवकाश रहता हैं। मेरी राय हैं कि घनिष्ठ मित्रता अनिष्ट हैं, क्योंकि मनुष्य दोषों को जल्दी ग्रहण करता हैं। गुण ग्रहण करने के लिए प्रयास की आवश्यकता हैं। जो आत्मा की, ईश्वर की मित्रता चाहता हैं, उसे एकाकी रहना चाहिये, अथवा समूचे संसार के साथ मित्रता रखनी चाहिये। ऊपर का विचार योग्य हो तो अथवा अयोग्य, घनिष्ठ मित्रता बढ़ाने का मेरा प्रयोग निष्फल रहा।
जिन दिनों मैं इन मित्र के संपर्क में आया, उन दिनों राजकोट में सुधारपंथ का जोर था। मुझे इन मित्र ने बताया कि कई हिन्दू शिक्षक छिपे-छिपे माँसाहार और मद्यपान करते हैं। उन्होंने रोजकोट के दूसरे प्रसिद्ध गृहस्थों के नाम भी दिये। मेरे सामने हाईस्कूल में कुछ विद्यार्थियों के नाम भी आये। मुझे तो आश्चर्य हुआ और दुःख भी। कारण पूछने पर यह दलील दी गयी: 'हम माँसाहार नहीं करते इसलिए प्रजा के रुप में हम निर्वीर्य हैं। अंग्रेज हम पर इसलिए राज्य करते हैं कि वे माँसाहारी हैं। मैं कितना मजबूत हूँ और कितना दौड़ सकता हूँ, सो तो तुम जानते ही हो। इसका कारण माँसाहार ही हैं। माँसाहारी को फोड़े नही होते , होने पर झट अच्छे हो जाते हैं। हमारे शिक्षक माँस खाते हैं। इतने प्रसिद्ध व्यक्ति खाते हैं ? सो क्या बिना समझे खाते हैं? तुम्हें भी खाना चाहिये। खाकर देखो कि तुममे कितनी ताकत आ जाती हैं।'
ये सब दलीलें किसी एक दिन नहीं दी गयी थी। अनेक उदाहरणों से सजाकर इस तरह की दलीलें कई बार दी गयीं। मेरे मझले भाई तो भ्रष्ट हो चुके थे। उन्होंने इन दलीलों की पुष्टि की। अपने भाई की तुलना में मैं तो बहुत दुबला था। उनके शरीर अधिक गठीले थे। उनका शaरीरिक बल मुझसे कहीं ज्यादा था। वे हिम्मतवर थे। इन मित्र के पराक्रम मुझे मुग्ध कर देते थे। वे मनचाहा दौड़ सकते थे। उनकी गति बहुत अच्छी थी। वे खूब लम्बा और ऊँचा कूद सकते थे। मार सहन करने की शक्ति भी उनमें खूब थी। अपनी इस शक्ति का प्रदर्शन भी वे मेरे सामने समय-समय पर करते थे। जो शक्ति अपने में नहीं होती, उसे दूसरों में देखकर मनुष्य को आश्चर्य होता ही हैं। मुझ में दौड़ने-कूदने की शक्ति नहीं के बराबर थी। मैं सोचा करता कि मैं भी बलबान बन जाउँ, तो कितना अच्छा हो !
इसके अलावा मैं डरपोक था। चोर, भूत, साँप आदि के डर से घिरा रहता था। ये डर मुझे हैरान भी करते थे। रात कहीं अकेले जाने की हिम्मत नहीं थीं। अंधरे मे तो कहीं जाता ही न था। दीये के बिना सोना लगभग असंभव था। कहीं इधर से भूत न आ जाये, उधर से चोर न आ जाये और तीसरी जगह से साँप न निकल आये ! इसलिए बत्ती की जरुरत तो रहती ही थी। पास में सोयी हुई और अब कुछ सयानी बनी हूई पत्नी से भी अपने इस डर की बात मैं कैसे करता ? मैं यह समझ चुका था कि वह मुझ से ज्यादा हिम्मतवाली हैं और इसलिए मैं शरमाता था। साँप आदि से डरना तो वह जानती ही न थी। अंधेरे में वह अकेली चली जाती थी। मेरे ये मित्र मेरी इन कमजोरियों को जानते थे। मुझसे कहा करते थे कि वे तो जिन्दा साँपो को भी हाथ से पकड़ लेते थे। चोर से कभी नहीं डरते। भूत को तो मानते ही नहीं। उन्होंने मुझे जँचाया कि यह प्रताप माँसाहार का हैं। इन्हीं दिनों नर्मद (गुजराती की नवीनधारा प्रसिद्ध कवि नर्मद, 1833-86) का नीचे लिखा पद गया जाता था :
अंग्रेजो राज्य करे, देशी रहे दबाई देशी रहे दबाईस जोने बेनां शरीर भाई। पेलो पाँच हाथ पूरो, पूरो पाँच से नें।।
(अंग्रेज राज्य करते हैं और हिन्दुस्तानी दबे रहते हैं। दोनों के शरीर तो देखो। वे पूरे पाँच हाथ के हैं। एक एक पाँच सौ के लिए काफी हैं।)
इन सब बातो का मेरे मन पर पूरा-पूरा असर हुआ। मैं पिघला। मैं यह मानने लगा कि माँसाहार अच्छी चीज हैं। उससे मैं बलबान और साहसी बनूँगा। समूचा देश माँसाहार करे, तो अंग्रेजो को हराया जा सकता हैं। माँसाहार शुरू करने का दिन निश्चित हुआ। इस निश्चय -- इस आरम्भ का अर्थ सब पाठक समझ नहीं सकेंगे। गाँधी परिवार वैष्णव सम्प्रदाय का हैं। माता-पिता बहुत कट्टर वैष्णव माने जाते थे। हवेली ( वैष्णव-मन्दिर) में हमेशा जाते थे। कुछ मन्दिर तो परिवार के ही माने जाते थे। फिर गुजरात में जैन सम्प्रदाय का बड़ा जोर हैं। उसका प्रभाव हर जगह, हर काम में पाया जाता हैं। इसलिए माँसाहार का जैसा विरोध और तिरस्कार गुजरात मे और श्रावको तथा वैष्णवों में पाया जाता हैं, वैसा हिन्दुस्तान या दुनिया में और कहीं नहीं पाया जाता। ये मेरे संस्कार थे।
मैं माता-पिता का परम भक्त था। मैं मानता था कि वे मेरे माँसाहार की बात जानेंगे तो बिना मौत के उनकी तत्काल मृत्यु हो जायेगी। जाने-अनजाने मैं सत्य का सेवक तो था ही। मैं ऐसा नहीं कह सकता कि उस समय मुझे यह ज्ञान न था कि माँसाहार करने में माता-पिता को देना होगा।
ऐसी हालत में माँसाहार करने का मेरी निश्चय करने का मेरे लिए बहुत गम्भीर और भयंकर बात थी।
लेकिन मुझे तो सुधार करना था। माँसाहार का शौक नहीं था। यह सोचकर कि उसमें स्वाद हैं, मैं माँसाहार शुरू नहीं कर रहा था। मुझे तो बलबान और साहसी बनना था, दूसरों को वैसा बनने के लिए न्योतना था फिर अंग्रेजो को हराकर हिन्दुस्तान को स्वतंत्र करना था। स्वराज शब्द उस समय मैने सुना नहीं था। सुधार के इस जोश में मैं होश भूल गया।