एक बार जोहानिस्बर्ग में मेरे पास चार कारकून हो गये थे। मै नहीं कह सकता कि उन्हें कारकून माँनू या बेटे। किन्तु इससे मेरा काम न चला। टाइपिंग के बिना मेरा काम चल ही नहीं सकता था। टाइपिंग का जो थोड़ा सा ज्ञान था सो मुझे ही था। इन चार नौजवानों में से दो को मैंने टाइपिंग सिखाया , किन्तु अंग्रेजी का ज्ञान कम होने से उनका टाइपिंग कभी अच्छा न हो सका। फिर, उन्हीं में से मुझे हिसाबनवीस भी तैयार करने थे। नेटाल से अपनी इच्छानुसार मैं किसी को बुला न सकता था , क्योकि बिना परवाने के कोई हिन्दुस्तानी दाखिल नही हो पाता था। और अपनी सुविधा के लिए मैं अधिकारियों से मेहरबानी की भीख माँगने को तैयार न था।
मैं परेशानी मे पड़ गया। काम इतना बढ़ गया था कि कितनी ही मेहनत क्यो न की जाये, मेरे लिए यह सम्भव नही रहा कि वकालत और सार्वजनिक सेवा दोनो को ठीक से कर सकूँ।
मुहर्रिरी के लिए अंग्रेज स्त्री-पुरुषो के मिलने पर मैं उन्हें न रखूँ ,ऐसी कोई बात नही थी। पर मुझे यह डर था कि 'काले' आदमी के यहाँ क्या गोरे नौकरी करेंगे ? लेकिन मैने प्रयत्न करने का निश्चय किया। टाइप राइटिंग एजेंट से मेरी थोडी पहचान थी। मै उसके पास गया और उससे कहा कि जिसे काले आदमी के अधीन नौकरी करने मे अड़चल न हो, ऐसे टाइप राइटिंग करने वाले गोरे भाई या बहन को वह मेरे लिए खोज दे। दक्षिण अफ्रीका मे शॉर्टहैंड लिखने और टाइप करने का काम करने वाली अधिकतर बहने ही होती हैं। इस एजेंट ने मुझे वचन दिया कि ऐसा आदमी प्राप्त करने का वह प्रयत्न करेगा। उसे मिस डिक नामक एक स्कॉच कुमारिका मिल गयी। यह महिला हाल ही स्कॉटलैंड से आयी थी। उसे प्रामाणिक नौकरी कहीँ भी करने मे कोई आपत्ति न थी। उसे तत्काल काम पर लगना था। उक्त एजेंट इस बहन को मेरे पास भेज दिया। उसे देखते ही मेरी आँखे उस पर टिक गयी।
मैने उससे पूछा, 'आपको हिन्दुस्तानी आदमी के अधीन काम करने मे कोई अड़चन तो नही हैं ?'
उसने ढृढता-पूर्वक उत्तर दिया , 'बिल्कुल नही।'
'आप वेतन किनता लेगी ?'
उसने जवाब दिया, 'क्या साढे सतरह पौंड आपके ख्याल से अधिक होंगे ?'
'आपसे मै जितने काम की आशा रखता हूँ उतना काम आप करेंगी तब तो मैं इसे बिल्कुल अधिक नही समझूगा। आप काम पर कब से आ सकेंगी।'
'आप चाहे तो इसी क्षण से।'
मैं बहुत खुश हुआ और उस बहन को उसी समय अपने सामने बैठाकर मैने पत्र लिखाना शुरू कर दिया।
उसने केवल मेरे कारकून का ही नही, बल्कि मैं मानता हूँ कि सगी लड़की अथवा बहन का पद तुरन्त ही सहज भाव से ले लिया। मुझे उसे कभी ऊँची आवाज मे कुछ कहना न पड़ा। शायद ही कभी उसके काम मे कोई गलती निकालनी पड़ी हो। एक समय ऐसा था कि जब हजारों पौंड की व्यवस्था उसके हाथ मे थी और वह हिसाब-किताब भी रखने लगी। उसने संपूर्ण रूप से मेरा विश्वास संपादन कर लिया था। लेकिन मेरे मन बड़ी बात यह थी कि मै उसकी गुह्यतम भावनाओ को जानने जिनता उसका विश्वास संपादन कर सका था। अपना साथी पसन्द करने मे उसने मेरी सलाह ली थी। कन्यादान देने का सौभाग्य भी मुझे ही प्राप्त हुआ था। मिस डिक जब मिसेज मैकडॉनल्ड बन गयी , तब उन्हें मुझसे अलग होना पड़ा, यद्यपि विवाह के बाद भी काम की अधिकता होने पर मै जब चाहता उनसे काम ले लेता था।
किन्तु आफिस मे एक स्थायी शॉर्टहैंड राइटर की आवश्यकता तो थी ही। एक महिला इसके लिए भी मिल गयी। नाम था मिस श्लेशिन। उसे मेरे पास लाने वाले मि. कैलनबैक थे, जिनका परिचय पाठको को आगे चलकर होगा। इस समय यह महिला एक हाईस्कूल में शिक्षिका का काम कर रही थी , उसकी उमर कोई सतरह साल की रही होगी। उसकी कुछ विचित्रताओ से मि. कैलनबैक और मैं हार जाते थे। वह नौकरी करने के विचार से नही आयी थी। उस तो अनुभव कमाने थे। उसके स्वभाव मे कहीं रंग-द्वेष तो था ही नही। उसे किसी की परवाह भी नही थी। वह किसी का भी अपमान करने से डरती न थी और अपने मन मे जिसके बारे मे जो विचार आते , सो कहने में संकोच न करती थी। अपनी इसी स्वभाव के कारण वह कभी कभी मुझे परेशानी मे डाल देती थी। लेकिन उसका सरल और शुद्ध स्वभाव सारी परेशानी दूर कर देता था। अंग्रेजी के उसके ज्ञान को मैने हमेशा अपने से ऊँचा माना था। इस कारण और उसकी वफादारी पर पूरा विश्वास होने के कारण उसके द्वारा टाइप किये गये बहुत से पत्रों पर, उन्हे दुबारा जाँचे बिना ही, मैं हस्ताक्षर करता था।
उसकी त्यागवृत्ति का पार न था। उसने एक लम्बे समय तक मुझ से प्रतिमास सिर्फ छह पौंड ही लिये और दस पौंड से अधिक वेतन लेने से उसने अन्त तक साफ इनकार किया। जब कभी मैं अधिक लेने को कहता, वह मुझे धमकाती और कहती , 'मै वेतन लेने के लिए यहाँ नही रही हूँ। मुझे आपके साथ यह काम करना अच्छा लगता हैं और आपके आदर्श मुझे पसन्द हैं , इसलिए मैं यहाँ टिकी हूँ।'
एक बार आवश्यकता होने से उसने मुझसे चालीस पौड़ लिये थे, पर कर्ज के तौर पर। पिछले साल उसने वे सारे पैसे लौटा दिये।
जैसी उसकी त्यागवृत्ति तीव्र थी, वैसी ही उसकी हिम्मत भी थी। मुझे स्फटिक मणि जैसी पवित्र औऱ क्षत्रिय को भी चौधियानेवाली वीरता से युक्त जिन महिलाओं के सम्पर्क में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, उनमे से एक इस बाला को मैं मानता हूँ। अब तो वह बड़ी उमर की प्रोढ़ कुमारिका हैं। आज की उसकी मानसिक स्थिति से मैं पूरी तरह परिचित नही हूँ , पर मेरे अनुभवों मे इस बाला का अनुभव मेरे लिए सदा पुण्य-स्मरण बना रहेगा। इसलिए मैं जो जानता हूँ वह न लिखूँ, तो सत्य का द्रोही बनूँ।
काम करने मे उसने रात या दिन का कोई भेद कभी जाना ही नही। वह आधी रात को भी जहाँ जाना होता , अकेली चली जाती और अगर मै किसी को उसके साथ भेजने का विचार करता , तो मुझे लाल आँखे दिखाती। हजारों बड़ी उमर के हिन्दुस्तानी भी उसे आदर की दृष्टि से देखते थे और उसका कहा करते थे। जब हम सब जेल मे थे, शायद ही कोई जिम्मेदार आदमी बाहर रहा था, तब वह अकेली सत्याग्रह की समूची लड़ाई के संभाले हुए थी। स्थिति यह थी कि लाखो का हिसाब उसके हाथ मे , सारा पत्र-व्यवहार उसके हाथ मे और 'इंडियन ओपीनियन' भी उसके हाथ मे। फिर भी वह थकना तो जानती ही न थी।
मिस श्लेशिन के विषय मे लिखते हुए मैं थक नही सकता। गोखले का प्रमाण पत्र देकर मैं यह प्रकरण समाप्त करूँगा। गोखले ने मेरे सब साथियों का परिचय किया था। यह परिचय करके उन्हें बहुतों के विषय मे बहुत संतोष हुआ था। उन्हें सबके चरित्र का मूल्यांकन करने का शौक था। सारे हिन्दुस्तानी तथा यूरोपियन साथियो मे उन्होने मिस श्लेशिन को प्रधानता थी। उन्होंने कहा था, 'इतना त्याग, इतनी पवित्रता, इतनी निर्भयता और इतनी कुशलता मैने बहुत थोड़ों मे देखी हैं। मेरी दृष्टि मे तो मिस श्लेशिन तुम्हारे साथियों मे प्रथम पद की अधिकारिणी हैं।'