इस प्रकार मैं हिन्दुस्तानी समाज की सेवा में ओतप्रोत हो गया, उसका कारण आत्म-दर्शन की अभिलाषा थी। ईश्वर की पहचान सेवा से ही होगी, यह मानकर मैने सेवा-धर्म स्वीकार किया था। मै हिन्दुस्तान की सेवा करता था , क्योकि वह सेवा मुझे अनायस प्राप्त हुई थी। मुझे उसे खोजने नही जाना पड़ा था। मै तो यात्रा करने, काठियावाड़ के पडयंत्रो से बचने और आजीविका खोजने के लिए दक्षिण अफ्रीका गया था। पर पड़ गया ईश्वर की खोज में - आत्म-दर्शन के प्रयत्न में। ईसाई भाइयों ने मेरी जिज्ञासा को बहुत तीव्र कर दिया था। वह किसी भी तरह शान्त होनेवाली न थी। मै शान्त होना चाहता तो भी ईसाई भाई-बहन मुझे शान्त होने न देते। क्योकि डरबन मे मि. स्पेन्सर वॉल्टन ने, जो दक्षिण अफ्रीका के मिशन के मुखिया थे, मुझे खोज निकाला। उनके घर में मैं कुटुम्बी-जैसा हो गया। इस सम्बन्ध का मूल प्रिटोरिया मे हुआ समागम था। मि. वॉल्टन की रीति-नीति कुछ दूसरे प्रकार की थी। उन्होने मुझे ईसाई बनने को कहा हो, सो याद नही। पर अपना जीवन उन्होने मेरे सामने रख दिया और अपनी प्रवृतियाँ - कार्यकलाप मुझे देखने दी। उनकी धर्मपत्नी बहुत नम्र परन्तु तेजस्वी महिला थी।
मुझे इस दम्पती की पद्धति अच्छी लगती थी। अपने बीच के मूलभूत मतभेदो को हम दोनो जानते थे। ये मतभेद आपसी चर्चा द्वारा मिटने वाले नही थे। जहाँ उदारता , सहिष्णुता और सत्य होता है, वहाँ मतभेद भी लाभदायक सिद्ध होते है। मुझे इस युगल की नम्रता, उद्यमशीलता और कार्यपरायणता प्रिय थी। इसलिए समय-समय पर मिलते रहते थे।
इस सम्बन्ध ने मुझे जाग्रत रखा। धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन के लिए जो फुरसत थी, अब असम्भव थी। पर जो थोड़ा समय बचता , उसका उपयोग मैं वैसे अध्ययन मे करता था। मेरा पत्र-व्यवहार जारी था। रायचन्दभाई मेरा मार्गदर्शन कर रहे थे। किसी मित्र ने मुझे नर्मदाशंकर की 'धर्म विचार' पुस्तक भेजी। उसकी प्रस्तावना मेरे लिए सहायक सिद्ध हुई। मैने नर्मदाशंकर के विलासी जीवन की बाते सुनी थी। प्रस्तावना मे उनके जीवन मे हुए परिवर्तनो का वर्णन था। उसने मुझे आकर्षित किया और इस कारण उस पुस्तक के प्रति मेरे मन मे आदर उत्पन्न हुआ। मै उसे ध्यानपूर्वक पढ गया।
मैक्समूलर की 'हिन्दुस्तान क्या सिखाता हैं?' पुस्तक मैने बड़ी दिलचस्पी के साथ पढ़ी। थियॉसॉफिकल सोसायटी द्वारा प्रकाशित उपनिषदो का भाषान्तर पढ़ा। इससे हिन्दू धर्म के प्रति आदर बढ़ा। उसकी खूबियाँ मैं समझने लगा। पर दूसरे धर्मो के प्रति मेरे मन मे अनादर उत्पन्न नही हुआ। वाशिंग्टन अरविंग कृत मुहम्मद का चरित्र और कार्लाइल की मुहम्मद-स्तुति पढ़ी। मुहम्मद पैगम्बर के प्रति मेरा सम्मान बढ़ा। 'जरथुस्त के वचन' नामक पुस्तक भी मैने पढ़ी।
इस प्रकार मैने भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों का थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त किया। मेरा आत्म-निरीक्षण बढ़ा। जो पढ़ा औऱ पसंद किया , उसे आचरण मे लाने की आदत पक्की हुई। अतएव हिन्दू धर्म से सूचित प्राणायाम-सम्बन्धी कुछ क्रियायें, जितनी पुस्तक की मदद से समझ सका उतनी मैने शुरु की। पर वे मुझे संधी नही। मै उनमे आगे न बढ़ सका। सोचा था कि वापस हिन्दुस्तान जाने पर उनका अभ्यास किसी शिक्षक की देखरेख में करुँगा। पर वह विचार कभी पूरा नही हो सका।
टॉल्सटॉय की पुस्तकों का अध्ययन मैने बढ़ा लिया। उनकी 'गॉस्पेल्स इन ब्रीफ' ( नये करार का सार) , 'व्हॉट टु डू' (तब क्या करें? ) आदि पुस्तको ने मेरे मन मे गहरी छाप डाली। विश्व-प्रेम मनुष्य को कहाँ तक ले जा सकता हैं , इसे मै अधिकाधिक समझने लगा।
इसी समय एक दूसरे ईसाई कुटुम्ब के साथ मेरा सम्बन्ध जुडा। उसकी इच्छा से मैं हर रविवार को वेरिलयन गिरजे मे जाया करता था। अक्सर हर रविवार की शाम को मुझे उनके घर भोजन भी करना पड़ता था। वेरिलयन गिरजे का मुझ पर अच्छा असर नहीं पड़ा। वहाँ जो प्रवचन होते थे, वे मुझे शुष्क जान पड़े। प्रेक्षकों मे भक्तिभाव के दर्शन नहीं हुए। यह ग्यारह बजे का समाज मुझे भक्तो का नही , बल्कि दिल बहलाने और कुछ रिवाज पालने के लिए आये हुए संसारी जीवो का समाज जान पड़ा। कभी कभी तो इस सभा में मुझे बरबस नींद के झोंके आ जाते। इससे मैं शरमाता। पर अपने आसपास भी किसी को ऊँधते देखता , तो मेरी शरम कुछ कम हो जाती। अपनी यह स्थिति मुझे अच्छी नही लगी। आखिर मैने इस गिरजे मे जाना छोड दिया।
मैं जिस परिवार मे हर रविवार को जाता था, कहना होगा कि वहाँ से तो मुझे छुट्टी ही मिल गयी। घर की मालकिन भोली , परन्तु संकुचित मन की मालूम हुई। हर बार उनके साथ कुछ न कुछ धर्मचर्चा तो होती ही रहती थी। उन दिनों मैं घर पर 'लाइट ऑफ एशिया' पढ़ रहा था। एक दिन हम ईसा और बुद्ध के जीवन की तुलना करने लगे। मैने कहा , 'गौतम की दया देखिये। वह मनुष्य-जाति को लाँधकर दुसरे प्राणियों तक पहुँच गयी थी। उनके कंधे पर खेलते हुए मेमने का चित्र आँखो के सामने आते ही क्या आपका हृदय प्रेम से उमड़ नही पड़ता ? प्राणीमात्र के प्रति ऐसा प्रेम मैं ईसा के चरित्र मे नहीं देख सका।'
उस बहन का दिल दुखा। मैं समझ गया। मैने अपनी बात आगे न बढ़ायी। हम भोजनालय मे पहुँचे। कोई पाँच वर्ष का उनका हंसमुख बालक भी हमारे साथ था। मुझे बच्चे मिल जाये तो फिर और क्या चाहिये ? उसके साथ मैने दोस्ती तो कर ही ली थी। मैने उसकी थाली मे पड़े माँस के टुकडे का मजाक किया और उपनी रबाकी मे सजे हुए सेव की स्तुति की। निर्दोष बालक पिघल गया और सेव की स्तुति मे सम्मिलित हो गया।
पर माता? वह बेचारी दुखी हुई। मै चता। चुप्पी साध गया। मैने चर्चा का विषय बदल दिया।
दूसरे हफ्ते सावधान रहकर मै उनके यहाँ गया तो सही , पर मेरे पाँव भारी हो गये थे। मुझे यह न सूझा कि मै खुद ही वहाँ जाना बन्द कर दूँ और न ऐसा करना उचित जान पड़ा। पर उस भली बहन ने मेरी कठिनाई दूर कर दी। वे बोली, 'मि. गाँधी, आप बुरा न मानियेगा, पर मुझे आप से कहना चाहिये कि मेरे बालक पर आपकी सोहब्बत का बुरा असर होने लगा हैं। अब रोज माँस खाने में आनाकानी करता हैं। और आपकी उस चर्चा का याद दिलाकर फल माँगता हैं। मुझसे यह न निभ सकेगा। मेरा बच्चा माँसाहार छोडने से बीमार चाहे न पड़े, पर कमजोर तो हो ही जायेगा। इसे मैं कैसे सह सकती हूँ ? आप जो चर्चा करते हैं , वह हम सयानो के बीच शोभा दे सकती हैं। लेकिन बालको पर तो उसका बुरा ही असर हो सकता हैं।'
'मिसेज... मुझे दुःख है। माता के नाते मैं आपकी भावना को समझ सकता हूँ। मेरे भी बच्चे हैं। इस आपत्ति का अन्त सरलता से हो सकता हैं। मेरे बोलने का जो असर होगा, उसकी अपेक्षा मैं जो खाता हूँ या नही खाता हूँ, उसे देखने का असर बालक पर बहुत अधिक होगा। इसलिए अच्छा रास्ता तो यह है कि अब से आगे मैं रविवार को आपके यहाँ न आऊँ। इससे हमारी मित्रता में कोई बाधा न पहुँचेगी।'
बहन मे प्रसन्न होकर उत्तर दिया , 'मै आपका आभार मानती हूँ।'