मैं डरबन में रहने वाले ईसाई हिन्दुस्तानियों के सम्पर्क मे भी तुरन्त आ गया। वहाँ की अदालत में दुभाषिया मि. पॉल रोमन कैथोलिक थे। उनसे परिचय किया और प्रोटेस्टेंट मिशन के शिक्षक स्व. मि. सुभान गॉडपफ्रे से भी परिचित हुआ। इन्ही के पुत्र जेम्स गॉडफ्रे यहाँ दक्षिण अफ्रीका मे भारतीय प्रतिनिधि मण्डल में पिछले साल आये थे। इन्हीं दिनों स्व. पारसी रुस्तम जी से परिचय हुआ और तभी स्व. आदमजी मियाँ खान के साथ जान पहचान हुई। ये सब भाई अभी कर काम के सिवा एक-दूसरे से मिलते न थे, लेकिन जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे , बाद में ये एक-दूसरे के काफी नजदीक आये।
मैं इस प्रकार जान-पहचान कर रहा था कि इतने में फर्म के वकील की तरफ से पत्र मिला कि मुकदमें कि तैयारी की जानी चाहिये और खुद अब्दुल्ला सेठ को प्रिटोरिया जाना चाहियें अथवा किसी को वहाँ भेजना चाहिये।
अब्दुल्ला सेठ ने वह पत्र मुझे पढ़ने को दिया और पूछा, 'आप प्रिटोरिया जायेगे?' मैने कहा, 'मुझे मामला समझाइये, तभी कुछ कह सकूँगा। अभी तो मैं नही जानता कि मुझे करना होगा।' उन्होने अपने मुनीमों से कहा कि वे मुझे मामला समझा दे।
मैने देखा कि मुझे ककहरे से शुरु करना होगा। जब मैं जंजीबार में उतरा था तो वहाँ की अदालत का काम देखने गया था। एक पारसी वकील किसी गवाह के बयान ले रहे थे और जमा-नामे के सवाल पूछ रहे थे। मैं तो जमा-नामे मे कुछ समझता ही न था। बही-खाता न तो मैने हाईस्कूल मे सीखा था और न विलायत में।
मैंने देखा कि इस मामले का दार-मदार बहियों पर हैं। जिसे बही-खाते की जानकारी हो वही इस मामले को समझ और समझा सकता हैं। जब मुनीम नामे की बात करता तो मै परेशान होता। मैं पी. नोट का मतलब नही जानता था। कोश में यह शब्द न मिलता था। जब मैंने मुनीम के सामनेे अपना अज्ञान प्रकट किया जब उससे पता चला कि पी. नोट का मतलब प्रामिसरी नोट हैं। मैने बही-खाते की पुस्तके खरीदी और पढ़ डाली। कुछ आत्म विश्वास अत्पन्न हुआ। मामला समझ में आया। मैंने देखा कि अब्दुल्ला सेठ बही-खाता लिखना नही जानते थे। पर उन्होने व्यावहारिक ज्ञान इतना अधिक प्राप्त कर लिया था कि वे बही-खाते की गुत्थियाँ फौरन सुलझा सकते थे। मैने उनसे कहा, 'मै प्रिटोरिया जाने को तैयार हूँ।' सेठ ने कहा, 'आप कहाँ उतरेंगे ?'
मैने जवाब दिया, 'जहाँ आप कहे।'
'तो मैं अपने वकील को लिखूँगा। वे आपके लिए ठहरने का प्रबंध करेंगे। प्रिटोरिया में मेरे मेमन दोस्त हैं। उन्हें मैं अवश्य लिखूँगा , पर उनके यहाँ आपका ठहरना ठीक न होगा। वहाँ हमारे प्रतिपक्षी की अच्छी रसाई है। आपके नाम मेरे निजी कागज-पत्र पहुँचे और उनमे से कोई उन्हें पढ़ ले तो हमारे मुकदमे को नुकसान पहुँच सकता हैं। उनके साथ जितना कम संबंध रहे, उतना ही अच्छा हैं।'
मैने कहा, 'आपके वकील जहाँ रखेंगे वहीं मैं रहूँगा , अथवा मैं कोई अलग घर खोज लूँगा। आप निश्चिंत रहिये , आपकी एक भी व्यक्तिगत बात बाहर न जायेगी। पर मैं मिलता-जुलता तो सभी से रहूँगा। मुझे तो प्रतिपक्षी से मित्रता कर लेनी हैं। मुझ से बन पड़ा तो मैं इस मुकदमे को आपस में निबटाने की भी कोशिश करुँगा। आखिर तैयब सेठ आपके रिश्तेदार ही तो हैं न ?'
प्रतिपक्षी स्व. तैयब हाजी खानमहमम्द अब्दुल्ला सेठ के निकट संबंधी थे। मैने देखा कि मेरी इस बात पर अब्दुल्ला सेठ कुछ चौंके। पर उस समय तक मुझे जरबन पहुँचे छह-सात दिन हो चुके थे। हम एक-दूसरे को जानने और समझने लग गये थे। मैं अब 'सफेद हाथी' लगभग नहीं रहा था। वे बोले, 'हाँ.. आ.. आ, यदि समझोता हो जाये तो उसके जैसी भली बात तो कोई हैं ही नहीं। पर हम रिश्तेदार हैं, इसलिए एक-दूसरे को अच्छी तरह पहचानते हैं। तैयब सेठ जल्दी मानने वाले नहीं हैं। हम भोलापन दिखाये तो वे हमारे पेट की बात निकालवा ले और फिर हमको फँसा ले। इसलिए आप जो कुछ करे सो होशियार रहकर कीजिये।'
मै सातवें या आठवे दिन डरबन से रवाना हुआ। मेरे लिए पहले दर्जे का टिकट कटाया गया। वहाँ रेल में सोने की सुविधा के लिए पाँच शिलिंग का अलग टिकट कटाना होता था। अब्दुल्ला सेठ ने उसे कटाने का आग्रह किया, पर मैने हठवश अभिमानवश और पाँच शिलिंग बचाने के विचार से बिस्तर का टिकट काटने से इनकार कर दिया।
अब्दुल्ला सेठ ने चेताया, 'देखिये, यह देश दूसरा हैं , हिन्दुस्तान नहीं हैं। खुदा की मेहरबानी हैं। आप पैसे की कंजूसी न कीजिये। आवश्यक सुविधा प्राप्त कर लीजिये।'
मैने उन्हें धन्यवाद दिया और निश्चिंत रहने को कहा।
ट्रेन लगभग नौ बजे नेटाल की राजधानी मेरित्सबर्ग पहुँची। यहाँ बिस्तर दिया जाता था। रेलवे के किसी नौकर ने आकर पूछा , 'आपको बिस्तर की जरुरत हैं ?'
मैने कहा, 'मेरे पास अपना बिस्तर हैं।'
वह चला गया। इस बीच एक यात्री आया। उसने मेरी तरफ देखा। मुझे भिन्न वर्ण का पाकर वह परेशान हुआ, बाहर निकला और एक-दो अफसरो को लेकर आया। किसी ने मुझे कुछ न कहा। आखिर एक अफसर आया। उसने कहा, 'इधर आओ। तुम्हें आखिरी डिब्बे में जाना हैं।'
मैने कहा, 'मेरे पास पहले दर्जे का टिकट हैं।'
उसने जबाव दिया, 'इसकी कोई बात नहीँ। मैं तुम्हें कहता हूँ कि तुम्हे आखिरी डिब्बे जाना हैं।'
यह निश्चय करके मैने दूसरी ट्रेन में जैसे भी हो आगे ही जाने का फैसला किया।
सबेरे ही सबरे मैने जनरल मैनेजर को शिकायत का लम्बा तार भेजा। दादा अब्दुल्ला को भी खबर भेजी। अब्दुल्ला सेठ तुरन्त जनरल मैनेजर से मिले। जनरल मैनेजर ने अपने आदमियों के व्यवहार का बचाव किया , पर बतलाया कि मुझे बिना रुकावट के मेरे स्थान तक पहुँचाने के लिए स्टेशन मास्टर को कह दिया गया हैं। अब्दुल्ला सेठ ने मेरित्सबर्ग के हिन्दू व्यापारियो को भी मुझसे मिलने और मेरी सुख-सुविधा का ख्याल रखने का तार भेजा और दूसरे स्टेशनों पर भी इसी आशय के तार रवाना किये। इससे व्यापारी मुझे मिलने स्टेशन पर आये। उन्होने अपने ऊपर पड़ने वाले कष्टों की कहानी मुझे सुनायी और मुझ से कहा कि आप पर जा बीती है, उसमे आश्चर्य की कोई बात नहीं हैं। जब हिन्दुस्तानी लोग पहले या दूसरे दर्जें में सफर करते हैं तो अधिकारियों और यात्रियों की तरफ से रुकावट खडी होती ही हैं। दिन एसी ही बाते सुनने मे बीता। रात पड़ी। मेरे लिए जगह तैयार ही थी। बिस्तर का जो टिकट मैने डरबन में काटने से इनकार किया था, वह मेरित्सबर्ग में कटाया। ट्रेन मुझे चार्ल्सटाउन की ओर ले चली।
'मैं कहता हूँ कि मुझे इस डिब्बें में डरबन से बैठाया गया हैं और इसी में जाने का इरादा रखता हूँ।'
अफसर ने कहा, 'यह नही हो सकता, तुम्हे उतरना पडेगा, और न उतरे तो सिपाही उतारेगा।'
मैंने कहा, 'तो फिर सिपाही भले उतारे मैं खुद तो नहीं उतरूँगा।'
सिपाही आया। उसने मेरा हाथ पकडा और मुझे धक्का देकर नीचे उतर दिया। मैने दूसरे डिब्बे में जाने से इनकार कर दिया। ट्रेन चल दी। मैं वेटिंग रुम मे बैठ गया। अपना 'हैण्ड बैग' साथ में रखा। बाकी सामान को हाथ न लगाया। रेलवे वालो ने उसे कहीँ रख दिया। सरदी का मौसम था। दक्षिण अफ्रीका की सरदी ऊँचाईवाले प्रदेशों में बहुत तेज होती हैं। मेरित्सबर्ग इसी प्रदेश मे था। इससे ठंड खूब लगी। मेरा ओवर कोट मेरे सामान मे था। पर सामान माँगने की हिम्मत न हुई। फिर से अपमान हो तो ? ठंड से मैं काँपता रहा। कमरे में दीया न था। आधी रात के करीब एक यात्री आया। जान पड़ा कि वह कुछ बात करना चाहता हैं , पर मैं बात करने की मनःस्थिति में न था।
मैने अपने धर्म का विचार किया , 'या तो मुझे अपने अधिकारो के लिए लडना चाहिये या लौट जाना चाहिये, नहीं तो जो अपमान हो उन्हे सहकर प्रिटोरिया पहुँचना चाहिये और मुदकमा खत्म करके देश लौट जाना चाहिये। मुकदमा अधूरा छोड़कर भागना तो नामर्दी होगी। मुझे जो कष्ट सहना पड़ा हैं , सो तो ऊपरी कष्ट हैं। वह गहराई तक पैठे हुए महारोग का लक्षण हैं। महारोग हैं रंग-द्वेष। यदि मुझमें इस गहरे रोग को मिटाने की शक्ति हो तो उस शक्ति का उपयोग मुझे करना चाहिये। ऐसा करते हुए स्वयं जो कष्ट सहने पड़े सो सब सहने चाहिये और उनका विरोध रंग-द्वेष को मिटाने की दृष्टि से ही करना चाहिये।'