कांग्रेस का अधिवेशन शुरु हुआ। पंडाल का भव्य दृश्य, स्वयंसेवको की कतारें, मंच पर नेताओं की उपस्थिति इत्यादि देखकर मै घबरा गया। इस सभा मे मेरा पता कहाँ लगेगा , यह सोचकर मै अकुला उठा।

सभापति का भाषण तो एक पुस्तक ही थी। स्थिति ऐसी नही थी कि वह पूरा पढ़ा जा सके। अतः उसके कुछ अंश ही पढ़े गये।

बाद मे विषय-निर्वाचिनी समिति के सदस्य चुने गये। उसमे गोखले मुझे ले गये थे।

सर फिरोजशाह ने मेरा प्रस्ताव लेने की स्वीकृति तो दी थी , पर उसे कांग्रेस की विषय-निर्वाचिनी समिति मे कौन प्रस्तुत करेगा, कब करेगा, यह सोचता हुआ मैं समिति मे बैठा रहा। हरएक प्रस्ताव पर लम्बे-लम्बे भाषण होते थे, सब अंग्रेजी में। हरएक के साथ प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम जुड़े होते थे। इस नक्कारखाने मे मेरी तूती की आवाज कौन सुनेगा ? ज्यो-ज्यो रात बीतती जाती थी , त्यो-त्यो मेरा दिल घड़कता जाता था। मुझे याद आ रहा है कि अन्त में पेश होने वाले प्रस्ताव आजकल के विमानो की गति से चल रहे थे। सब कोई भागने की तैयारी में थे। रात के ग्यारह बज गये थे। मुझमे बोलने की हिम्मत न थी। मैं गोखले से मिल चुका था और उन्होने मेरा प्रस्ताव देख लिया था।

उनकी कुर्सी के पास जाकर मैने धीरे से कहा, 'मेरे लिए कुछ कीजियेगा।'

उन्होंने कहा, 'आपके प्रस्ताव को मैं भूला नही हूँ। यहाँ की उतावली आप देख रहे हैं, पर मैं इस प्रस्ताव को भूलने नहीं दूँगा।'

सर फीरोजशाह बोले, 'कहिये , सब काम निबट गया न ?'

गोखले बोल उठे, 'दक्षिण अफ्रीका का प्रस्ताव तो बाकी ही हैं। मि. गाँधी कब से बैठे राह देख रहे हैं। '

सर फीरोजशाह ने पूछा, 'आप उस प्रस्ताव को देख चुके हैं ?'

'हाँ।'

'आपको वह पसन्द आया ?'

'काफी अच्छा हैं।'

'तो गाँधी, पढ़ो।'

मैने काँपते हुए प्रस्ताव पढ़ सुनाया।

गोखले ने उसका समर्थन किया।

सब बोल उठे, 'सर्व-सम्मति से पास।'

वाच्छा बोले, 'गाँधी, तुम पाँच मिनट लेना।'

इस दृश्य से मुझे प्रसन्नता न हुई। किसी ने भी प्रस्ताव को समझने का कष्ट नहीं उठाया। सब जल्दी मे थी। गोखने मे प्रस्ताव देख लिया था, इसलिए दूसरो को देखने-सुनने की आवश्यकता प्रतीत न हुई।

सवेरा हुआ।

मुझे तो अपने भाषण की फिक्र थी। पाँच मिनट मे क्या बोलूँगा ? मैने तैयारी तो अच्छी कर ली थी , पर उपयुक्त शब्द सूझते न थे। लिखित भाषण न पढ़ने का मेरा निश्चय था। पर ऐसा प्रतीत हुआ कि दक्षिण अफ्रीका मे भाषण करने की जो स्वस्थता मुझ मे आयी थी, उसे मैं यहाँ खो बैठा था।

मेरे प्रस्ताव का समय आने पर सर दीनशा ने मेरा नाम पुकारा। मैं खड़ा हुआ। मेरा सिर चकराने लगा। जैसे-तैसे मैने प्रस्ताव पढ़ा। किसी कवि ने अपनी कविता छपाकर सब प्रतिनिधियों मे बाँटी थी। उसमे परदेश जाने की और समुद्र-यात्रा की स्तुति थी। वह मैने पढ़ सुनायी और दक्षिण अफ्रीका के दुःखो की थोड़ी चर्चा की। इतने मे सर दीनशा की घंटी बजी। मुझे विश्वास था कि मैने अभी पाँच मिनट पूरे नहीं किये हैं। मुझे पता न था कि यह घंटी मुझे चेताने के लिए दो मिनट पहले ही बजा दी गयी थी। मैने बहुतों को आध-आध, पौने-पौने घंटे बोलते देखा था और घंटी नहीं बजी थी। मुझे दुःख तो हुआ। घंटी बजते ही मैं बैठ गया। पर उक्त काव्य मे सर फीरोजशाह को उत्तर मिल गया, ऐसा मेरी अल्प बुद्धि ने उस समय मान लिया।

प्रस्ताव पास होने के बारे मे तो पूछना ही क्या था? उन दिनों दर्शक और प्रतिनिधि का भेद क्वचित् हीं किया जाता था। प्रस्तावो का विरोध करने का कोई प्रश्न ही नही था। सारे प्रस्ताव सर्व-सम्मति से पास होते थे। मेरा प्रस्ताव भी इसी तरह पास हुआ। इसलिए मुझे प्रस्ताव का महत्त्व नही जान पड़ा। फिर भी कांग्रेस मे मेरा प्रस्ताव पास हुआ , यह बात ही मेरे आनन्द के लिए पर्याप्त थी। जिस पर कांग्रेस की मुहर लग गयी उस पर सारे भारत की मुहर हैं, यह ज्ञान किस के लिए पर्याप्त न होगा?

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