घर बसा कर बैठने के बाद कही स्थिर होकर रहना मेरे नसीब मे बदा ही न था। जोहानिस्बर्ग मे मै कुछ स्थिर-सा होने लगा था कि इसी बीच एक अमसोची घटना घटी। अखबारो मे यह खबर पढने को मिली कि नेटाल मे जुलू 'विद्रोह' हुआ है। जुलू लोगो से मेरी कोई दुश्मनी न थी। उन्होने एक भी हिन्दुस्तानी का नुकसान नही किया था। 'विद्रोह' शब्द के औचित्य के विषय मे भी मुझे शंका थी। किन्तु उन दिनो मै अंग्रेजी सल्तनत को संसार का कल्याण करने वाली सल्तनत मानता था। मेरी वफादारी हार्दिक थी। मै उस सल्तनत का क्षय नही चाहता था। अतएव बल-प्रयोग सम्बन्धी नीति-अनीति का विचार मुझे इस कार्य को करने सा रोक नही सकता था। नेटाल पर संकट आने पर उसके पास रक्षा के लिए स्वयंसेवको की सेना थी और संकट के समय उसमे काम के लायक सैनिक भरती भी हो जाते थे। मैने पढा कि स्वयंसेवको की सेना इस विद्रोह को दबाने के लिए रवाना हो चुकी है।

मै अपने को नेटालवासी मानता था और नेटाल के साथ मेरा निकट सम्बन्ध तो था ही। अतएव मैने गवर्नर को पत्र लिखा कि यदि आवश्यकता हो तो घायलो की सेवा-शुश्रूषा करने वाले हिन्दुस्तानियो की एक टुकडी लेकर मै सेवा के लिए जाने को तैयार हूँ। तुरन्त ही गवर्नर का स्वीकृति सूचक उत्तर मिला। मैने अनुकूल उत्तर की अथवा इतनी जल्दी उत्तर पाने की आशा नही रखी थी। फिर भी उक्त पत्र लिखने के पहले मैने अपना प्रबन्ध तो कर ही लिया था। तय यह किया था कि यदि मेरी प्रार्थना स्वीकृत हो जाय, तो जोहानिस्बर्ग का घर उठा देंगे , मि. पोलाक अलग घर लेकर रहेंगे और कस्तूरबाई फीनिक्स जाकर रहेगी। इस योजना को कस्तूरबाई की पूर्ण सहमति प्राप्त हुई। मुझे स्मरण नही है कि मेरे ऐसे कार्यो मे उसकी तरफ से किसी भी दिन कोई बाधा डाली गयी हो। गवर्नर का अत्तर मिलते ही मैने मालिक को मकान खाली करने के सम्बन्ध मे विधिवत एक महीने का नोटिस दे दी। कुछ सामान फीनिक्स गया , कुछ मि. पोलाक के पास रहा।

डरबन पहुँचने पर मैने आदमियो की माँग की। बड़ी टुकड़ी की आवश्यकता नही थी। हम चौबीस आदमी तैयार हुए। उनमे मेरे सिवा चार गुजराती थे , बाकी मद्रास प्रान्त के गिरमिट मुक्त हिन्दुस्तानी थे और एक पठान था।

स्वाभिमान की रक्षा के लिए और अधिक सुविधा के साथ काम कर सकने के लिए तथा वैसी प्रथा होने के कारण चिकित्सा विभाग के मुख्य पदाधिकारी ने मुझे 'सार्जेट मेजर' का मुद्दती पद दिया और मेरी पसन्द के अन्य तीन साथियो को 'सार्जेट' का और एक को 'कार्पोरल' का पद दिया। वरदी भी सरकार की ओर से ही मिली। मै यह कह सकता हूँ कि इस टुकड़ी ने छह सप्ताह तक सतत सेवा की।

'विद्रोह' के स्थान पर पहुँचकर मैने देखा कि वहाँ विद्रोह जैसी कोई चीज नही थी। कोई विरोध करता हुआ भी नजर नही आता था। विद्रोह मानने का कारण यह था कि एक जुलू सरदार ने जुलू लोगो पर लगाया गया नया कर न देने की उन्हें सलाह दी थी और कर की वसूली के लिए गये हुए एक सार्जेट को उसने कत्ल कर डाला था। सो जो भी हो, मेरा हृदय तो जुलू लोगो की तरफ था औऱ केन्द्र पर पहुँचने के बाद जब हमारे हिस्से मुख्यतः जुलू घायलो की शुश्रूषा करने का काम आया, तो मै बहुत खुश हुआ। वहाँ के डॉक्टर अधिकारी ने हमारा स्वागत किया। उसने कहा, 'गोरो मे से कोई इन घायलो की सेवा-शुश्रूषा करने के लिए तैयार नही होता। मै अकेला किस किस की सेवा करुँ ? इनके घाव सड़ रहे है। अब आप आये है , इसे मै इन निर्दोष लोगो पर ईश्वर की कृपा ही समझता हूँ। ' यह कहकर उसने मुझे पट्टियाँ, जंतुनाशक पानी आदि सामान दिया और उन बीमारो के पास ले गया। बीमार हमे देखकर खुश हो गये। गोरे सिपाही जालियो मे से झाँक झाँककर हमे घाव साफ करने से रोकने का प्रयत्न करते, हमारे न मानने पर खीझते और जुलूओ के बारे मे जिन गंदे शब्दो का उपयोग करते उनसे तो कान के कीड़े झड़ जाते थे।


धीरे-धीर गोरे सिपाहियो के साथ भी मेरा परिचय हो गया और उन्होने मुझे रोकना बन्द कर दिया। इस सेना मे सन् 1896 मे मेरा घोर विरोध करने वाले कर्नल स्पार्क्स औऱ कर्नल वायली थे। वे मेरे इस कार्य से आश्चर्य चकित हो गये। मुझे खास तौर से बुलाकर उन्होने मेरा उपकार माना। वे मुझे जनरल मेकेंजी के पास भी ले गये और उनसे मेरा परिचय कराया।

पाठक यह न समझे कि इनमे से कोई पेशेवर सिपाही थी। कर्नल वायली प्रसिद्ध वकील थे। कर्नल स्पार्क्स कसाईखाने के मशहूर मालिक थे। जनरल मेकेंजी नेटाल के प्रसिद्ध किसान थे। वे सब स्वयंसेवक थे और स्वयंसेवको के नाते ही उन्होने सैनिक शिक्षा और अनुभव प्राप्त किया था।

कोई यह न माने कि जिन बीमारो के सेवा शुश्रूषा का काम हमे सौपा गया था , वे किसी लड़ाई मे घायल हुए थे। उनमे से एक हिस्सा उन कैदियो का थास जो शक मे पकड़े गये थे। जनरल ने उन्हे कोड़ो की सजा दी थी। इन कोड़ो की मार से जो घाव पैदा हुए थे, वे सार-संभाल के अभाव मे पक गये थे। दूसरा हिस्सा उन जुलूओ का था , जो मित्र माने जाते थे। इन मित्रो को सिपाहियो ने भूल से घायल किया था , यद्यपि उन्होने मित्रता सूचक चिह्न धारण कर रखे थे।

इसके अतिरिक्त स्वयं मुझे गोरे सिपाहियो लिए भी दवा लाने और उन्हे दवा देने का काम सौपा गया था। डॉ. बूथ के छोटे से अस्पताल मे मैने एक साल कर इस काम की तालीम ली थी, इससे यह काम मेरे लिए सरल हो गया था। इस काम के कारण बहुत से गोरो के साथ मेरा अच्छा परिचय हो गया था।

पर लड़ाई मे व्यस्त सेना किसी एक जगह पर तो बैठी रह ही नही सकती थी। जहाँ से संकट के समाचार आते वही वह दौड जाती थी। उसमे बहुत से तो घुडसवार ही थे। केन्द्र स्थान से हमारी छावनी उठती कि हमे उसके पीछ पीछ अपनी डोलियाँ कन्धे पर उठाकर चलना पड़ता था। दो-तीन मौको पर तो एक ही दिन मे चालीस मील की मंजिल तय करनी पड़ी। यहां भी हमें तो केवल प्रभु का ही काम मिला। जो जुलू मित्र भूल से घायल हुए थे उन्हें डोलियो मे उठाकर छावनी तक पहुँचाना था और वहाँ उनकी शुश्रूषा करनी थी।

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