मेरे लिए यह हमेशा दुःख की बात रही हैं कि फीनिक्स जैसी संस्था की स्थापना के बाद मैं स्वयं उसमे कुछ ही समय तक रह सका। उसकी स्थापना के समय मेरी कलपना यह थी कि मैं वहाँ बस जाऊँगा , अपनी आजीविका उसमे से प्राप्थ करूँगा, धीरे -धीरे वकालत छोड़ दूँगा , फीनिक्स में रहते हुए जो सेवा मुझसे हो सकेगी करूँगा और फीनिक्स की सफलता को ही सेवा समझूँगा। पर इन विचारों पर सोचा हुआ अमल हुआ ही नहीं। अपने अनुभव के द्वारा मैने अक्सर यह देखा हैं कि हम चाहते कुछ हैं और हो कुछ और ही जाता हैं। पर इसके साथ ही मैने यह भी अनुभव किया हैं कि जहाँ सत्य की ही साधना और उपासना होती है, वहाँ भले परिणाम हमारी धारणा के अनुसार न निकले , फिर भी जो अनपेक्षित परिणाम निकलता हैं वह अकल्याणकारी नहीं होता और कई बार अपेक्षा से अधिक अच्छा होता है। फीनिक्स मे जो अनसोचे परिणाम निकले और फीनिक्स ने जो अनसोचा स्वरुप धारण किया वह अकल्याणकारी न था इतना तो मै निश्चय-पूर्वक कह सकता हूँ। उन परिणामों को अधिक अच्छा कहा जा सकता है या नहीं , इसके सम्बन्ध में निश्चय-पूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता।


हम सब अपनी मेहनत से अपना निर्वाह करेंगे , इस ख्याल से मुद्रणालय के आसपास प्रत्येक निवासी के लिए जमीन के तीन-तीन एकड़ के टुकडे कर लिये गये थे। इनमें एक टुकड़ा मेरे लिए भी मापा गया था। इस सब टुकड़ो पर हममे से हरएक की इच्छा के विरुद्ध हमने टीन की चद्दरों के घर बनाये। इच्छा तो किसान को शोभा देनेवाले घासफूस और मिट्टी के अथवा ईट के घर बाँधने की थी, पर वह पूरी न हो सकी। उसमें पैसा अधिक खर्च होता था और समय अधिक लगता था। सब जल्दी से घरबार वाले बनने और काम मे जुट जाने के लिए उतावले हो गये थे।

पत्र के सम्पादक तो मनसुखलाल नाजर ही माने जाते थे। वे इस योजना में सम्मिलित नही हुए थे। उनका घर डरबन मे ही था। डरबन में 'इंडियन ओपीनियन' की एक छोटी-सी शाखा भी थी।

यद्यपि कंपोज करने के लिए वैतनिक कार्यकर्ता थे , फिर भी दृष्टि यह थी कि अखबार कंपोज करने का काम , जो अधिक से अधिक सरल था, संस्था में रहने वाले सब लोग सीख ले और करे। अतएव जो कंपोज करना नही जानते थेस वे उसे सीखने के लिए तैयार हो गये। मै इस काम मे अंत तक सबसे अधिक मंद रहा और मगनलाल गाँधी सबसे आगे बढ़ गये। मैने हमेशा यह माना हैं कि स्वयं उन्हें भी अपने में विद्यमान शक्ति का पता नही था। उन्होंने छापाखाने का काम कभी किया नही था। फिर भी वे कुशल कंपोजिटर बन गये और कंपोज करने की गति मे भी उन्होंने अच्छी प्रगति की। यहीं नहीं, बल्कि थोड़े समय मे छापाखाने की सब क्रियाओ पर अच्छा प्रभुत्व प्राप्त करके उन्होंने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया।

अभी यह काम व्यवस्थित नही हो पाया था, मकाम भी तैयार न हुए थे , इतने मे अपने इस नवरचित परिवार को छोड़कर मैं जोहानिस्बर्ग भाग गया। मेरी स्थिति ऐसी न थी कि मैं वहाँ के काम को लम्बे समय तक छोड़ सकूँ।

जोहानिस्बर्ग पहुँचकर मैने पोलाक से इस महत्त्वपूर्ण परिवर्तन की बात कही। अपनी दी हुई पुस्तक का यह परिणाम देखकर उनके आनन्द का पार न रहा। उन्होने उमंग के साथ पूछा, 'तो क्या मैं भी इसमे किसी तरह हाथ नही बँटा सकता?'

'आप अवश्य हाथ बँटा सकते है। चाहे तो आप इस योजना मे सम्मिलित भी हो सकते हैं।'

पोलाक ने जवाब दिया, 'मुझे सम्मिलित करें तो मैं तैयार हूँ।'

उनकी इस ढृढता से मैं मुग्ध हो गया। पोलाक ने 'क्रिटिक' से मुक्ति पाने के लिए अपने मालिक को एक महीने की नोटिस दी और अवधि समाप्त होने पर वे फीनिक्स पहुँच गये। वहाँ अपने मिलनसार स्वभाव से उन्होंने सबके दिल जीत लिये और घर के ही एक आदमी की तरह रहने लगे। सादगी उनके स्वभाव मे थी। इसलिए फीनिक्स का जीवन उन्हें जरा भी विचित्र या कठिन न लगकर स्वाभाविक और रुचिकर लगा।

पर मैं ही उन्हें लम्बे समय तक वहाँ रख नही सका। मि. रीच ने विलायत जाकर कानून की पढाई पूरी करने का निश्चय किया। मेरे लिए अकेले हाथो समूचे दफ्कर का बोझ उठाना सम्भव न था। अतएव मैने पोलाक को आफिस मे रहने और वकील बनने की सलाह दी। मैने सोचा यह था कि उनके वकील बन जाने का बाद आखिर हम दोनों फीनिक्स ही पहुँच जायेंगे।

ये सारी कल्पनाये मिथ्या सिद्ध हुई। किन्तु पोलाक के स्वभाव मे एक प्रकार की ऐसी सरलता थी कि जिस आदमी पर उन्हें विश्वास हो जाता उससे बहस न करके वे उसके मत के अनुकूल बनने का प्रयत्न करते थे। पोलाक ने मुझे लिखा , 'मुझे तो यह जीवन ही अच्छा लगता हैं। मै यहाँ सुखी हूँ। यहाँ हम इस संस्था का विकास कर सकेंगे। किन्तु यदि आप यह मानते है कि मेरे वहाँ पहुँचने से हमारे आदर्श शीध्र सफल होगे , तो मैं आने को तैयार हूँ।'

मैने उनके इस पत्र का स्वागत किया। पोलाक फीनिक्स छोडकर जोहानिस्बर्ग आये और मेरे दफतर मे वकील के मुंशी की तरह काम करने लगे।

इसी समय एक स्कॉच थियॉसॉफिस्ट को भी मैने पोलाक का अनुकरण करने के लिए निमंत्रित किया औऱ वे भी आश्रम मे सम्मिलित हो गये। उन्हें मैं कानून की परीक्षा की तैयारी मे मदद करता था। उनका नाम मेकिनटायर था।

यों फीनिक्स के आदर्श को शीध्र ही सिद्ध करने के शुभ विचार से मैं उसके विरोधी जीवन मे अधिकाधिक गहरा उतरता दिखायी पड़ा और यदि ईश्वरीय संकेत कुछ और ही न होता तो सादे जीवन के नाम पर बिछाये गये मोहजाल में मैं स्वयं ही फँस जाता।

मेरी और मेरे आदर्श की रक्षा जिस रीत से हुई, उसकी हममे से किसी को कोई कल्पना नहीं थी। पर इस प्रसंग का वर्णन करने से पहले कुछ और प्रकरण लिखने होगें।

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