इस बीच और एक चिट्ठी आ पहुँची -
'तुमने मेरे पत्र का जवाब नहीं दिया? अच्छा ही किया, सही बात लिखी तो नहीं जाती; तुम्हारा जो जवाब है, उसे मैंने मन में समझ लिया। भक्त जब अपने देवता को पुकारता है तो देवता क्या जबान से कुछ कहते हैं? लगता है, दुखिया की तुलसी को चरणों में जगह मिल गई।'
'लेकिन भक्त की पूजा से कहीं शिव की तपस्या टूटती हो तो मेरे हृदय के देवता, नाराज न होना! वरदान दो या न दो, आँखें उठा कर निहारो या न निहारो, जान सको या न जान सको - पूजा किए बिना भक्त की दूसरी गति नहीं। इसलिए आज भी दो पंक्तियाँ लिख भेजती हूँ - हे मेरे पत्थर के देवता! तुम अडिग ही रहो!'
महेंद्र फिर जवाब लिखने बैठा। लेकिन पत्र को आशा को लिखते हुए कलम की नोक पर जवाब विनोदिनी का आ जाता। चालाकी से इधर-उधर की हाँकते उससे लिखते हुए नहीं बनता। लिख-लिख कर बहुत-से पन्ने फाड़ डाले। एक लिखा भी गया तो उसे लिफाफे में भर कर आशा का नाम लिखते हुए अचानक किसी ने उसकी पीठ पर चाबुक जमाया- 'बेईमान! विश्वस्त बालिका से इस तरह दगा!' महेंद्र ने पत्र को टुकड़े करके फेंक दिया और बाकी रात मेज पर दोनों हथेलियों में मुँह छिपाए अपने को मानो अपनी ही नजर से छिपाने की कोशिश करता रहा।
तीसरा पत्र! 'रूठना जो कतई नहीं जानता, वह भी क्या प्यार करता है? अपने प्यार को अनादर और अपमान से बचाए न रख सकूँ तो वह तुम्हें दूँगी कैसे?'
'शायद तुम्हारे मन को ठीक-ठीक समझ नहीं पाई हूँ, तभी इतनी हिम्मत कर सकी हूँ। तुम छोड़ गए तो भी मैंने ही बढ़ कर चिट्ठी लिखी; जब तुम चुप हो गए थे, तब भी मन की कह गई हूँ। मगर तुम्हारे साथ अगर गलती की है, तो वह भी क्या मेरा ही कसूर है? शुरू से आखिर तक सारी बातें एक बार दुहरा कर देखो तो सही कि मैंने जो कुछ समझा था, वह तुम्हीं ने नहीं समझाया क्या?
'चाहे जो हो, गलत हो या सही, जो लिखा है, वह मिटने का नहीं, जो दिया है, वह वापिस नहीं ले सकूँगी, यही शिकायत है। छि:-छि: ऐसी शर्म भी नारी के नसीब में आती है। लेकिन इससे यह हर्गिज न समझना कि जो प्यार करती है, वह अपने प्यार को बार-बार अपमानित कर सकती है। साफ बताओ कि मेरी चिट्ठी की चाहत नहीं हो तो बताओ और इसका जवाब न मिला तो यहीं तक बस।'
महेंद्र से और न रहा गया। मन में बोला - 'खूब नाराज हो कर ही घर लौट रहा हूँ। विनोदिनी का खयाल है, मैं उसे भूलने के लिए घर से भाग खड़ा हुआ हूँ।' उसकी इस हेकड़ी को भुलाने के लिए ही महेंद्र ने उसी दम घर लौट जाने का संकल्प किया।
इतने में बिहारी आ गया। उसे देखते ही महेंद्र के मन की उमंग दुगुनी हो गई। अब तक संदेहों के चलते बिहारी से उसे ईर्ष्या होती रही थी और दोनों में गाँठ पड़ती जा रही थी। चिट्ठी पढ़ने के बाद और ज्यादा आवेग में उसने उसकी आगवानी की।
लेकिन बिहारी का चेहरा आज उतरा हुआ था। महेंद्र ने सोचा, 'बेचारे ने इस बीच विनोदिनी से जरूर मुलाकात की होगी और वहाँ से ठोकर खा कर आया है!' उसने पूछा - 'क्यों भाई, इस बीच मेरे घर गए थे कभी?'
बिहारी ने कहा - 'वहीं से हो कर आ रहा हूँ अभी।'
मन-ही-मन बिहारी की पीड़ा का अनुमान करके महेंद्र को अच्छा न लगा। उसने मन में कहा - 'अभागा! किसी महिला ने कभी उसे नहीं चाहा।' फिर भी उसने बातचीत शुरू करते हुए पूछा - 'कैसे हैं सब?'
इस बात का जवाब देने के बजाय वह बोला - 'घर छोड़ कर अचानक यहाँ!'
महेंद्र ने कहा - 'इधर लगातार नाइट-डयूटी पड़ रही है - वहाँ दिक्कत हो रही थी।'
बिहारी बोला - 'नाइट-डयूटी तो इसके पहले भी पड़ी है, मगर घर छोड़ते तो नहीं देखा कभी?'
महेंद्र ने हँस कर कहा - 'क्यों, कोई शक हो रहा है।'
बिहारी बोला - 'मजाक न करो। तुम्हें कहीं नहीं रहना है। चलो इसी वक्त घर चलो।'
घर जाने को तो वह तैयार ही बैठा था; मगर बिहारी ने आग्रह किया तो वह मना कर गया, गोया घर जाने की उसे जरा भी इच्छा नहीं। बोला - 'पागल हुए हो, मेरे एक साल पर पानी फिर जाएगा।'
बिहारी ने कहा - 'देखो महेंद्र भैया, मैं तुम्हें तब से देखता आया हूँ, जब तुम छोटे-से थे। मुझे फुसलाने की कोशिश न करो! तुम जुल्म कर रहे हो।'
महेंद्र - 'जुल्म कर रहा हूँ, किस पर, जज साहब!'
बिहारी नाराज हो कर बोला - 'तुम सदा दिल की तारीफ करते आए हो, अब तुम्हारा दिल कहाँ गया?'
महेंद्र - 'फिलहाल तो अस्पताल में है।'
बिहारी - 'चुप रहो! तुम यहाँ हँस-हँस कर मुझसे मजाक कर रहे हो और वहाँ तुम्हारी आशा तुम्हारे कमरों में रोती फिर रही है।'
आशा के रोने की बात सुन कर अचानक महेंद्र को धक्का लगा। अपने नए नशे में उसे इसकी सुध न थी कि दुनिया में और भी किसी का सुख-दु:ख है। वह चौंका! पूछा - 'आशा क्यों रो रही है?'
बिहारी ने अपनी आँखों जो कुछ देखा, आदि से अंत तक कह सुनाया। उसे याद आ गया कैसे विनोदिनी से लिपट कर आशा की आँखें बह रही थीं। उसका गला रुँध गया। महेंद्र को खूब पता था कि आशा का मन वास्तव में किधर है!
महेन्द्र बोला - 'खैर चलो। गाड़ी बुला लो!'