इस प्रकार धर्म समझकर मै युद्ध मे सम्मिलित तो हुआ , पर मेरे नसीब मे न सिर्फ उसमे सीधे हाथ बँटाना नही आया, बल्कि ऐसे नाजुक समय मे सत्याग्रह करने की नौबत आ गयी।
मै लिख चुका हूँ कि जब हमारे नाम मंजूर हुए और रजिस्टर मे दर्ज किये गये , तो हमें पूरी कवायद सिखाने के लिए एक अधिकारी नियुक्त किया गया। हम सब का ख्याल यह था कि यह अधिकारी युद्ध की तामील देने भर के लिए हमारे मुखिया थे, बाकी सब मामलो मे दल का मुखिया मै था। मै अपने साथियो के प्रति जिम्मेदार था और साथी मेरे प्रति , अर्थात् हमारा ख्याल यह था कि अधिकारी को सारा काम मेरे द्वारा लेना चाहिये। पर जैसे पूत के पाँव पालने मे नजर आते है , वैसे ही उस अधिकारी की दृष्टि पहले ही दिन से हमे कुछ और ही मालूम हुई। साराबजी बड़े होशियार थे। उन्होने मुझे सावधान किया , 'भाई, ध्यान रखिये। ऐसा प्रतीत होता है कि ये सज्जन यहां अपनी जहाँगीरी चलाना चाहते है। हमे उनके हुक्म की जरूरत नही। हम उन्हें शिक्षक मानते है। पर मै तो देखता हूँ कि ये जो नौजवान आये है , वे मानो हम पर हुक्म चलाने आये है।' ये नौजवान ऑक्सफर्ड के विद्यार्थी थे और हमे सिखाने के लिए आये थे। बड़े अधिकारी ने उन्हें हमारे नायब-अधिकारियो के रूप मे नियुक्त कर दिया था। मै भी सोराबजी की कहीं बात को देख चुका था। मै भी सोराबजी को सांत्वना दी और निश्चित रहने को कहा। पर सोराबजी झट मानने वाले आदमी नही थे।
उन्होने हँसते-हँसते कहा ,'आप भोले है। ये लोग मीठी-मीठी बाते करके आपको ठगेंगे और फिर जब आपकी आँख खुलेगी तब आप कहेंगे -- चलो , सत्याग्रह करे। फिर आप हमे मुशीबत में डालेंगे। '
मैने जवाब दिया , 'मेरा साथ करके सिवा मुसीबत के आपने किसी दिन और कुछ भी अनुभव किया है ? और, सत्याग्रह तो ठगे जाने को ही जन्म लेता है ? अतएव भले ही यह साहब मुझे ठगे। क्या मैने आपसे हजारो बार यह नही कहा है कि अन्त मे तो ठगने वाला ही ठगा जाता है ?'
सोराबजी खिलखिलाकर हँस पड़े, 'अच्छी बात है , तो ठगाते रहिये। किसी दिन सत्याग्रह मे आप भी मरेंगे और अपने पीछे हम जैसो को भी ले डूबेंगे।'
इन शब्दो का स्मरण करते हुए मुझे स्व. मिस हॉब्हाउस के वे शब्द याद आ रहे है , जो असहयोग आन्दोलन के अवसर पर उन्होंने मुझे लिखे थे , 'सत्य के लिए किसी दिन आपकी फाँसी पर चढना पड़े , तो मुझे आश्चर्य न होगा। ईश्वर आपको, सीधे ही रास्ते पर ले जाय और आपकी रक्षा करे। '
सोराबजी के साथ ऊपर की यह चर्चा तो उक्त अधिकारी के पदारूढ़ होने के बाद आरंभिक समय मे हूई था। आरम्भ और अन्त के बीच का अन्तर कुछ ही दिनो का था। किन्तु इसी अर्से मे मेरी पसलियो मे सख्त सूजन आ गयी। चौदह दिन के उपवास के बाद मेरा शरीर ठीक तौर से संभल नही पाया था, पर कवायद मे मै पूरी तरह हिस्सा लेने लगा था और प्रायः घर से कवायद की जगह तक पैदल जाता था। यह फासला दो मील का तो जरूर था। इस कारण से आखिर मुझे खटिया का सेवन करना पड़ा।
अपनी इस स्थिति मे मुझे कैम्प मे जाना होता था। दूसरे लोग वहाँ रह जाते थे और मै शाम को वापस घर लौट जाता था। यहाँ सत्याग्रह का प्रसंग खड़ा हो गया।
अधिकारी ने अपना अधिकार चलाना शुरू किय। उन्होने स्पष्ट कह दिया कि वे सब मामलो मे हमारे मुखिया है। अपनी मुख्तारी के दो-चार पदार्थ-पाठ भी उन्होने हमे पास पहुँचे। वे इस जहाँगीरी को बरदाश्त करने के लिए तैयार न थे। उन्होने कहा, 'हमे सब हुक्म आपके द्वारा ही मिलने चाहिये। अभी तो हम लोग शिक्षण-शिविर मे ही है और हर मामले मे बेहूदे हुक्म निकलते रहते है। उन नौजवानो मे और हममे अनेक बातो मे भेद बरता जा रहा है। यह सब सह्य नही है। इसकी तुरन्त सफाई होनी ही चाहिये , नही तो हमारा काम चौपट हो जायेगा। ये विद्यार्थी और दूसरे लोग, जो इस काम मे सम्मिलित हुए है, एक भी बेहूदा हुक्म बरदाश्त करने के लिए तैयार नही है। आत्म-सम्मान की वृद्धि के लिए उठाये हुए काम मे अपमान ही सहन करना पड़े यह नही हो सकता। '
मै अधिकारी के पास गया। अपने पास आयी हुई सब शिकायते मैने उन्हें एक पत्र द्वारा लिखित रूप मे देने को कहा और साथ ही अपने अधिकार की बात कही। उन्होने कहा, 'शिकायत आपके द्वारा नही होनी चाहिये। शिकायत तो नायब-अधिकारियो द्वारा सीधी मेरे पास आनी चाहिये।'
मैने जवाब मे कहा, 'मुझे अधिकार माँगने की लालसा नही है। सैनिक दृष्टि से तो मै साधारण सिपाही कहा जाऊँगा, पर हमारी टुकड़ी के मुखिया के नाते आपको मुझे उसका प्रतिनिधि मानना चाहिये।' मैने अपने पास आयी हुई शिकायते भी बतायी, 'नायब-अधिकारी हमारी टुकड़ी से पूछे बिना नियुक्त किये गये है और उनके विषय मे बड़ा असंतोष फैला हुआ है। अतएव वे हटा दिये जाये और टुकड़ी को अपने नायब-अधिकारी चुनने का अधिकार दिया जाये।'
यह बात उनके गले नही उतरी। उन्होने मुझे बताया कि इन नायब-अधिकारियो को टुकड़ी चुने, यह बात ही सैनिक नियम के विरुद्ध है , और यदि वे हटा दिये जाये तो आज्ञा-पालन का नाम-निशान भी न रह जाये य़
हमने सभा की। सत्याग्रह के गम्भीर परिणाम कह सुनाये। लगभग सभी ने सत्याग्रह की शपथ ली। हमारी सभा ने यह प्रस्ताव पास किया कि यदि वर्तमान नायब-अधिकारी हटाये न जाये और दल को नये अधिकारी पसन्द न करने दिये जाये , तो हमारी टुकड़ी कवायद मे जाना और कैम्प मे जाना बन्द कर देगी।
मैने अधिकारी को एक पत्र लिखकर अपना तीव्र असंतोष व्यक्त किया और बताया कि मुझे अधिकार नही भोगना है , मुझे तो सेवा करनी है और यह काम सांगोपांग पूरा करना है। मैने उन्हें यह भी बतलाया कि बोअर-युद्ध मे मैने कोई अधिकार नही लिया था , फिर भी कर्नल गेलवे और हमारी टुकड़ी के बीच कभी किसी तकरार की नौबत नही आयी थी, और वे अधिकारी मेरी टुकड़ी की इच्छा मेरे द्वारा जानकर ही सारी बाते करते थे। अपने पत्र के साथ मैने हमारी टुकड़ी द्वारा स्वीकृत प्रस्ताव की एक नकल भेजी।
अधिकारी पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा। उन्हे तो लगा कि हमारी टुकड़ी ने सभा करके प्रस्ताव पास किया, यही सैनिक नियम का गंभीर भंग था।
इसके बाद मैने भारत--मंत्री को एक पत्र लिखकर सारी वस्तुस्थिति बतायी और साथ मे हमारी सभा का प्रस्ताव भेजा। भारत-मंत्री ने मुझे जवाब मे सूचित किया कि दक्षिण अफ्रीका की स्थिति भिन्न थी। यहाँ तो टुकड़ी के बडे अधिकारी को नायब-अधिकारी चुनने का हक है , फिर भी भविष्य मे वह अधिकारी आपकी सिफारिशो का ध्यान रखेगी।
इसके बाद तो हमारे बीच बहुत पत्र-व्यवहार हुआ, पर वे सारे कटु अनुभव देकर मै इस प्रकरण को बढाना नही चाहता।
पर इतना कहे बिना तो रहा ही नही जा सकता कि ये अनुभव वैसे ही थे जैसे रोज हिन्दुस्तान मे होते रहते है। अधिकारी ने धमकी से , युक्ति से, हममे फूट डाली। कुछ लोग शपथ ले चुकने के बाद भी कल अथवा बल के वश हो गये। इतने मे नेटली अस्पताल मे अनसोची संख्या मे घायल सिपाही आ पहुँचे औऱ उनकी सेवा-शुश्रूषा के लिए हमारी समूची टुकड़ी की आवश्यकता आ पड़ी। अधिकारी जिन्हे खीच पाये थे, वे तो नेटली पहुँच गये। पर दूसरे नही गये , यह इंडिया आफिस को अच्छा न लगा। मै तो बिछौने पर पड़ा था। पर टुकडी के लोगो से मिलता रहता था। मि. रॉबर्ट्स से मेरी अच्छी जान-पहचान हो गयी थी। वे मुझसे मिलने आये और बाकी के लोगो को भी भेजने का आग्रह किया। उनका सुझाव था कि वे अलग टुकड़ी के रूप मे जाये। नेटली अस्पताल मे तो टुकड़ी को वहाँ के मुखिया के अधीन रहना होगा , इसलिए उसकी मानहानि नही होगी। सरकार को उनके जाने से संतोष होगा और भारी संख्या मे आये हुए घायलो की सेवा-शुश्रूषा होगी। मेरे साथियो को और मुझे यह सलाह पसन्द आयी और बचे हुए विद्यार्थी भी नेटली गये। अकेला मै ही हाथ मलता हुआ बिछौने पर पड़ा रहा। (सचिन सत्तवन)