दूसरे दिन तड़के ही महेंद्र बिहारी के यहाँ पहुँच गया। देखा, दरवाजे पर कई बैलगाड़ियों पर नौकर-चाकर सामान लाद रहे हैं। महेंद्र ने भज्जो से पूछा - 'माजरा क्या है?' भज्जो ने कहा - 'बाबू ने बाली में गंगा के किनारे एक बगीचा लिया है। यह सब वहीं जा रहा है।' महेंद्र ने पूछा - 'बाबू घर पर हैं क्या?' भज्जो ने कहा - 'वे सिर्फ दो दिन कलकत्ता रुक कर कल बगीचे चले गए।'
सुनते ही महेंद्र का मन आशंका से भर गया। उसकी गैरहाजिरी में बिहारी से विनोदिनी की भेंट हुई है, इस पर उसे कोई संदेह न रहा। उसने कल्पना की आँखों से देखा, विनोदिनी के डेरे के बाहर भी बैलगाड़ियाँ लद रही हैं। उसे यह निश्चित-सा लगा कि इसलिए मुझ नासमझ को विनोदिनी ने डेरे से दूर ही रखा है।
पल की भी देर न करके महेंद्र गाड़ी पर सवार हुआ और कोचवान से हाँकने को कहा। बीच-बीच में कोचवान को इसके लिए गालियाँ सुनाईं कि घोड़े तेज नहीं चल रहे हैं। गली के अंदर डेरे के दरवाजे पर पहुँच कर देखा, यात्रा की कोई तैयारी नहीं है। डर लगा, वहीं यह काम पहले ही न हो चुका हो। तेजी से किवाड़ के कड़े खटखटाए। अंदर से जैसे ही बूढ़े नौकर ने दरवाज़ा खोला, महेंद्र ने पूछा - 'सब ठीक तो है?'
उसने कहा - 'जी हाँ, ठीक ही है।'
ऊपर जा कर महेंद्र ने देखा, विनोदिनी नहाने गई है। उसके सूने सोने के कमरे में जा कर महेंद्र विनोदिनी के रात के बिस्तर पर लोट गया, दोनों हाथों से खींच कर चादर को छाती के पास ले आया और पहुँच कर उस पर मुँह रखते हुए बोला - 'बेरहम, निर्दयी!'
हृदय के उच्छ्वास को इस तरह निकल कर वह सेज से उठ कर विनोदिनी का इंतजार करने लगा। कमरे में चहलकदमी करते हुए देखा, फर्श के बिछौने पर एक अखबार खुला पड़ा है। समय काटने के खयाल से कुछ अनमना-सा हो कर अखबार उठा कर देखा। जहाँ पर उसकी नजर पड़ी, वहीं पर बिहारी का नाम था। उसका मन बात-की-बात में अखबार देखते-देखते वहीं पर टूट पड़ा। किसी ने संपादक के नाम पत्र लिखा था, 'मामूली तनखा पाने वाले गरीब किरानियों के बीमार होने पर नि:शुल्क चिकित्सा और सेवा के लिए बिहारी ने बाली में एक बगीचा खरीदा है, वहाँ एक साथ पाँच आदमियों के लिए प्रबंध हो चुका है, आदि-आदि।'
यह खबर विनोदिनी ने पढ़ी, पढ़ कर उसके मन में क्या हुआ होगा! बेशक उसका मन उधर ही भाग-भाग कर रहा होगा। न केवल इसीलिए बल्कि महेंद्र का जी इस वजह से और भी छटपटाने लगा कि बिहारी के इस संकल्प से उसके प्रति विनोदिनी की भक्ति और भी बढ़ जाएगी। बिहारी को महेंद्र ने अपने मन में 'हम्बग' और उसके इस काम को 'सनक' कहा।
विनोदिनी के पैरों की आहट सुन कर महेंद्र ने अखबार मोड़ दिया। नहा कर विनोदिनी कमरे में जो आई, महेंद्र उसके चेहरे की तरफ देख कर हैरत में आ गया। उसमें जाने कैसा एक अनोखा बदलाव आ गया था। मानो पिछले कई दिन तक वह धूनी जला कर तप कर रही थी। शरीर उसका दुबला हो गया था और उस दुबलेपन को भेद कर उसके पीले चेहरे से एक दमक निकल रही थी।
बिहारी के पत्र की उम्मीद उसने छोड़ दी है। अपने ऊपर बिहारी की बेहद हिकारत की कल्पना करके वह आठों पहर चुपचाप जल रही थी। बिहारी मानो उसी का तिरस्कार करके पछाँह चला गया है - उस तक पहुँच पाने की कोई तरकीब उसे नहीं सूझी। काम-काजी विनोदिनी काम की कमी से इस छोटे-से घर में घुल रही थी - उसकी सारी तत्परता खुद उसी को घायल करती हुई चोट करती थी। उसके समूचे भावी जीवन को इस प्रेमहीन, कर्महीन, आनंदहीन घर में इस सँकरी गली में सदा के लिए कैद समझ कर उसकी बागी प्रकृति हाथ न आने वाले अदृष्ट के खिलाफ मानो आसमान से सिर मारने की बेकार कोशिश कर रही थी। नादान महेंद्र ने विनोदिनी की मुक्ति के सारे रास्तों को चारों तरफ से बंद करके जीवन को इतना सँकरा बना दिया है, उस महेंद्र के प्रति उसकी घृणा और विद्वेष की सीमा न रही। वह समझ गई थी कि उस महेन्द्र को अब वह ठुकराकर हर्गिज दूर नहीं जा सकती। इस संकरे डेरे में महेन्द्र रोज उसके पास सट कर बैठा करेगा, अलक्षित आकर्षण से प्रतिदिन तिल-तिल वह उसकी ओर खिंचती रहेगी - इस अंधे कुएँ में, इस समाज-भ्रष्ट जीवन के कीच की सेज पर घृणा और आसक्ति के बीच रोज-रोज जो लड़ाई होती रहेगी, वह बड़ी ही वीभत्स है। उसने खुद अपने हाथों, अपने से चाहकर महेन्द्र के मन के अतल से एक लपलपाती जीभ वाली लोलुपता के जिस क्लेद-सने सरीसृप को खोद निकाला है, उसकी पूँछ के बंधन से वह अपने को कैसे बचाएगी? एक तो उसका दुखा हुआ दिल, तिस पर यह छोटा रुँधता-सा डेरा और उसमें महेन्द्र की वासना की लहरों के थपेड़े - इसकी कल्पना से ही विनोदिनी का मन-प्राण पीडि़त हो उठा। जीवन में इसका अन्त कहाँ? इनमें से वह बाहर कब निकल पायगी?
विनोदिनी का वह दुबला-पीला चेहरा देख कर महेंद्र के मन में ईर्ष्या जल उठी। उसमें ऐसी कोई शक्ति नहीं कि वह बिहारी की चिंता में लगी इस तपस्विनी को जबरदस्ती उखाड़ सके? गिद्ध जैसे मेमने को झपट्टा मार कर देखते-ही-देखते अपने अगम अभ्रभेदी पहाड़ के बसेरे में ले भागता है, क्या वैसी ही कोई मेघों से घिरी दुनिया की निगाहों से परे जगह नहीं, जहाँ महेंद्र अकेला अपने इस सुंदर शिकार को कलेजे के पास छिपा कर रख सके?
विरह की जलन स्त्रियों के सौंदर्य को सुकुमार कर देती है, ऐसा महेंद्र ने संस्कृत काव्यों में पढ़ा था। आज विनोदिनी को देख कर वह जितना ही अनुभव करने लगा, उतना ही सुख-सने दु:ख के आलोड़न से उसका हृदय बड़ा व्यथित होने लगा।
विनोदिनी जरा देर स्थिर रही। फिर पूछा - 'तुम चाय पी कर आए हो?'
महेंद्र ने कहा - 'समझ लो, पी कर ही आया हूँ, मगर इस वजह से अपने हाथ से प्याला देने की कंजूसी मत करो - प्याला मुझे दो।'
शायद जान कर ही विनोदिनी ने निहायत निर्दयता से महेंद्र से इस उच्छ्वास को चोट पहुँचाई। कहा - 'बिहारी भाई साहब इन दिनों कहाँ हैं, मालूम है?'
महेंद्र का चेहरा फक हो गया। बोला - 'कलकत्ता में तो वह नहीं हैं इन दिनों।' विनोदिनी - 'पता क्या है उनका?'
महेंद्र - 'यह तो वह किसी को बताना नहीं चाहता।'
विनोदिनी - 'खोज नहीं की जा सकती पूछ-ताछ करके?'
महेंद्र - 'मुझे ऐसी जरूरत नजर नहीं आती।'
विनोदिनी - 'जरूरत ही क्या सब-कुछ है, बचपन से आज तक की मैत्री क्या कुछ भी नहीं?'
महेंद्र - 'बिहारी मेरा छुटपन का साथी है, तुम्हारी दोस्ती महज दो दिन की है, फिर भी ताकीद तुम्हारी ही ज्यादा है।'
विनोदिनी - 'इसी से तुम्हें शर्म आनी चाहिए। दोस्ती कैसे करनी चाहिए, यह तुम अपने वैसे दोस्त से भी न सीख सके?'
महेंद्र - 'मुझे इसका कतई मलाल नहीं, मगर धोखे से औरत का दिल कैसे लिया जाता है, यह विद्या उससे सीखता तो आज काम आती।'
विनोदिनी - 'केवल चाहने से वह विद्या नहीं सीखी जा सकती, उसकी क्षमता होनी चाहिए।'
महेंद्र - 'गुरुदेव का पता मालूम हो, तो मुझे बताओ, इस उम्र में उनसे दीक्षा ले आऊँ, फिर क्षमता की कसौटी होगी।'
विनोदिनी - 'मित्र का पता ढूँढ़ निकालने की जुर्रत न हो तो प्रेम की बात जुबान पर मत लाओ! बिहारी भाई साहब से तुमने ऐसा बर्ताव किया है कि तुम पर कौन यकीन करेगा?'
महेंद्र - 'मुझ पर पूरा यकीन न होता तो मेरा इतना अपमान न कर पाती - मेरे प्रेम पर अगर इतनी निश्चिंतता न होती, तो शायद मुझे इतनी तकलीफ न होती। बिहारी पालतू न बनने की कला जानता है, वह कला अगर इस बदनसीब को बता देता तो वह एक दोस्त का फर्ज अदा करता।'
'आखिर बिहारी आदमी है, इसी से पालतू नहीं बनता' - यह कह कर विनोदिनी खुले बालों को पीठ पर बिखेर कर खिड़की पर जिस तरह खड़ी थी, खड़ी रही। महेंद्र अचानक खड़ा हुआ। मुट्ठी कस ली और नाराजगी से गरज कर बोला - 'आखिर बार-बार मेरा अपमान करने का साहस क्यों करती हो तुम? इस इतने अपमान का कोई बदला नहीं मिलता, वह तुम्हारी क्षमता के कारण या मेरे गुण से? इतना बड़ा पुरुष मैं नहीं कि चोट करना जानता ही नहीं।'
इतना कह कर वह विनोदिनी की तरफ देखता हुआ जरा देर स्तब्ध रहा, फिर बोला - 'विनोद, चलो यहाँ से चलें - कहीं और। चाहे पछाँह, चाहे किसी पहाड़ पर, जहाँ तुम्हारा जी चाहे - चलो! यहाँ जीना मुहाल है। मैं मरा जा रहा हूँ।'
विनोदिनी बोली - 'चलो, अभी चलें पछाँह।'
महेंद्र - 'पछाँह?'
विनोदिनी - 'किसी खास जगह नहीं। कहीं भी दो दिन रहते-घूमते फिरेंगे।'
महेंद्र - 'ठीक है, आज ही रात को चलो!'
विनोदिनी राजी हो कर महेंद्र के लिए खाना बनाने गई। महेंद्र ने समझ लिया, बिहारी वाली खबर विनोदिनी की नजरों से नहीं गुजरी। अखबार में जी लगाने-जैसी स्थिति अभी उसके मन की नहीं है। कहीं अचानक उसे वह खबर न मालूम हो जाए, इसी उधेड़-बुन में महेंद्र पूरे दिन चौकन्ना रहा।