दाता राम दिये ही जाता ।
भिक्षुक मन पर नहीं अघाता।
देने की सीमा नहीं उनकी।
बुझती नहीं प्यास इस मन की ।
उतनी ही बढ़ती है तृष्णा।
जितना अमृत राम पिलाता।
दाता राम ...
कहो उऋण कैसे हो पाऊँ।
किस मुद्रा में मोल चुकाऊँ।
केवल तेरी महिमा गाऊँ।
और मुझे कुछ भी ना आता।
दाता राम ...
जब जब तेरी महिमा गाता ।
जाने क्या मुझको हो जाता ।
रुंधता कण्ठ नयन भर आते ।
बरबस मैं गुम सुम हो जाता।
दाता राम ...
दाता राम दिये ही जाता ॥