तू दोस्त किसी का भी सितमगर न हुआ था
औरों पे है वो ज़ुल्म कि मुझ पर न हुआ था
छोड़ा मह-ए-नख़शब[1] की तरह दस्त-ए-क़ज़ा[2] ने
ख़ुर्शीद[3] हनूज़ उस के बराबर न हुआ था
तौफ़ीक़[4] बअन्दाज़ा-ए-हिम्मत[5] है अज़ल से
आँखों में है वो क़तरा कि गौहर[6] न हुआ था
जब तक की न देखा था क़द-ए-यार का आ़लम
मैं मुअ़़तक़िद-ए-फ़ित्ना-ए-महशर[7] न हुआ था
मैं सादा-दिल, आज़ुर्दगी-ए-यार[8] से ख़ुश हूँ
यानी सबक़-ए-शौक़[9] मुकर्रर न हुआ था
दरिया-ए-मआ़सी[10] तुनुक-आबी[11] से हुआ ख़ुश्क
मेरा सर-ए-दामन[12] भी अभी तर न हुआ था
जारी थी असद दाग़-ए-जिगर से मेरी तहसील[13]
आतिशकदा[14] जागीर-ए-समन्दर न हुआ था
शब्दार्थ: