तुम तजि और कौन पै जाऊं ।
काके द्वार जाइ सिर नाऊं पर हाथ कहां बिकाऊं ॥
ऐसो को दाता है समरथ जाके दिये अघाऊं ।
अंतकाल तुम्हरो सुमिरन गति अनत कहूं नहिं पाऊं ॥
रंक अयाची कियू सुदामा दियो अभय पद ठाऊं ।
कामधेनु चिंतामणि दीन्हो कलप वृक्ष तर छाऊं ॥
भवसमुद्र अति देख भयानक मन में अधिक डराऊं ।
कीजै कृपा सुमिरि अपनो पन सूरदास बलि जाऊं ॥