शनि कई बार गोचरवश अथवा अपनी दशा/अन्तर्दशा में कष्ट प्रदान करते हैं, ऎसे में जातक को घबराने की बजाय शनि महाराज को प्रसन्न करने के विषय में सोचना चाहिए ताकि वह अपने अशुभ प्रभावों में कमी कर सकें. वैसे तो शास्त्रों में शनि संबंधित बहुत से मंत्र, कवच अथवा स्तोत्र दिए गए हैं लेकिन यहाँ हम स्कन्द पुराण में वर्णित "शनि स्तोत्र" के बारे में बता रहे हैं.
यदि किसी व्यक्ति पर शनि का अशुभ प्रभाव चल रहा हो और जब जातक की चन्द्रराशि अथवा जन्मराशि से गोचर का चन्द्रमा तीसरे, छठे, सातवें, दसवें अथवा एकादश भाव से गुजर रहा हो तथा उसी दौरान शनिवार का दिन भी बीच में पड़ रहा हो तभी से इस शनि स्तोत्र का पाठ शुरु कर देना चाहिए. शनिवार से प्रारंभ कर के अगले शनिवार तक(लगातार आठ दिन) इस स्तोत्र का पाठ दिन में तीन बार करना है. यदि किसी कारण बीच में यह पाठ छूट जाता है तब फिर से नए सिरे से इसे आरंभ करना पड़ेगा तो बेहतर है आठ दिन का यह क्रम बीच में टूटने का पाए.
महिलाओं के लिए इस स्तोत्र का विशेष नियम यह है कि ऋतुकाल में इस स्तोत्र का पाठ ना करें वैसे भी स्त्रियों को ऋतुकाल में किसी भी तरह की पूजा नहीं करनी चाहिए. किसी भी जातक को यदि गोचर के शनि अथवा शनि की दशा में परेशानी आ रही है तब उसे उपरोक्त नियमानुसार इस शनि स्तोत्र का पाठ करना चाहिए.
दशरथो उवाच
नम: कृष्णाय नीलाय, शिति कण्ठ निभाय च ।
नमो नील मयूखाय, नीलोत्पल निभाय च ।।1।।
नमो निर्मांस देहाय, दीर्घश्मश्रु जटाय च ।
नमो विशाल नेत्राय, स्थूल रोम्णे नमो नम:।।2।।
नमो दीर्घाय शुष्काय, कालदंष्ट्र नमोSस्तुते ।
नमस्ते कोटरस्थाय, दुर्निरीक्ष्याय ते नम: ।।3।।
नमो घोराय रौद्राय, भीषणाय करालिने ।
नमस्ते सर्व भक्ष्याय, बली मुख नमोSस्तुते ।।4।।
सूर्यपुत्र नमस्तेSस्तु, सर्वातर्क्य नमोSस्तुते ।
नम: कालाग्नि रुद्राय, कृतान्ताय च वै नम: ।।5।।
नमो मन्दगते तुभ्यं, निस्त्रिंशाय नमो नम: ।
तपसा दग्ध देहाय, नित्यं योगरताय च ।।6।।
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेSस्तु, कश्यपात्मज सूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं, रुष्टौ वै हरसि क्षणात्।।7।।
देवासुर मनुष्याश्च सिद्ध विद्याधरोरगा: ।
त्वया विलोकिता: सर्वे, दैन्यमाशु व्रजन्ति ते ।।8।।
ब्रह्मा शक्रो मनु श्चैव, ऋषय: सप्त तारका: ।
भ्रष्टराज्या: पतन्त्येते तव दृष्ट्यावलोकिता: ।।9।।
देशा श्च नगरग्रामा:, दिश श्चैव द्रुमास्तथा ।
त्वया विलोकिता: सर्वे, नाशं यान्ति समूलत:।।10।।
प्रसादं कुरु मे सौरे, वरार्थे तव संस्थित: ।
एवं स्तुत स्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ।।11।।
अब्रवीच्च शनिर्वाक्यं, हृष्ट रोमा स पार्थिवम्।
||शनिरुवाच||
तुष्टोSहं तव राजेन्द्र, स्तवेनानेन मानद ।
वरं ब्रूहि प्रदास्यामि, स्वेच्छया रघुनन्दन ।।12।।
दशरथ उवाच
प्रसन्नस्त्वं यदा सौरे, वरं देहि ममेप्सितम्।
अद्य प्रभूति सौरे ते, पीड़ा कार्या न कस्यचित्।।13।।
देवासुर मनुष्याणां, पशु पक्षि शरीरिणाम्।
||शनिरुवाच||
ग्रहाणां स ग्रहो ज्ञेयो, यस्तु पीड़ाकर: स्मृत: ।
अदेयो हि यस्तु, तुभ्यं चैव ददामि तमम्।।14।।
त्वया प्रोक्तं च मे स्तोत्रं, य: पठिष्यति मानव: ।
एककालं द्विकालं वा, पीड़ा मुंचामि तस्य वै ।।15।।
देवासुर मनुष्याणां, सिद्ध विद्याधर राक्षसाम्।
मृत्युस्थान स्थितो वापि, जन्मस्थानगतोपि वा ।।16।।
य: पुन: श्रद्धया युक्त:, शुचि: स्नात: समाहित: ।
भक्त्योपचारैं: सम्पूज्य प्रतिमां लोहजां मम ।।17।।
मद्दिने तु विशेषेण, स्तोत्रेणानेन पूजयेत्।
पूजयित्वा जप: स्तोत्रं, भूत्वा चैव कृतांजलि: ।।18।।
माषौदनं तिलैर्मिश्र, दद्यात् लोहं च दक्षिणाम्।
कृष्णांगां वृषभं वापि, दद्याद् विप्राय धीमते ।।19।।
तस्य पीड़ा न चैवाहं, करिष्यामि कदाचन ।
गोचरे जन्मलग्ने वा, दशास्वन्तदशासु च ।।20।।
रक्षामि सततं तस्य, पीड़ा मन्यग्रहै: कृताम्।
अनेनैव विद्यानेन पीड़ामुक्तं जगद् भवेत्।।21।।
वरद्वयं तु सम्प्राप्य राजा दशरथ स्तदा ।
स्वस्थानं च ततो गत्वा, प्राप्त कामोSभवन्नृप: ।।22।।