चचाजान
तस्लीमात!
बहुत पहले, मैंने आपकी खिदमत में एक खत भेजा था - आपकी तरफ से तो उसकी कोई मिलने की इत्लिा न आई मगर, कुछ दिन हुए, आपके दूतावास के एक साहब जिनका नाम मुझे इस वक्त याद नहीं, शाम को मेरे घर पर पधारे थे। उनके साथ एक स्वदेशी नौजवान भी थे। उन साहबान से जो बातचीत हुई उसका खुलासा, लिख देता हूँ।
उन साहब से अंग्रेजी में बातचीत हुई - मुझे हैरत है चचाजान कि वह अंग्रेजी बोलते थे, अमरीकी नहीं जो मैं सारी उम्र नहीं समझ सकता।
बहरहाल उनसे आध-पौन घंटा बातें हुई - वह मुझसे मिलकर बहुत खुश हुए, जिस तरह हर अमरीकी हर पाकिस्तानी या हिंदुस्तानी से मिलकर खुश होता है - मैंने भी यही जाहिर किया कि मुझे बड़ी खुशी हुई, वास्तव में सच्चाई यह है कि मुझे गोरे अमरीकनों से मिलकर कोई राहत या खुशी नहीं होती। आप मेरे बेबाक पन का बुरा न मानिएगा।
पिछले महायुद्ध के दौरान मैं बंबई में रहता था - एक रोज मुझे बंबे सेंट्रल जाने का इत्तिफाक हुआ - उन दिनों वहाँ आप ही के देश का दौरदौरा था। बेचारे टामियों को कोई पूछता ही नहीं था। बंबई में जितनी एँग्लों इंडियन, यहूदी और पारसी लड़कियाँ थीं, अमरीकी फौजियों की बगल में चली गईं थीं।
चचाजान मैं आपसे सच अर्ज करता हूँ, कि जब आपके अमरीका का कोई फौजी किसी यहूदी, पारसी या एँगलो इंडियन लड़की को अपने साथ चिपटाए गुजरता था तो टामियों के सीने पर साँप लोट जाते थे।
असल में आपकी हर अदा निराली है - हमारे फौजी को तो यहाँ इतनी तनख्वाह मिलती है कि वह उसका आधा पेट भी नहीं भर सकती, मगर आप एक मामूली चपड़ासी को इतनी तनख्वाह देते हैं कि अगर उसके दो पेट भी हों तो वह उनको नाक तक भर दे।
चचाजान, गुस्ताखी माफ - क्या यह फ्रॉड तो नहीं - आप इतना रुपया कहाँ से लाते हैं -छोटा मुँह और बड़ी बात है, लेकिन आप जो काम करते हैं, उसमें, ऐसा मालूम होता है, नुमाइश-ही-नुमाइश है - हो सकता है कि मैं गलती पर हूँ, मगर गलतियाँ इंसान ही करता है और मेरा खयाल है कि आप भी इंसान हैं। अगर नहीं है तो मै इसके बारे में कुछ नहीं कह सकता।
मैं कहाँ-से-कहाँ चला गया-बात बंबे सेंट्रल रेलवे स्टेशन की थी।
मैंने वहाँ आपके कई फौजी देखे। उनमें ज्यादातर गोरे थे। कुछ काले भी थे-आपसे सच अर्ज करता हूँ कि वह काले उन गोरे फौजियों के मुकाबले में कहीं ज्यादा मोटे-मोटे और सेहतमंद थे।
मेरी समझ में नहीं आता कि आपके मुल्क के लोग ज़्यादातर चश्मा क्यों इस्तेमाल करते हैं-गोरों ने तो खैर चश्मे लगाए ही हुए थे, कालों ने भी लगाए हुए थे, जिन्हें आप 'हब्शी' कहते हैं और आवश्यक हो तो लिंच भी कह देते हैं-यह काले क्यों चश्में की जरूरत महसूस करते हैं?
मेा ख्याल है कि यह सब आपकी कूटनीति है-आप चूँकि सात आजादियों के दावेदार हैं, इसलिए आप चाहते हैं कि इन कालों को, जिन्हें आप बड़ी आसानी से हमेशा के लिए आराम की नींद सुला सकते हैं और सुलाते रहें हैं, एक मौका दिया जाए कि वह आपकी दुनिया को, आपके चश्मे से देख सकें।
मैंने वहाँ बंबे सेंट्रल के स्टेशन पर एक हब्शी फौजी देखा। उसके डेंटर यह मोटे-मोटे थे-वह इतना सेहतमंद था कि मैं डर के मारे सुकड़ के आधा हो गया, लेकिन फिर भी मैंने हिम्मत से काम लिया।
वह अपने सामान के साथ टेक लगाए सुस्ता रहा था-उसकी आँखें मुँदी हुई थीं। मैं उसके पास गया-मैंने बूट के जरिए से आवाज पैदा की। उसने आँखें खोलीं तो मैंने उससे अंग्रेजी में कहा, जिसका सारांश यह था : "मैं यहाँ से गुजर रहा था कि आपकी शख़्सीअत को देखकर ठहर गया…" इसके बाद मैंने हाथ मिलाने के लिए हाथ बढ़ाया।
उस काले-कलूटे फौजी ने, जो चश्मा लगाए हुए था, अपना फौलादी पंजा मेरे हाथ में दे मारा इससे पहले कि मेरी सारी हड्डियाँ चूर-चूर हो जातीं, मैंने उससे निवेदन किया : "खुदा के लिए…बस इतना ही काफी है!"
उसके काले-काले और मोटे-मोटे होंठो पर मुसकराहट पैदा हुई और उसने ठेठ अमरीकी लहजे में मुझसे पूछा : "तुम कौन हो?"
मैंने अपना हाथ सहलाते हुए जवाब दिया : "मैं यहाँ का बाशिंदा हूँ… यहाँ स्टेशन पर तुम नजर आ गए तो तुरंत दिल चाहा कि तुमसे दो बातें करता जाऊँ।"
उसने मुझसे अजीबो-गरीब सवाल किया : "यहाँ इतने फौजी मौजूद हैं, तुम्हें मुझ ही से मिलने की इच्छा क्यों पैदा हुई?"
चचाजान, सवाल टेढ़ा था लेकिन जवाब खुद-ब-खुद मेरी जबान पर आ गया।
मैंने उससे कहा : "मैं काला हूँ और तुम भी काले हो… मुझे काले आदमियों से प्यार है।"
वह और ज़्यादा मुस्कराया।
उसके काले और मोटे होंठ मुझे इतने प्यारे लगे कि मेरा जी चाहा, इन्हें चूम लूँ।
चचाजान, आपके यहाँ बड़ी खूबसूरत औरतें हैं - मैंने आपकी एक फिल्म देखी थी - क्या नाम था उसका - हाँ या आ गया : 'बेदिंग ब्यूटी।' यह फिल्म देखकर मैंने अपने दोस्तों से कहा था: "चचाजान इतनी खूबसूरत टाँगें कहाँ से इकट्ठी कर लाए हैं।" मेरा खयाल है, करीब-करीब दो ढाई सौ के करीब तो जरूर होंगी।"
चचाजान, क्या वास्तव में आपके देश में ऐसी टाँगें आम होती हैं…? अगर आम होती हैं तो खुदा के लिए - अगर आप खुदा को मानते हैं - इनकी नुमाइश कम से कम पाकिस्तान में बंद कर दीजिए।
हो सकता है, यहाँ, आपकी औरतों की टाँगों के मुकाबले में कहीं ज्यादा अच्छी टाँगें हों -मगर चचाजान, यहाँ कोई उनकी नुमाइश नहीं करता। खुदा के लिए यह सोचिए कि हम सिर्फ अपनी बीवी की ही टाँगें देखते हैं। दूसरी औरतों की टाँगें देखना हम पाप समझते हैं - हम बड़े पुराने खयालात के आदमी हैं।
बात कहाँ से निकली थी, कहाँ चली गई - मैं मुआफी नहीं माँगना चाहता क्योंकि आप ऐसे ही दस्तावेज पसंद करते हैं।
कहना यह था कि आपके वह साहब, जो यहाँ के दूतावास से संबंधित हैं, मेरे पास पधारे और मुझसे निवेदन किया कि मैं उनके लिए एक कहानी लिखूँ।
मैं स्तब्ध रह गया, इसलिए कि मुझे अंग्रेजी में लिखना आता ही नहीं - मैंने उनसे अर्ज किया की : "जनाब मैं उर्दू जबान का राइटर हूँ… मैं अंग्रेजी लिखना नहीं जानता।"
उन्होंने फरमाया : "कहानी उर्दू ही में चाहिए हमारा एक अखबार है, जो उर्दू में छपता है।" मैंने इसके बाद अधिक खोज बीन की जरूरत न समझी और कहा : "मैं तैयार हूँ।"
और खुदा जानता है कि मुझे मालूम नहीं था, वह आपके कहने पर मेरे घर तशरीफ लाए हैं - क्या आपने उन्हें मेरा वह खत पढ़वा दिया था, जो मैंने आपको लिखा था? खैर, इस हादसे को छोड़िए - जब तक पाकिस्तान को गेहूँ की जरूरत है, मैं आपसे कोई गुस्ताखी नहीं कर सकता - वैसे प्रतिष्ठित पाकिस्तानी होने के नाते - हालाँकि मेरी सरकार मुझे इस काबिल नहीं समझती -मेरी दुआ है कि खुदा करे, कभी आपको भी बाजरे और निकसुक के साग की जरूरत पड़े और मैं जिंदा रहूँ कि आपको भेज सकूँ।
अब सुनिए - उन साहब ने, जिनको आपने भेजा था, मुझसे पूछा : "आप एक कहानी के कितने रुपए लेंगे?"
चचाजान, संभव है, आप झूठ बोलते हों और आप निःसंदेह झूठ बोलते हैं, मजाक में ही सही।
यह फन मेरे नसीब में नहीं है।
उस रोज मैंने एक नौसिखिया के तौर पर झूब बोला और उनसे कहा : "मैं एक कहानी के लिए दो सौ रुपए लूँगा।"
अब हककीत यह है कि यहाँ के पब्लिशर मुझे एक कहानी के लिए ज्यादा-से-ज्यादा चालीस-पचास रुपए देते हैं - मैंने 'दो सौ रुपए' कह तो दिए लेकिन मुझे इस एहसास से अंदरूनी तौर पर सख्त शर्मिंदगी हुई कि मैंने इतना झूठ क्यों बोला - अब क्या हो सकता था।
लेकिन चचाजान, मुझे सख्त हैरत हुई, जब आपके भेजे हुए साहब ने बड़ी हैरानी से - मालूम नहीं वह मजाक था या असल - फरमाया : "सिर्फ दो सौ रुपए…! कहानी के लिए कम से कम पाँच सौ रुपए तो होने चाहिए।" मैं चकित हो गया कि एक कहानी के लिए पाँच सौ रुपए - यह तो मेरे ख्वाबो-खयाल में भी नहीं आ सकता था - लेकिन मैं अपनी बात से कैसे हट सकता था।
इसलिए मैंने चचाजान, उनसे कहा : साहब देखिए, दो सौ रुपए ही होंगे… बस अब आप इसके बारे में ज्यादा बातचीत न कीजिए।" वह चले गए, शायद इसलिए कि वह समझ चुके थे, मैंने पी रखी है। वह शराब, जो मैं पीता हूँ, उसका जिक्र मैं अपने पहले खत में कर चुका हूँ।
चचाजान, मुझे आश्चर्य है कि मैं अब तक जिंदा हूँ, हालाँकि मुझे पाँच बरस हो गए हैं यहाँ का कड़वा जहर पीते हुए। अगर आप यहाँ तशरीफ लाएँ तो आपको यह जहर पेश करूँगा। उम्मीद है, आप भी मेरी तरह अजीबोगरीब तौर पर जिंदा रहेंगे और आपकी सात आजादियाँ भी सुरक्षित रहेंगी।
खैर इस किस्से को छोड़िए।
दूसरे रोज सुबह-सवेरे जब कि मैं बरामदे में शेव कर रहा था, आपके वही साहब फिर घर पर आ गए - संक्षिप्त-सी बातचीत हुई।
उन्होंने मुझसे कहा : "देखिए, दो सौ की रट छोड़िए, तीन सौ ले लीजिए।" मैंने कहा : "ठीक है…"
और मैंने उनसे तीन सौ रुपए ले लिए - रुपए जेब में रखने के बाद मैंने उनसे कहा : "मैंने आपसे सौ रुपए ज्यादा वसूल किए हैं, लेकिन याद रहे कि जो कुछ मैं लिखूँगा, वह आपकी मर्जी के मुताबिक नहीं होगा। इसके अलावा उसमें किसी किस्म के बदलाव का हक आपको नहीं दूँगा…" वह चले गए - फिर नहीं आए।
चचाजान, अगर आपके पास पहुँचे हों और उन्होंने आपको कोई रिपोर्ट पहुँचाई हो तो कृपया तुरंत अपने पाकिस्तानी भतीजे को जरूर सूचित करें।
मैं वह तीन सौ रुपए खर्च कर चुका हूँ - अगर आप वापिस लेना चाहें तो मैं एक रुपया प्रतिमाह के हिसाब से चुका दूँगा।
उम्मीद है कि आप सात आजादियों समेत बहुत खुश होंगे।
खाकसार
आपका भतीजा
सआदत हसन मंटो, 1954
31, लक्ष्मी मैन्शंज, हॉल रोड लाहौर