महरम[1] नहीं है तू ही नवा-हाए-राज़[2] का
याँ वरना जो हिजाब[3] है, पर्दा है साज़ का
रंगे-शिकस्ता[4] सुबहे-बहारे-नज़ारा है
ये वक़्त है शुगुफ़तने-गुल-हाए-नाज़[5] का
तू, और सू-ए-ग़ैर[6] नज़र-हाए तेज़-तेज़
मैं, और दुख तेरी मिज़गां-हाए-दराज़[7] का
सरफ़ा[8] है ज़ब्ते-आह में मेरा, वगरना मैं
तोअ़मा[9] हूँ एक ही नफ़से-जां-गुदाज़[10] का
हैं बस कि जोशे-बादा[11] से शीशे उछल रहे
हर गोशा-ए-बिसात[12] है सर शीशा-बाज़[13] का
काविश[14] का दिल करे है तक़ाज़ा कि है हनूज़[15]
नाख़ुन पे क़रज़ इस गिरहे-नीम-बाज़[16] का
ताराज-ए-काविशे-ग़मे-हिजरां [17] हुआ 'असद'
सीना, कि था दफ़ीना-ए-गुहर-हाए-राज़[18] का
शब्दार्थ:
- ↑ जानने वाला,मर्मज्ञ
- ↑ भेद-भरी आवाज़ें
- ↑ पर्दा
- ↑ उड़ा हुआ रंग
- ↑ अदा रूपी फूलों के खिलने का
- ↑ रक़ीब,प्रतिद्वन्द्वी की ओर
- ↑ लंबी, गहरी पलकें
- ↑ लाभ
- ↑ ख़ुराक
- ↑ घातक सांस, आत्मा पिघलाने वाली सांस
- ↑ मदिरा की हलचल
- ↑ गलीचे का कोना
- ↑ एक ऐसा मदारी जो शीशे के प्यालों को अपने शरीर पर टिका कर खेल दिखाता है
- ↑ कुरेदना, खोज
- ↑ अभी
- ↑ अधखुली गाँठ
- ↑ विरह की पीड़ा की वजह से बरबाद
- ↑ रहस्य के मोतियों का दबा ख़जाना