जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर[1] रफ़ू[2] की
लिख दीजियो, या रब उसे ! क़िस्मत में अ़दू[3] की
अच्छा है सर-अनगुश्त-ए-हिनाई[4] का तसव्वुर[5]
दिल में नज़र आती तो है, इक बूंद लहू की
क्यों डरते हो उ़शशाक़[6] की बे-हौसलगी से
यां[7] तो कोई सुनता नहीं फ़रियाद किसू[8] की
दश्ने[9] ने कभी मुंह न लगाया हो जिगर को
ख़ंज़र ने कभी बात न पूछी हो गुलू[10] की
सद हैफ़[11] ! वह ना-काम, कि इक उ़मर से ग़ालिब
हसरत में रहे एक बुत-ए-अ़रबदा-जू[12] की
--एक अनछपी पंक्ति--
गो ज़िंदगी-ए-ज़ाहिद-ए[13]-बे-चारा अ़बस[14] है
इतना है कि रहती तो है तदबीर वुज़ू[15] की
शब्दार्थ: