मिलती है ख़ूए-यार[1] से नार[2] इल्तिहाब[3] में
काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अ़ज़ाब[4] में
कब से हूँ क्या बताऊँ जहां-ए-ख़राब में
शब-हाए-हिज्र[5] को भी रखूँ गर हिसाब में
ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर
आने का अ़हद[6] कर गये आये जो ख़्वाब में
क़ासिद[7] के आते-आते ख़त इक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ, जो वो लिखेंगे जवाब में
मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में
जो मुन्किर-ए-वफ़ा[8] हो फ़रेब उस पे क्या चले
क्यों बदगुमां हूँ दोस्त से, दुश्मन के बाब[9] में
मैं मुज़्तरिब[10] हूँ वस्ल में ख़ौफ़-ए-रक़ीब[11] से
डाला है तुमको वह्म ने किस पेच-ओ-ताब में
मै और हज़्ज़-ए-वस्ल[12] ख़ुदा-साज़[13] बात है
जां नज़्र देनी भूल गया इज़्तिराब[14] में
है तेवरी चढ़ी हुई अंदर नक़ाब के
है इक शिकन पड़ी हुई तर्फ़-ए-नक़ाब में
लाखों लगाव, एक चुराना निगाह का
लाखों बनाव, एक बिगड़ना इताब[15] में
वो नाला दिल में ख़स के बराबर जगह न पाये
जिस नाले से शिगाफ़ पड़े आफ़ताब[16] में
वो सेह़र[17] मुद्दआ़-तलबी[18] में न काम आये
जिस सेहर से सफ़ीना[19] रवां[20] हो सराब[21] में
'ग़ालिब' छूटी शराब, पर अब भी कभी-कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्रो[22]-शब-ए-माहताब[23] में