हिन्दुस्तान आने के बाद मेरे जीवन की धारा किस तरह प्रवाहित हुई , इसका वर्णन करने से पहले मैने दक्षिण अफ्रीका के अपने जीवन के जिस भाग को जान-बूझकर छोड़ दिया था , उसमे से कुछ यहाँ देना आवश्यक मालूम होता है। कुछ वकील मित्रो ने वकालत के समय के और वकील के नाते मेरे संस्मरणो की माँग की है। ये संस्मरण इतने अधिक है कि उन्हें लिखने बैठूँ , तो उन्ही की एक पुस्तक तैयार हो जाय। ऐसे वर्णन मेरी अंकित मर्यादा के बाहर जाते है। किन्तु उनमे से कुछ , जो सत्य से संबन्ध रखनेवाले है , यहाँ देना शायद अनुचित नही माना जायेगा।
जैसा कि मुझे याद है , मै यह तो बता चुका हूँ कि वकालत के धंधे मे मैने कभी असत्य का प्रयोग नहीं किया और मेरी वकालत का बडा भाग केवल सेवा के लिए ही अर्पित था और उसके लिए जेबखर्च के अतिरिक्त मै कुछ नही लेता था। कभी कभी जेबखर्च भी छोड़ देता था। मैने माना था कि इतना बताना इस विभाग के लिए पर्याप्त होगा। पर मित्रो की माँग उससे आगे जाती है। वे मानते है कि यदि मै सत्यरक्षा के प्रसंगो का थोडा भी वर्णन दे दूँ , तो वकीलो को उसमे से कुछ जानने को मिल जायेगा।
विद्यार्थी अवस्था मे भी मे यह सुना करता था कि वकालक का धंधा झूठ बोले बिना चल ही नही सकता। झूठ बोलकर मै न तो कोई पद लेना चाहता था और न पैसा कमाना चाहता था। इसलिए इन बातो का मुझ पर कोई प्रभाव नही पड़ता था।।
दक्षिण अफ्रीका मे इसकी परीक्षा तो बहुत बार हो चुकी थी। मै जानता था कि प्रतिपक्ष के साक्षियो को सिखाया-पढाया गया है औक यदि मै मुवक्किलो को अथवा साक्षी को तनिक भी झूठ न बोलने के लिए प्रोत्साहित कर दूँ , तो मुवक्किल के केस मे कामयाबी मिल सकती है। किन्तु मैने हमेशा इस लालच को छोड़ा है। मुझे ऐसी एक घटना याद है कि जब मुवक्किल का मुकदमा जीतने के बाद मुझे यह शक हुआ कि मुवक्किल ने मुझे धोखा दिया है। मेरे दिल मे भी हमेशा यही ख्याल बना रहता था कि अगर मुवक्किल का केस सच्चा हो तो उसमे जीत मिले और झूठे हो तो उनकी हार हो। मुझे याद नही पड़ता कि फीस लेते समय मैने कभी हार-जीत के आधार पर फीस की दरे तय की हो। मुवक्किल होर या जीते , मै तो हमेशा अपना मेहनताना ही माँगता था और जीतने पर भी उसी की आथा रखता था। मुवक्किल को मै शुरू से ही कह देता था ,'मामला झूठा हो तो मेरे पास मत आना। साक्षी को सिखाने पढाने का काम कराने की मुझ से कोई आशा न रखना।' आखिर मेरी साख तो यही कायम हुई थी कि झूठे मुकदमे मेरे पास आते ही नही। मेरे कुछ ऐसे मुवक्किल भी थे, जो अपने सच्चे मामले तो मेरे पास लाते थे और जिनमे थोड़ी भी खोट-खराबी पास ले जाते थे।
एक अवसर ऐसा भी आया , जब मेरी बहुत बड़ी परीक्षा हुई। मेरे अच्छे से अच्छे मुवक्किलो मे से एक का यह मामला था। उसमे बहीखातो की भारी उलझने थी। मुकदमा बहुत ल्मबे समय तक चका था। उसके कुछ हिस्से कई अदालतो मे गये थे। अन्त मे अदालत द्वारा नियुक्त हिसाब जानने वाले पंच को उसका हिसाबी हिस्सा सौपा गया था। पंच के फैसले मे मेरे मुवक्किल की पूरी जीत थी। किन्तु उसके हिसाब मे एक छोटी परन्तु गंभीर भूल रह गया था। जमा-खर्च की रकम पंच के दृष्टिदोष से इधर की उधर ले ली गयी थी। प्रतिपक्षी ने पंच के इस फैसले को रद्द करने की अपील की थी। मुवक्किल की ओर से मै छोटा वकील था। बड़े वकील ने पंच की भूल देखी थी, पर उनकी राय थी कि पंच की भूल कबूल करना मुवक्किल के लिए बंधनरूप नही है। उनका यह स्पष्ट मत था कि ऐसी किसी बात को स्वीकार करने के लिए कोई वकील बँधा हुआ नही है , जो उसके मुवक्किल के हित के विरुद्ध जाय। मैने कहा, 'इस मुकदमे मे रही हुई भूल स्वीकार की ही जानी चाहिये।'
बड़े वकील ने कहा, 'ऐसा होने पर इस बात का पूरा डर है कि अदालत सारे फैसले को ही रद्द कर दे और कोई होशियार वकील मुवक्किल को ऐसी जोखिम ने नही डालेगा। मै तो यह जोखिम उठाने को कभी तैयार न होऊँगा। मुकदमा फिर से चलाना पड़े तो मुवक्किल को कितने खर्च मे उतरना होगा ? और कौन कह सकता है कि अंतिन परिणाम क्या होगा ?'
इस बातचीत के समय मुवक्किल उपस्थित थे।
मैने कहा, 'मेरा तो ख्याल है कि मुवक्किल को और हम दोनो को ऐसी जोखिमे उठानी ही चाहिये। हमारे स्वीकार न करने पर भी अदालत भूलभरे फैसले को भूल मालूम हो जाने पर बहाल रखेगी, इसका क्या भरोसा है ? और भूल सूधारने की कोशिश मे मुवक्किल को नुकसान उठाना पड़े, तो क्या हर्ज होगा। '
बड़े वकील ने कहा, 'लेकिन हम भूल कबूल करें तब न ?'
मैने जवाब दिया, 'हमारे भूल न स्वीकार करने पर भी अदालत उस भूल के नही पकड़ेगी अथवा विरोधी पक्ष उसका पता नही लगायेगा, इसका भी क्या भरोसा है ?'
बड़े वकील ने ढृढता पूर्वक कहा, 'तो इस मुकदमे मे आप बहस करेंगे ? भूल कबूल करने की शर्त पर मै उसमे हाजिर रहने को तैयार नही हूँ।'
मैने नम्रता पूर्वक कहा, 'यदि आप न खड़े हो और मुवक्किल चाहे, तो मै खडा होने को तैयार हूँ। यदि भूल कबूल न की जाय, तो मै मानता हूँ कि मुकदमे मे काम करना मेरे लिए असंभव होगा।'
इतना कहकर मैंने मुवक्किल की तरफ देखा। मुवक्किल थोड़े से परेशान हुए। मै तो मुकदमो मे शुरू से ही था। मुवक्किल का मुझ पर पूरा विश्वास था। वे मेरे स्वभाव से भी पूरी तरह परिचित थे। उन्होने कहा, 'ठीक है , तो आप ही अदालत मे पैरवी कीजिये। भूल कबूल कर लीजिये। भाग्य मे हारना होगा तो हार जायेगे। सच्चे का रखवाला राम तो है ही न ?'
मुझे खुशी हुई। मैने दूसरे जवाब की आशा न रखी थी। बड़े वकील ने मुझे फिर चेताया। उन्हें मेरे 'हठ' के लिए मुझ पर तरस आया , लेकिन उन्होंने मुझे धन्यववाद भी दिया।
अदालत मे क्या हुआ इसकी चर्चा आगे होगी।