न्यायालय का चिह्न तराजू हैं। एक निष्पक्ष, अंधी परन्तु चतुर बुढिया उसे थामे हुए हैं। विधाता ने उसे अंधी बनाया हैं , जिससे वह मुँह देखकर तिलक न करे, बल्कि जो व्यक्ति गुण मे योग्य है उसी को टीका लगाये। इसके विपरीत , नेटाल के न्यायालय से वहाँ की वकील सभा मुँह देखकर तिलक करवाने के लिए तैयार हो गयी थी। परन्तु अदालत ने इस अवसर पर अपने चिह्न की प्रतिष्ठा रख ली।
मुझे वकालत की सनद लेनी थी। मेरे पास बम्बई के हाईकोर्ट का प्रमाण-पत्र था। विलायत का प्रमाण-पत्र बम्बई के हाईकोर्ट के कार्यालय में था। प्रवेश के प्रार्थना पत्र साथ सदाचरण के दो प्रमाण पत्रों की आवश्यकता मानी जाती थी। मैने सोचा कि ये प्रमाण-पत्र गोरो के होगे तो ठीक रहेगा। इसलिए अब्दुल्ला सेठ के द्वारा मेरे सम्पर्क मे आये हुए दो प्रसिद्ध गोरे व्यापारियों के प्रमाण-पत्र मैने प्राप्त कर लिए थे। प्रार्थना-पत्र किसी वकील के द्वारा भेजा जाना चाहिये था और साधारण नियम यह था कि ऐसा प्रार्थना पत्र एटर्नी जनरल बिना पारिश्रमिक के प्रस्तुत करे। मि. एस्कम्ब एटर्नी जनरल थे। हम यह तो जानते थे कि वे अब्दुल्ला सेठ के वकील थे। मै उनसे मिला और उन्होने खुशी से मेरा प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत करना स्वीकार किया।
इतने मे अचानक वकील-सभा की ओर से मुझे नोटिस मिला। नोटिस में न्यायालय मे मेरे प्रवेश का विरोध किया था। उसमे एक कारण यह दिया गया था कि वकालत के लिए दिये गये प्रमाण-पत्र के साथ मैने मूल प्रमाण-पत्र नत्थी नही किया था। पर विरोध का मुख्य मुद्दा यह था कि अदालत में वकीलो की भरती करने के नियम बनाते समय यह सम्भव न माना गया होगा कि कोई काला या पीला आदमी कभी प्रवेश के लिए प्रार्थना-पत्र देगा। नेटाल गोरो के साहस से बना था , इसलिए उसमे गोरो की प्रधानता होनी चाहिये। यदि काले वकील प्रवेश पाने लगेंगे , तो धीरे-धीरे गोरो की प्रधानता जाती रहेगी औऱ उनकी रक्षा की दीवार नष्ट हो जायेगी।
इस विरोध के समर्थन के लिए वकील-सभा ने एक प्रसिद्ध वकील को नियुक्त किया था। इस वकील का भी दादा अब्दुल्ला के साथ सम्बन्ध था। उन्होंने मुझे उनके मारफत बुलवाया। मेरे साथ शुद्ध भाव से चर्चा की। मेरा इतिहास पूछा। मैने बताया। इस पर वे बोले, 'मुझे तो आपके विरुद्ध कुछ नही कहना हैं। मुझे जर है कि कही आप यही जन्मे हुए कोई धूर्त तो नही हैं ! दूसरे, आपके पास असल प्रमाण-पत्र नही हैं , इससे मेरे सन्देह को बल मिला। ऐसे भी लोग मौजूद है, जो दूसरो के प्रमाण-पत्रो का उपयोग करते हैं। आपने गोरो के जो प्रमाण-पत्र पेश किये है, उनका मुझ पर कोई प्रभाव नही पड़ा। वे आपको क्या जाने ? आपके साथ उनकी पहचान ही कितनी हैं ?'
मै बीच मे बोला, 'लेकिन यहाँ तो मेरे लिए सभी नये हैं। अब्दुल्ला सेठ ने भी मुझे यहीं पहचाना हैं।'
'ठीक हैं। लेकिन आप तो कहते हैं कि वे आपके पिता वहाँ के दीवान थे। इसलिए आपके परिवार को तो पहचानते ही होंगे न ? आप उनका शपथ-पत्र अगर रेश कर दे , तो फिर मुझे कोई आपत्ति न रह जायेगी। मै वकील-सभा को लिख दूँगा कि मुझे से आपका विरोध न हो सकेगा।'
मुझे गुस्सा आया , पर मैने उसे रोक लिया। मैने सोचा, 'यदि मैने अब्दुल्ला सेठ का ही प्रमाण-पत्र प्रस्तुत किया होता , तो उसकी अवगणना की जाती और गोरे का परिचय-पत्र माँगा जाता। इसके सिवा मेरे जन्म के साथ वकालत की मेरी योग्यता का क्या सम्बन्ध हो सकता हैं ? यदि मैं दुष्ट अथवा कंगाल माता-पिता का लड़का होऊँ तो मेरी योग्यता की जाँच करते समय मेरे विरुद्ध उसका उपयोग क्यों किया जाय?' पर इन सब विचारो को अंकुश मे रखकर मैने जवाब दिया, 'यद्यपि मैं यह स्वीकार नही करता कि ये सब तथ्य माँगने का वकील-सभा को अधिकार हैं , फिर भी आप जैसा चाहते हैं, वैसा शपथ पत्र प्राप्त करने के लिए मैं तैयार हूँ।'
अब्दुल्ला सेठ का शपथ-पत्र तैयार किया और उसे वकील को दिया। उन्होने संतोष प्रकट किया। पर वकील-सभा को संतोष न हुआ। उसने मेरे प्रवेश के विरुद्ध अपना विरोध न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया। न्यायालय ने मि. एस्कम्ब का जवाव सुने बिना ही वकील-सभा का विरोध रद्द कर दिया। मुख्य न्यायाधीश ने कहा , 'प्रार्थी के असल प्रमाण-पत्र प्रस्तुत न करने की दलील मे कोई सार नही है। यदि उसने झूठी शपथ ली होगी , तो उसके लिए उस पर झूठी शपथ का फौजदारी मुकदमा चल सकेगा और उसका नाम वकीलो की सूची मे से निकाल दिया जायेगा। न्यायालय के नियमो मे काले गोरे का भेद नही हैं। हमेस मि. गाँधी को वकालत करने से रोकने का कोई अधिकार नही हैं। उनका प्रार्थना पत्र स्वीकार किया जाता हैं। मि. गाँधी, आप शपथ ले सकते हैं।'
मैं उठा। रजिस्ट्रार के सम्मुख मैने शपथ ली। शपथ लेते ही मुख्य न्यायाधीश ने कहा , 'अब आपको पगड़ी उतार देनी चाहिये। एक वकील के नाते वकीलो से सम्बन्ध रखने वाले न्यायालय के पोशाक-विषयक नियम का पालन आपके लिए भी आवश्यक है !'
मैं अपनी मर्यादा समझ गया। डरबन के मजिस्ट्रेट की कटहरी मे जिस पगड़ी को पहने रखने का मैने आग्रह रखा था , उसे मैने यहाँ उतार दिया। उतारने के विरुद्ध दलील तो थी ही। पर मुझे बड़ी लड़ाईयाँ लड़नी थी। पगड़ी पहने रहने का हठ करने मे मुझे लड़ने की अपनी कला समाप्त नही करनी थी। इससे तो शायद उसे बट्टा ही लगता।
अब्दुल्ला सेठ को और दूसरे मित्रो को मेरी यह नरमी (या निर्बलता?) अच्छी न लगी। उनका ख्याल था कि मुझे वकील के नाते भी पगड़ी पहने रहने का आग्रह रखना चाहिये। मैने उन्हे समझाने का प्रयत्न किया। 'जैसा देश वैसा भेष' इस कहावत का रहस्य समझया और कहा, 'हिन्दुस्तान मे गोरे अफसर या जज पगडी उतारने के लिए विवश करे , तो उसका विरोध किया जा सकता हैं। नेटाल जैसे देश मे यहाँ के न्यायालय के एक अधिकारी के नाते न्यायालय की रीति-नीति का ऐसा विरोध करना मुझे शोभा नही देता।'
इस और ऐसी दूसरी दलीलो से मैने मित्रो को कुछ शान्त तो किया पर मैं नही मानता कि एक ही वस्तु को भिन्न परिस्थिति मे भिन्न रीति से देखने का औचित्य मै इस अवसर पर उन्हे संतोषजनक रीति से समझा सका था। पर मेरे जीवन मे आग्रह और अनाग्रह हमेशा साथ-साथ ही चलते रहे है। सत्याग्रह मे यह अनिवार्य हैं , इसका अनुभव मैने बाद मे कई बार किया हैं। इस समझौता-वृति के कारण मुझे कितनी ही बार अपने प्राणों को संकट मे डालना पड़ा हैं और मित्रो का असंतोष सहना पड़ा हैं। पर सत्य वज्र के समान कठिन हैं, और कमल के समान कोमल हैं।
वकील-सभा के विरोध ने दक्षिण अफ्रीका मे मेरे लिए दूसरे विज्ञापन का काम किया। ज्यादातरक अखबारो ने मेरे प्रवेश के विरोध की निन्दा की और वकीलो पर ईर्ष्या का दोष लगाया। इस विज्ञापन से मेरा काम किसी हद तक सरल हो गया।