हरिजू की आरती बनी।
अति विचित्र रचना रचि राखी, परति न गिरा गनी॥
कच्छप अध आसन अनूप अति, डांडी सहस फनी।
महि सराव, सप्त सागर घृत-बाती सैल घनी।
रवि-शशि ज्योति जगत परिपूरन, हरति तिमिर रजनी।
उड़त फुल उड्डन नभ अन्तर, अंजन घटा घनी॥
नारदादि, सनकादि प्रजापति, सुर-नर-असुर अनी।
काल-कर्म-गुनओर-अंत नहिं, प्रभु-इच्छा रजनी॥
यह प्रताप दीपक सुनिरंतर, लोक सकल भजनी।
सूरदास सब प्रकट ध्यान में अति विचित्र सजनी॥