गर्भावस्था के दौरान गर्भवती स्त्री की विभिन्न प्रकार की शारीरिक जांचे की जाती हैं जैसे-
पेट की जांच-
पेट की जांच करने पर पेट पर कोई घाव, निशान, बच्चे का आकार, उसका पेट में स्थान, बच्चे का हिलना-डुलना, सिर का स्थान, गर्भाशय का आकार और समय के अनुरूप बढ़ने आदि की पूरी जानकारी मिलती है। गर्भवती स्त्री के पेट की जांच गर्भावस्था के दौरान कई बार की जाती है।
बच्चे के दिल की धड़कन की जांच-
गर्भ में बच्चे के दिल की धड़कन स्टेथिस्कोप अथवा फीटल डौपलर द्वारा सुनी जा सकती है। फीटल डौपलर बिजली या बैटरी द्वारा चलने वाली एक छोटी सी मशीन होती है। इसको मां के पेट पर लगाकर गर्भाशय में पल रहे बच्चे की दिल की धड़कन को सुना जा सकता है। बच्चे का दिल एक मिनट में 120 से 160 बार तक धड़कता है।
गर्भवती महिलाओं के योनि की जांच-
गर्भधारण के लगभग 37 सप्ताह बाद स्त्री की योनि की जांच की जाती है। योनि की जांच करके स्त्री रोग विशेषज्ञ निम्नलिखित बातों की जानकारी लेती हैं-
1. योनि की जांच करने से गर्भाशय में बच्चे के आकार और स्थान के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
2. कूल्हे की हडि्डयों के आकार और बनावट के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
3. गर्भावस्था का आकार, प्रकार और समय के अनुसार गर्भावस्था की स्थिति के बारे में जानकारी होती है।
4. गर्भाशय में कोई रसौली, सूजन या मांस आदि के होने के बारे में पता चलता है।
5. योनि और गर्भाशय में किसी रोग का होना।
नोट- योनि की जांच बार-बार नहीं करानी चाहिए।
हाथ और पैरों की जांच-
गर्भवती स्त्री में रक्त की कमी, सांस का रोग, हृदय का रोग, आदि के बारे में उसके हाथ और हाथ के नाखूनों द्वारा समझा जा सकता है। स्त्री घर में किस प्रकार का कार्य करती है यह भी हाथों से मालूम किया जा सकता है। हाथों और अंगुलियों में सूजन हो जाने पर, कई रोगों का विचार डॉक्टर के सामने आने लगता है। पैरों में वेरीकोस नलिकाएं और सूजन भी देखी जा सकती है।
गर्भवती स्त्री के रक्त की जांच-
हीमोग्लोबिन रक्त का वह लाल भाग होता है जो शरीर में ऑक्सीजन को ले जाता है। यह मां और बच्चे दोनों के लिए आवश्यक होता है। इसकी कमी को एनीमिया कहते हैं, जिसके लिए डॉक्टर स्त्री को लौह युक्त दवाईयां देते हैं। इसकी जांच अवश्य ही करवानी चाहिए।
हीमोग्लोबिन को ग्राम या प्रतिशत में जाना जाता है। शरीर में यह 14.7 ग्राम होने पर इसे हम 100 प्रतिशत कहते हैं। स्त्री के शरीर में यह 11 से 13 ग्राम होना जरूरी होता है जिससे स्त्री एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकती है। यदि यह 11 ग्राम से कम होता है तो बच्चे को पूर्ण गर्भावस्था में कम रक्त और ऑक्सीजन मिलने के कारण जन्म लेने वाला बच्चा शारीरिक रूप से कमजोर और कम वजन का पैदा होता है।
गर्भवती स्त्री के ब्लड ग्रुप की जांच-
स्त्री के ब्लड ग्रुप के बारे में भी जानकारी होना जरूरी होता है, जिससे प्रसव के समय रक्त की आवश्यकता पड़ने पर इसे उपलब्ध किया जा सके। साथ-साथ ही आर.एच फेक्टर भी करवाना चाहिए। रक्त को चार प्रमुख ग्रुपों में बांटा गया है- A, B, AB, O जो निगेटिव या पॉजिटिव होता है। निगेटिव होने पर बच्चे के जन्म लेते ही मां को एन.टी.डी. का टीका लगाया जाता है जिससे अगले होने वाले बच्चे को किसी तरह की हानि या स्त्री को गर्भपात न हो।
रुबेला और वायरल रोगों की जांच-
रक्त द्वारा जर्मन मीजल्स रूबेला की जांच करवानी चाहिए। इस रोग के कारण भी बच्चे में कई दूसरे रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इसके साथ-साथ हैपीटाईटिस की भी जांच करवानी चाहिए।
वैनेरल डिजीज रिसर्च लैब्रोरेट्रीज-
गर्भवती स्त्री में इसकी जांच कराने से वेनेरल रोग का पता चल जाता है। यह रोग संभोग क्रिया द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में जा सकता है जैसे- सिफलिस रोग। यह रोग पुरुषों से स्त्रियों को हो सकता है या फिर स्त्रियों से पुरुषों में हो सकता है। इसलिए गर्भधारण से पहले यह जरूरी होता है कि स्त्री या पुरुष में कोई इस रोग से पीड़ित तो नहीं है। इसलिए दोनों को ही इसकी जांच करवानी चाहिए। इस बीमारी में भी बच्चे का विकास ठीक प्रकार से नहीं होता है। इस जांच के लिए दोनों को अपने डॉक्टरों से परामर्श लेना चाहिए।
एल्फा फीटो प्रोटीन की जांच-
स्त्रियों के रक्त द्वारा यह जांच की जाती है। इसका सही समय 16 से 18 सप्ताह का होता है। बच्चे के विकास में यदि कोई भी रुकावट होती है तो इस जांच से मालूम चल जाता है। यह प्रोटीन बच्चे के लीवर द्वारा बनता है तथा ओवल द्वारा मां के रक्त में आ जाता है। जांच के ठीक न आने पर दो सप्ताह के बाद दुबारा जांच करवाकर अपने डॉक्टर की राय अवश्य ले लेनी चाहिए।
एच.आई.वी (एड्स)-
एच.आई.वी वायरस की जांच रक्त द्वारा करवायी जाती है। इस जांच से स्त्री या उसके होने वाले बच्चे को ही नहीं बल्कि डॉक्टरों और हॉस्पिटल के अन्य कर्मचारियों को भी लाभ होता है। एच.आई.वी का वायरस उन स्त्रियों में पाया जा सकता है जो एक से अधिक व्यक्तियों के साथ संभोग क्रिया करती हैं या उनके पति एक अधिक स्त्रियों के साथ यह क्रिया करते हों। दूषित रक्त और संक्रमित इंजेक्शन के प्रयोग से भी यह वायरस फैलता है।
गर्भावस्था में स्त्री के मूत्र की जांच-
गर्भवती स्त्री के मूत्र की जांच एक आवश्यक जांच होती है। इसके द्वारा मुख्यत: प्रोटीन, ग्लूकोज या पस के बारे में जानकारी करते हैं। यदि मूत्र से संबंधित कोई रोग इस जांच में आ जाए तो उसका इलाज जल्द से जल्द कराना चाहिए तथा शूगर आदि को नहीं बढ़ने देना चाहिए। इसके लिए डॉक्टर की राय अवश्य ही लेनी चाहिए। इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि मूत्र को इकट्ठा करने के लिए आपका बर्तन या शीशी साफ होनी चाहिए और मूत्र के बीच की धार को ही जांच के लिए एकत्र करना चाहिए ताकि जांच के बाद सही रिपोर्ट आ सके।
अल्ट्रासाउन्ड-
अल्ट्रासाउन्ड आवाज की वह तरंगे हैं जिनके द्वारा बच्चे की हडि्डयां और मांसपेशियां ठीक प्रकार से देखी जा सकती है। अल्ट्रासाउन्ड के समय स्त्री को अधिक से अधिक पानी पीना चाहिए ताकि उसका मूत्राशय पूर्ण रूप से भरा रहे। ऐसा करने से अल्ट्रासाउन्ड की रिपोर्ट पूरी तरह से ठीक आती है। इस जांच में पेट के निचले भाग पर एक चिकना द्रव भी लगाया जाता है तथा मशीन का प्रोब उस पर घुमाते हैं। इससे ध्वनि तरंगों द्वारा गर्भ में बच्चे का आकार, प्रकार, दिल की धड़कन व उसका कुछ हिलना-डुलना व अन्य क्रियाओं को टी.वी की स्क्रीन पर देखा जा सकता है। अल्ट्रासाउन्ड में द्रव का भाग कुछ अधिक गाढे़ रंग का तथा बच्चे का रूप जैसा आकार सफेद रंग का दिखाई पड़ता है जो चीज दिखने में जितनी ठोस होती है वह उतनी ही सफेद दिखाई पड़ती है। यह जांच गर्भावस्था में कई बार करवाई जा सकती है। इस जांच से मां और बच्चे कोई हानि नहीं होती है जबकि एक्स-रे द्वारा जांच करवाना मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक होता है।
गर्भावस्था में अल्ट्रासाउन्ड की भूमिका-
1. अल्ट्रासाउन्ड द्वारा गर्भ मे पल रहे बच्चे की उम्र का पता लगाया जाता है।
2. गर्भ में बच्चे के विकास के बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है।
3. अल्ट्रासाउन्ड करने से बच्चे के शारीरिक आकार-प्रकार की जानकारी मिल सकती है।
4. अल्ट्रासाउन्ड द्वारा बच्चे के शरीर की विभिन्न त्रुटियों, रूप और बनावट तथा अन्य रोगों के बारे में पता चलता है।
5. अल्ट्रासाउन्ड से बच्चे की हृदय की धड़कन के बारे में पता चलता है।
6. इसके द्वारा बच्चे के गुर्दे अथवा मस्तिष्क की कमियां तथा अन्य रोगों के बारे में पता चलता है।
7. अल्ट्रासाउन्ड द्वारा गर्भ में पल रहें जुड़वां बच्चे की जानकारी मिल सकती है।
8. अल्ट्रासाउन्ड से गर्भ में बच्चे का स्थान पता चलता है।
9. गर्भ में ओवल के स्थान के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
10. एमनीओटिक द्रव की मात्रा मालूम होती है।
11. जिगर और पित्त की थैली के रोगों की जानकारी मिलती है।
एम्नीयोसेनटैसिस-
एम्नीयोसेनटैसिस की जांच सभी स्त्रियों के लिए अनिवार्य नहीं होती है। यह जांच लगभग 14-16 सप्ताह में की जाती है। इस जांच में स्त्री के पेट का अल्ट्रासाउन्ड करते हैं तथा उसकी देख-रेख से बच्चेदानी से एमनीओटिक द्रव सुई द्वारा बाहर निकाला जाता है। इस द्रव की जांच में फीटल सैल देखे जाते हैं। जिसके द्वारा बच्चे के शरीर की बनावट, रीढ़ की हडि्डयों की बनावट, मस्तिष्क रोग तथा अन्य रोगों की जानकारी ली जाती है। इस जांच में अल्ट्रासाउन्ड का प्रयोग आवश्यक होता है ताकि सुई ठीक स्थान पर डाली जा सके तथा ओवल या बच्चे को सुई न लगे।
स्त्री में इस जांच से कुछ हानियां भी हो सकती हैं। कई बार सुई द्वारा बाहर का रोग गर्भाशय में प्रवेश कर सकता है। इसके लिए बहुत ही साफ-सफाई की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही इस जांच से स्त्री को गर्भपात भी हो सकता है। इसलिए इस जांच से पहले सभी पहलुओं पर ध्यान देना जरूरी होता है।
एमनिऔसिन्टैसिस के संकेत-
1. यदि स्त्री रोग विशेषज्ञ बच्चे में कोई कमी महसूस करें।
2. यदि पहले हुए बच्चे में कुछ शारीरिक कमी हो।
3. यदि परिवार के सभी बच्चे त्रुटिपूर्ण होते हों।
4. यदि स्त्री की आयु 35 वर्ष से अधिक हो।
एमनिऔसिन्टैसिस या ए.एफ.पी. द्वारा अगर मालूम चले कि बच्चे में किसी प्रकार की शारीरिक त्रुटि है तो अच्छा होगा कि स्त्री को गर्भपात करा लेना चाहिए। रोगग्रस्त बच्चे को पालने से अच्छा गर्भपात करा लेना चाहिए। स्त्री को यदि गर्भावस्था के शुरू के 3-4 महीनों में खसरा, छोटी माता, या फिर सिफलिस आदि रोग हो भी तो गर्भपात करवा लेना चाहिए। गर्भपात उसी हॉस्पिटल में करवाना चाहिए जहां सभी सुविधाएं उपलब्ध हों।
कैरीओनिक विलस की जांच-
1. यदि स्त्री रोग विशेषज्ञ गर्भ में पल रहे बच्चे में कोई कमी महसूस करती हैं।
2. यदि परिवार में जन्म लेने वाले बच्चे की शारीरिक बनावट में कोई कमी हो।
3. अगर स्त्री ने इससे पहले भी कभी त्रुटिपूर्ण बच्चे को जन्म दिया हो।
4. अगर पति के परिवार में किसी त्रुटिपूर्ण बच्चे का जन्म हुआ हो।
टैटनेस का इंजैक्शन-
गर्भावस्था के दौरान मां को टैटनेस का इंजैक्शन अवश्य देना चाहिए। यह इंजैक्शन मां और बच्चे दोनों की टेटनेस रोग से रक्षा करता है। यह इंजेक्शन दो या तीन बार लगाया जाता है। कुछ स्त्री रोग विशेषज्ञ यह इंजैक्शन गर्भावस्था के तीसरे, छठे और नौवें महीने में देते हैं और कुछ सातवें और आठवें महीने में देते हैं।
गर्भ में बच्चे का लिंग-
जब स्त्री के अण्डे से पुरुष के शुक्राणु मिलते हैं तो सम्पूर्ण बच्चे का निर्माण होता है। उसमें स्त्री के अण्डे के 23 क्रोमोजोम्स और पुरुष के शुक्राणु के भी 23 क्रोमोजोम्स होते हैं। इस प्रकार 46 क्रोमोजोम्स मिलकर 23 जोडे़ बनाते हैं। स्त्री के सेक्स क्रोमोजोम्स 'x' होते हैं तथा पुरुष के क्रोमोजोन्स 'x' व 'y' प्रकार के होते हैं। जब पुरुष के 'x' स्त्री के 'x' से मिलते हैं तो लड़की पैदा होती है। जिसे 'x', 'x' कहते हैं। पुरुष का 'y' जब स्त्री के 'x' से मिलता है। तब 'x','y' बनता है जिससे लड़के का जन्म होता है।
कुछ डॉक्टरों के अनुसार गर्भ में बच्चे का लिंग स्त्री के भोजन से निर्धारित होता है। लगभग 80 प्रतिशत लोगों को इस कार्य में भोजन करने से सफलता प्राप्त हो सकती है। भोजन में अधिक स्टार्च, दूध , दूध से बनी चीजें, कम नमक तथा कैल्शियम की गोलियां खाने से लड़की पैदा होती है तथा अधिक नमक, मांस, फल तथा बहुत कम दूध व दूध से बनी चीजें तथा एक गोली पोटैशियम की खाने से लड़का पैदा होता है।
कुछ विशेषज्ञ यह मानते हैं कि जिन व्यक्तियों में एक से अधिक स्त्रियों के साथ सेक्स क्रिया की लालसा होती है, उनमें लड़का पैदा होने की संभावना अधिक रहती है।
कुछ लोगों के अनुसार यदि संभोग से पहले स्त्री अपनी योनि को सोडाबाइकार्बोनेट से धो लें तो लड़का पैदा होता है। इसके लिए एक चम्मच सोडाबाइकार्बोनेट लगभग आधा लीटर गुनगुने पानी में डालकर योनि को अन्दर तक धोने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा करने के बाद सेक्स क्रिया करने से लड़के का जन्म होता है। दूसरी तरफ एक चम्मच सफेद सिरका तथा आधा चम्मच गुनगुने पानी से योनि को धोने के बाद सेक्स करने से लड़की पैदा होती है।
कुछ लोगों के अनुसार गर्भ में बच्चे के लिंग का निर्धारण संभोग करने के समय पर निर्भर करता है। इस विचार में कहा जाता है कि अण्डे के बनते ही यदि संभोग 48 घंटे में किया जाए तो होने वाले बच्चा लड़का होता है। यदि 48 घंटे के बाद संभोग करते हैं तो लड़की पैदा होती है।
उपयुक्त बात की सच्चाई को जानने के लिए अण्डे बनते ही 48 घंटे में तीन बार संभोग करें तथा पूरे माह गर्भ के ठहरने का इन्तजार करें। यदि गर्भ न रुका हो तो इसी प्रकार अगले महीने भी करना चाहिए। इससे इच्छानुसार बच्चे की प्राप्ति होती है। अण्डे बनने को स्त्रियां भलीभान्ति अल्ट्रासाउन्ड पर देखकर पता कर सकती हैं। स्त्रियों के शरीर के तापमान से भी यह मालूम किया जा सकता है कि उनके शरीर में अण्डे बन रहें हैं या नहीं बन रहे हैं क्योंकि स्त्रियों के शरीर का तापमान अण्डे बनने से पहले कम होता है तथा अण्डे बनने पर एक डिग्री बढ़ जाता है।
एक मिनट में रक्त का संचार-