जिन दिनों मैने दूध और अनाज को छोड़कर फलाहार का प्रयोग शुरू किया, उन्हीं दिनो संयम के हेतु से उपवास भी शुरू किये। मि. केलनबैक इसमे भी मेरे साथ हो गया। पहले मै उपवास केवल आरोग्य की दृष्टि से करता था। एक मित्र की प्रेरणा से मैने समझा कि देह दमन के लिए उपवास की आवश्यकता है। चूंकि मै वैष्णव कुटुम्ब मे पैदा हुआ था और चूंकि माताजी कठिन व्रतो का पालन करनेवाली थी , इसलिए देश मे एकादशी आदि व्रत मैने किये थे। किन्तु वे देखा-देखी अथवा माता-पिता को प्रसन्न करने के विचार से किये थे। ऐसे व्रतों से कई लाभ होता है , इसे न तो मै उस समय समझा था, न मानता ही था। किन्तु उक्त मित्र को उपवास करते देखकर और अपने ब्रह्मचर्य व्रत को सहारा पहुँचाने के विचार से मैने उनका अनुकरण करना शुरू किया और एकादशी के दिन उपवास रखने का निश्चय किया। साधारणतः लोग एकादशी के दिन दूध और फल खाकर समझते है कि उन्होंने एकादशी की है। पर फलाहारी उपवास तो अब मै रोज ही करने लगा था। इसलिए मैने पानी पानी की छूट रखकर पूरे उपवास शुरू किये।
उपवास के प्रयोगो के आरम्भिक दिनों मे श्रावण का महीना पड़ता था। उस साल रमजान और श्रावण दोनो एकसाथ पड़े थे। गाँधी कुटुम्ब मे वैष्णव व्रतों के साथ शैव व्रत भी पाले जाते थे। कुटुम्ब के लोग वैष्णव देवालयो की भाँति ही शिवालयो मे भी जाते थे। श्रावण महीने का प्रदोष-व्रत कुटुम्ब मे कोई-न-कोई प्रतिवर्ष करता ही था। इसलिए इस श्रावण मास का व्रत मैने रखना चाहा।
इस महत्त्वपूर्ण प्रयोग का प्रारम्भ टॉल्सटॉय आश्रम मे हुआ था। वहाँ सत्याग्रही कैदियो के कुटुम्बो की देखरेख करते हुए कैलनबैक और मै दोनो रहते थे। उनमे बालक और नौजवान भी थे। उनके लिए स्कूल चलता था। इन नौजवानो मे चार-पाँच मुसलमान थे। इस्लाम के नियमों का पालन करने मे मै उनकी मदद करता था और उन्हें बढावा देता था। नमाज वगैरा की सहूलियत कर देता था। आश्रम मे पारसी और ईसाई भी थे। इन सबको अपने-अपने धर्मो के अनुसार चलने के लिए प्रोत्साहित करने का आश्रम मे नियम था। अतएव मुसलमान नौजवानो को मैने रोजे रखने के लिए उत्साहित किया। मुझे तो प्रदोष-व्रत करना ही था। किन्तु मैने हिन्दुओ , पारसियों और ईसाईयो को भी मुसलमान नौजवान का साथ देने की सलाह दी। मैने उन्हें समझाया कि संयम के सब के साथ सबयोग करना स्तुत्य है। बहुतेरे आश्रमवासियों ने मेरी बात मान ली। हिन्दू और पारसी मुसलमान साथियो का पूरा-पूरा अनुकरण नही करते थे, करना आवश्यक भी न था। मुसलमान सूरज डूबने की राह देखते थे, जब कि दूसरे उससे पहले खा लिया करते थे, जिससे वे मुसलमानो को परोस सके और उनके लिए विशेष वस्तुएँ तैयार कर सकें। इसके सिवा , मुसलमान जो सरही (वह हलका भोजन जो रमजान के दिनो मे रोजा रखने वाले मुसलमान कुछ रात रहते कर लेते है ) खाते थे, उसमे दूसरो के सम्मिलित होने की आवश्यकता न थी। और मुसलमान दिन मे पानी भी न पीते थे, जबकि दूसरे लोग छूट से पानी पीते थे।
इस प्रयोग का एक परिणाम यह हुआ कि उपवास और एकाशन का महत्तव सब समझने लगे। एक-दूसरे के प्रति उदारता और प्रेमभाव मे वृद्धि हुई। आश्रम मे अन्नाहार का नियम था। यह नियम मेरी भावना के कारण स्वीकार किया गया था , यह बात मुझे यहाँ आभारपूर्वक स्वीकार करनी चाहिये। रोजे के दिनों मे मुसलमानो को माँस का त्याग कठिन प्रतीत हुआ होगा , पर नवयुवको में से किसी ने मुझे उसका पता नही चलने दिया। वे आनन्द और रस-पूर्वक अन्नाहार करते थे। हिन्दू बालक आश्रम मे अशोभनीय न लगनेवाले स्वादिष्ठ भोजन भी उनके लिए तैयार करते थे।
अपने उपवास का वर्णन करते हुए यह विषयान्तर मैने जान-बूझकर किया है , क्योकि इस मधुर प्रसंग का वर्णन मै दूसरी जगह नही कर सकता था। और, इस विषयान्तर के साथ मैने अपनी एक आदत की भी चर्चा कर ली है। अपने विचार मे मै जो अच्छा काम करता हूँ , उसमे अपने साथ रहनेवालो को सम्मिलित करने का प्रयत्न मै हमेशा करता हूँ। उपवास औऱ एकाशन के प्रयोग नये थे, पर प्रदोष और रमजान के बहाने मैने सबको इसमे फाँद लिया।
इस प्रकार सहज ही आश्रम मे संयम का वातावरण बढ़ा। दूसरे उपवासो और एकाशनो मे भी आश्रमवासी सम्मिलित होने लगे। और, मै मानता हूँ कि इसका परिणाम शुभ निकला। सबके हृदयो पर संयम को कितना प्रभाव पड़ा, सबके विषयो को संयत करने में उपवास आदि ने कितना हाथ बँटाया , यह मै निश्चय पूर्वक नही कह सकता। पर मेरा अनुभव यह है कि उपवास आदि से मुझ पर तो आरोग्य और विषय-नियमन की दृष्टि से बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। फिर भी मै यह जानता हूँ कि उपवास आदि से सब पर इस तरह का प्रभाव पड़ेगा ही , ऐसा कोई अनिवार्य नियम नही है। इन्द्रय दमन के हेतु से किये गये उपवास से ही विषयो को संयत करने का परिणाम निकल सकता है। कुछ मित्रो का यह अनुभव भी है कि उपवास की समाप्ति पर विषयेच्छा औऱ स्वाद तीव्र हो जाते है। मतलब यह कि उपवास के दिनो मे विषय को संयत करने और स्वाद को जीतने की सतत भावनी बनी रहने पर ही उसका शुभ परिणाम निकल सकता है। यह मानना निरा भ्रम है कि बिना किसी हेतु के और बेमन किये जानेवाले शारीरिक उपवास का स्वतंत्र परिणाम विषय-वासना को संयत करने मे आयेगा। गीताजी के दूसरे अध्याय का यह श्लोक यहाँ बहुत विचारणीय है :
विषया विनिर्वते निराहारस्य देहिनः। रसवर्जं रसोडप्पस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।
(उपवासी के विषय उपवास के दिनो मे शान्त होते है, पर उसका रस नही जाता। रस तो ईश्वर-दर्शन से ही -- ईश्वर प्रसाद से ही शान्त होता है।)
तात्पर्य यह है कि संयमी के मार्ग मे उपवास आदि एक साधन के रूप मे है , किन्तु ये ही सब कुछ नही है। और यदि शरीर के उपवास के साथ मन का उपवास न हो तो उसकी परिणति दंभ मे होती है और वह हानिकारक सिद्ध होता है।