इसलिए मीमांसकों ने यही निश्चय किया कि व्यापक और अनादि जीवात्मा ही धर्माधर्म का आश्रय है और उन्हीं धर्माधर्मों के बल से सृष्टि प्रलय और विचित्रताएँ हुआ करती हैं और चूँकि वह जीव अनादि है इसलिए उसके आश्रित होकर रहने वाले धर्माधर्म भी अनादि हैं। इससे यह शंका भी निर्मूल हो गई कि यद्यपि जगत के कारण धर्माधर्म हैं, तथापि सृष्टि के प्रारंभ में तो वे थे ही नहीं तो उस समय जैसे स्वभाव से ही विचित्र सृष्टि हुई, वैसे ही आजकल भी हो सकती है। क्योंकि जब हम धर्माधर्म के प्रवाह को और साथ ही सृष्टि प्रवाह को भी अनादि मानते हैं तो किसी भी सृष्टि का आदि काल कोई हो ही नहीं सकता। जो सृष्टि हुई उसके कारण उससे प्रथम सृष्टि के धर्माधर्म और उसके भी उससे पूर्व के इत्यादि रूप ही सृष्टि परंपरा और धर्माधर्म का प्रवाह वैसी ही है जैसी वृक्ष और बीज की परंपरा या प्रवाह। क्योंकि वहाँ भी यह प्रश्न नहीं हो सकता कि प्रथम बीज था या वृक्ष, अथवा सबसे प्रथम वृक्ष कैसे हुआ? क्योंकि वहाँ बीज था ही नहीं। इसी बात को भगवान व्यास जी ने वेदांतदर्शन में स्पष्ट रूप से कह दिया है कि -

' वैषम्य नैघृण्ये इति चेन्न सापेक्षत्वात्तथा हि दर्शयति।

न कर्माविभागादिति चेन्नादित्वात्॥ ' शा. 211 । 35-35 ॥

इन दोनों सूत्रों का तात्पर्य वही है जैसा कि अभी दिखलाया गया है। हाँ पूर्व सूत्र के अर्थ में कुछ पूर्वोक्त विषय से अधिक भी है, जिसका मर्म यह है।

जिन ईसाइयों, मुसलमानों, या अन्यमतवादियों ने यह माना है कि यह वर्तमान सृष्टि ही सबसे प्रथम और अंत की भी है। न तो इससे पूर्व कोई भी सृष्टि थी, और न आगे (प्रलयानंतर) दूसरी होगी भी। अकस्मात ही ईश्वर ने अपने ही मन से एक बार ऐसी रचना कर दी है जिसमें लोग उसकी पूजा किया करें। किसी को निर्धन तो किसी को धनसंपन्न एवं मूर्ख और बुद्धिमान, मनुष्य, पशु, कुत्ते, शूकर इत्यादि जीव योनियों को विचित्र-विचित्र बनाने में केवल उसकी इच्छा ही कारण है। वह सर्वशक्तिमान है, अत: उसने जैसा चाहा बना दिया। साथ ही बिना भिन्न-भिन्न प्रकार की सृष्टि के उसका काम भी नहीं चल सकता। सभी अमीर हो जावें तो उनकी सेवा कौन करेगा? इत्यादि।

उन लोगों का यह सिद्धांत अफीमची की पिनक-सा है। क्योंकि यह बात सविस्तार सिद्ध की जा चुकी है कि बिना कारण अकस्मात कोई भी वस्तु बन नहीं सकती। इसके अतिरिक्त यदि ईश्वर ने अपनी पूजा के ही लिए सृष्टि रची है, वह भी अपनी इच्छा के ही अनुसार, तो कहना होगा कि वह आपका ईश्वर, ईश्वर नहीं, किंतु कोई हम लोगों जैसा साधारण, लोभी, प्रमादी, अन्यायी, निर्दयी और स्वेच्छाचारी मनुष्य है, क्योंकि ईश्वर शब्द का वास्तविक और पवित्र अर्थ है आप्तकाम, न्यायकर्त्ता और सृष्टि का संरक्षण एवं शासन कर्त्ता। परंतु यदि उसे अपनी ही पूजा की चिंता रहती है और देखा करता है कि कौन मेरी पूजा करता है? तो क्या वह स्वार्थी और घूसखोर न हुआ? यदि उसने मनमाने किसी को धनी, किसी को निर्धन और किसी को बकरा और दूसरे को उसका निर्दयी भक्षक अकारण ही बना दिया तो क्या वह प्रमादी, स्वेच्छाचारी अन्यायी और निर्दयी इत्यादि विशेषणों से विभूषित नहीं किया जावेगा? यदि हम लोगों की ही तरह उसे भी अपनी पूजा की पड़ी है तो आप्तकाम क्योंकर कहा जा सकता है? हाँ, ऐसा कह सकते हैं कि वह भी कोई हम लोगों जैसा जीव ही है। अंतर केवल इतना ही है कि वह कुछ ऐसे भी काम कर सकता है जिन्हें साधारण जीव नहीं कर सकते। जैसा कि बड़े-बड़े आविष्कार केवल वैज्ञानिक लोग ही कर सकते हैं न कि दूसरे भी।

इसीलिए कर्मवादियों ने यही स्थिर किया है कि यह सृष्टिप्रवाह अनादि है, साथ ही उसका कर्म प्रवाह भी तदनुसार ही सृष्टि में हुआ करता है और हुआ करेगा। ईश्वर तो केवल जड़ कर्मों का सृष्टिनिर्माण में सहायक होकर निमित्त मात्र है। इसी से उसमें निर्दय अथवा अन्याय आदि की शंका भी नहीं हो सकती और न स्वार्थ ही। क्योंकि कर्मवादियों का यह अटल सिद्धांत है कि यह सृष्टि किसी की पूजा आदि विशेष उद्देश्य से न होकर केवल जीवों का अपने-अपने कर्मों के फल भोगने और संसार से छुटकारा (मुक्ति) प्राप्ति के ही लिए है। चाहे वह ईश्वर की पूजा के या किसी दूसरे ही उपाय से क्यों न हो, यह दूसरी बात है। और इस तरह यदि ईश्वर के नाम कीर्त्तन या पूजन प्रभृति से किसी के पापों का विनाश हो अथवा उसका दंड उसे न मिले, तो ईश्वर इससे स्वार्थी अथवा घूसखोर नहीं कहा जा सकता। क्योंकि ऐसा उसका स्वरूप वा स्वभाव है कि इस तरह वह चाहता न कुछ है न करता है। जैसे अग्नि में तृण। यदि वह भस्मीभूत हो जाता है तो उससे अग्नि में कुछ लगता या यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि वह स्वार्थी है इसी तात्पर्य को लेकर पूर्वोक्त प्रथम सूत्र की रचना हुई है। कुमारिलं स्वामी ने भी मीमांसादर्शन वार्तिक के चतुर्थ व्याख्यानावसर में कहा है जिसका तात्पर्य पूर्वोक्त ही है वह यों है -

नन्वार्थापत्तिरेवं स्याद् जगद्वैचि त्र्यद र्शनात्।

सुखिदु:ख्यादिभेदो हि नादृष्टात्कारणादृते॥ 101 ॥

दृष्टस्य व्यभिचारित्वात् तदभावेऽपि संभवात्।

सेवा ध्य यनतुल्यत्वे दृष्टा च फलभिन्नता॥ 102 ॥ इत्यादि।

अस्तु, अब यहाँ पर यह विचार उत्पन्न होता है कि इस प्रकार जगत अथवा उसके वैचित्र्य का कारण स्वरूप अदृष्ट (धर्माधर्म) सामान्यत: यद्यपि सिद्ध हो गया। तथापि उससे क्या? इतने मात्र से लोगों की प्रवृत्ति क्योंकर हो सकती है? लोग किस वस्तु को धर्म समझकर कर सकते और अधर्म समझ उससे अलग रह सकते हैं? क्योंकि सामान्य ज्ञान तो केवल विशेष ज्ञान में उपयोगी होता है न कि उससे किसी प्रकार की प्रवृत्ति भी हो सकती है। आम्र भी एक वस्तु या फल है, इस इतने ज्ञान से कोई भी उसके तोड़ने में प्रवृत्त नहीं हो सकता, जब तक उसे विशेष रूप से यह न बतला दिया जावे कि इसे आम्र कहते हैं। इसलिए कुमारिल स्वामी ने भी पूर्व प्रसंग में ही कहा है कि -

अधर्मे धर्मरूपे वा ह्यविभक्ते फलं प्रति।

किमप्यस्तीतिविज्ञानं नराणां क्वोपयुज्यते॥ 105 ॥

इसका अर्थ यही है कि 'अमुक धर्म का अमुक फल है और अमुक अधर्म का अमुक, जब तक यह विशेष ज्ञान न हो जावे तब तक धर्माधर्म भी कोई वस्तु है यह सामान्य ज्ञान किस काम का है?' यदि यह कहा जावे कि यज्ञ, दान और हवन आदि ही विशेष धर्म हैं तो यह कहना पड़ता है कि, एक तो इस बात के मानने में प्रमाण ही क्या है? दूसरे तो फिर बौद्धों के चैत्यवंदन - (बुद्ध भगवान की अस्थि को ताम्र आदि के पात्र में रख कर उसके ऊपर कुछ स्तूप या ऊँचे टीले वगैरह बनाए जाते थे उन्हें ही चैत्य कहते हैं, क्योंकि उसके नीचे अस्थि का चयन वा चिति होती है, और उसके ही वंदन को चैत्यवंदन कहते हैं) - और ईसाई, मुसलमानों के बपतिस्मा और सुन्नत एवं बाइबिल तथा कुरान पढ़ने आदि को भी धर्म क्यों न मानें? अथवा विपरीत ही क्यों न हो? या हिंसा को ही धर्म और अहिंसा को आर्म मानने में कौन-सा बाधक है? इस बात को भट्टाचार्य जी ने उसी प्रसंग में कहा है। जैसा कि -

किन्नुयागादितो दु:खं हिंसादे: किं सुखोद्भव:।

स्वर्गपुत्रादिभेदश्च कीदृशात्कर्मभेदत:॥ 106 ॥

इति यावदविज्ञानं तावन्नैव प्रव र्त्त ते॥इत्यादि॥

इसका समाधान मीमांसक लोग इस तरह करते हैं कि हम यह नहीं कहते कि अमुक पुरुष की कही बात को सत्य मान कर उसे ही धर्म मानिए, अन्य को नहीं। क्योंकि बिना शरीरादि के उपेदश होता ही नहीं और यदि होगा भी तो उसमें यह विश्वास नहीं हो सकता कि किसी अदृश्य व्यक्ति का उपदेश सत्य है वा मिथ्या अथवा इसका कहनेवाला कोई सज्जन है या प्रतारक (ठग) बिना शरीर का ही उपदेशक मानने से यह भी कल्पना हो सकती है कि धर्माधर्म की व्यवस्था मनमानी होगी। क्योंकि जैसी बातें इस संसार में देखी जावें वैसी बातों की कल्पना ऐसी ही है जैसी कि पानी को देखकर अग्नि की कल्पना। यदि उपदेष्टा का शरीर मानेंगे तो जो शरीरी होता है उससे भ्रम या प्रमाद प्रभृति भी हुआ ही करते हैं। अत: उसका ठिकाना ही क्या है, क्योंकि यदि उसकी चार बातें सत्य हों तो दो मिथ्या भी हो सकती हैं। इसीलिए किसी भी पुरुष की बात मानी नहीं जा सकती। किसी पुरुष को सर्वज्ञ मानकर उसके ही उपदेशों को स्वीकार करना भी मनुष्य की बुद्धि वा अनुमान से बाहर है। क्योंकि जब आजकल कोई सर्वज्ञ नहीं दीखता तो कालांतर में था, यह अनुमान भी क्योंकर हो सकता या यह बात बुद्धि में आ सकती है? इन्हीं बातों को वार्तिककार कुमारिल स्वामी ने भी द्वितीय सूत्र पर कहा है। जैसा कि -

सर्वज्ञोदृश्यते तावन्नेदानीमस्मदादिभि:।

निराकरणवच्छक्या न चासीदिति कल्पना॥ 117 ॥

कुडयादिनिसृतत्व त्र्य नाश्वासो देशनासुन:॥ 348 ॥

किन्नुबुद्ध प्रणीता: स्यु किमुकैश्चिहद्दरात्मभि:॥

भदृश्यैर्विप्र लंभा र्थं पिशाचादिभिरीरिता:॥ 140 ॥

एवं यै: केवलं ज्ञान मिंद्रिया द्यनपेक्षिण:।

सुक्ष्मातीतादिविपयं जीवस्य परिकल्पितम्॥ 141 ॥

दृष्टांतो ऽपि न तस्यान्यो नृषुकश्चित्प्रव र्त्त ते॥ 142 ॥

सर्वदा चापि पुरुषा: प्रायेणानृत वादिन:।

यथाऽद्यत्वे न वि स्त्रंभ स्तथाऽतीतार्थकीर्त्तने॥ 144 ॥इत्यादि

इन सब श्लोकों का तात्पर्य वही है जो ऊपर दिखलाया जा चुका है न कि कुछ दूसरा।

किंतु प्राकृतिक पदार्थों से जैसे अन्य उपदेश लिए जाते हैं उसी तरह धर्माधर्म के भी विषय में समझना चाहिए। जिस प्रकार चंद्र-सूर्यादि के उदय और अस्त एवं कालादि के परिवर्तन से यह उपदेश मिलता है कि सांसारिक पदार्थों की एक-सी दशा नहीं रह सकती। सभी आगमापाई वा क्षणभंगुर हैं, अथवा जैसे न्यूटन को सेब के फल के भूमि पर पतन से आकर्षण शक्ति के विषय में उपदेश मिला था। उसी तरह के उपदेशों से धर्माधर्म का निश्चय करना चाहिए न कि बनावटी उपदेशों से। क्योंकि उनके मिथ्या होने का भय या संभावना नहीं है। इस पर जब यह जिज्ञासा हुई कि वह कौन-सा प्राकृतिक पदार्थ अकृत्रिम है जिससे धर्मज्ञान हो सकता है, तो मीमांसकों ने उत्तर दिया कि 'वेद' अथवा तन्मूलक स्मृति आदि। इस पर जब प्रश्नोत्तर होने लगे तो उन्होंने यही सिद्ध किया कि वेद किसी का रचा हुआ नहीं है। इसलिए वे लोग वेद को अपौरुषेय कहते हैं। जिसका अर्थ यह है कि जो किसी पुरुष द्वारा रचा न गया हो। क्योंकि यदि उसकी रचना पुरुष द्वारा हुई होती तो महाभारतादि की तरह उसके कर्त्ता का भी नाम लिखा रहता, अथवा न भी लिखे रहने पर बराबर लोग कहते चले आते कि अमुक पुरुष का बनाया हुआ है। मंत्रभाग तो नहीं, पर ब्राह्मण भाग जो कहीं-कहीं पुरुषों के नाम से प्रतीत होते हैं, उसका यह तात्पर्य नहीं है कि उन पुरुषों ने उन भागों की रचना की है। किंतु जिसने जिस शाखा का विशेष अध्यातपन वा प्रचार किया उसी के नाम से वह शाखा प्रसिद्ध हो गई। जैसा कि आजकल भी गानविद्या वा युद्धविद्या के प्राचीन होने पर भी जिसने उसमें विशेष कुशलता दिखलाई, उसके संबंध में उसका नाम हो गया अथवा होता है, जैसा कि तानसेन या मास्टर मदन प्रभृति का। अथवा वे नाम इन उन शास्त्रों के ही हैं। परंतु जो उसमें विशेष संलग्न या प्रवीण हुए उनका भी वही नाम हो गया। जैसी प्रथा आजकल भी है और वेदों में भी ऐसे-ऐसे आख्यान आते रहते हैं। जैसा कि प्राणों की उपासना करने वाले एक ब्रह्मचारी का वर्णन छांदोग्योपनिषद् में है। जो अपने को प्राणस्वरूप समझता और वैसा ही व्यवहार करता था, इत्यादि रीति से मीमांसा दर्शन के आख्या प्रवचनात्।1 ।1 ।30। इत्यादि सूत्रों के भाष्य और वार्त्तिकादि ग्रंथों में यह बात विस्तार पूर्वक दिखलाई गई है।

इन पूर्वोक्त बातों का खंडन-मंडन करके जिन लोगों का यह आग्रह होता है कि वेद पौरुषय ही हैं वे लोग मीमांसकों के अभिप्राय को नहीं समझते। यदि यह वार्त्ता वस्तुत: न भी हो यही बात मान ली जावे तो भी मीमांसकों के मत का खंडन नहीं होता। क्योंकि वेद को अपौरुषेय बतलाने से उनका तात्पर्य केवल इतना ही नहीं है कि उसमें कहे गए उपदेश निर्दोष होने के कारण सर्वदा ग्राह्य हैं। यदि ईश्वर ने ही वेदों को बनाया हो और वे निर्दोष हों तो भी उनका मत सिद्ध हो ही जाता है, क्योंकि उनका अभिप्राय केवल वेदों का निर्दोष मानने में है। अत: आधुनिक नैयायिकादि मतवादियों का एतद्विषयक दुराग्रह अश्रद्वेय है। मीमांसकों ने तो वेदकर्त्ता ईश्वर या अन्य का खंडन केवल इसीलिए किया कि ऐसा मानने से बहुत-सी कुकल्पनाएँ होने लग जाती हैं, जैसा कि दिखला चुके हैं। परंतु उन कुकल्पनाओं के वारण करने में कोई समर्थ हो तो भले ही ईश्वरनिर्मित या अन्यरचित ही वेदों को मानें। इसमें उनको कोई आग्रह नहीं है इसीलिए वार्त्तिककार ने भी यही अभिप्राय झलकाया है जैसा कि -

क र्त्तृ म त्त्वे तु वेदस्य स म्यंमि थ्यात्व वादिगि:।

कर्त्ता गुणाश्च दोषाश्च महाजनपरिग्रह:॥

एवमादि विनायुक्त्या कल्प्यं मीमांसकै: पुन:।

इदानीमिव सर्वत्र दृष्टान्नाधिकमिप्यते॥

अर्थात वेदों का कर्त्ता मानने पर उनके मानने वाले ईश्वर में मानेंगे और बुद्धादि में दोष। एवं बौद्ध लोग इसके विपरीत। इसी तरह वेदवादी लोग कहेंगे कि यदि वेदोक्त बातें मिथ्या होतीं तो महाजन वा विवेकी लोग उनको स्वीकार करते बहुत दिनों से क्यों चले आते? यह बात बौद्धादि के धर्मग्रंथों में नहीं है, इत्यादि बातें बिना युक्ति या प्रमाण के माननी होंगी और विपरीतवादी लोग इससे विरुद्ध ही मानेंगे। परंतु मीमांसकों को तो इस समय की तरह ही कुछ भी कभी भी अधिक कल्पना करनी नहीं पड़ती है। जैसे नेत्रादि प्रमाण प्राकृतिक हैं वैसे ही वेद को भी वे लोग मानते हैं।

वेदों की अपौरुषेयता के संबंध में एक यह बात भी ध्याहन देने योग्य है कि यद्यपि उनमें उनके रचयिता का नाम नहीं लिखा है तथा उनका निर्माणकर्त्ता कोई पुरुष उसी दशा में माना जा सकता है जब कि उसका उचित रीति से अनुमान किया जा सके। तात्पर्य यह कि वेदों की लेखशैली और संस्कृत-वाक्यावली जैसी है उस ढंग का यदि कोई भी ग्रंथ मनुष्यरचित कहीं भी समुपलब्ध हो जाता तो उसी आधार पर उनका रचनाकाल और रचयिता पुरुष दोनों ही विदित हो जाते। पर यह बात आज तक संभव न हो सकी, वेदों की लेखप्रणाली अलौकिक और अद्वितीय ही है। इसीलिए जिन लोगों के तर्क इस प्रकार के होते हैं कि यदि हम एक पत्र लिखकर अपने घर में बिना नाम का ही रख देवें और थोड़े या अधिक दिनों बाद कोई भी इसे देख यह कहने लग जावे कि यह पत्र तो अपौरुषेय है। कारण कि इस पर इसके लेखक का नाम है ही नहीं। तो क्या उसकी बात मानी जा सकती है? बस, यही हाल वेदों की अपौरुषेयता का है। वे लोग अपौरुषेयतावादी मीमांसकों के पूर्वोक्त अभिप्राय को न हृदयंगम करके ही ऐसा करते हैं। क्योंकि पत्र की रचनाशैली से ही सामान्यत: किसी न किसी लेखक का अनुमान किया जा सकता है। इसी तरह महाभारतादि ग्रंथों या आधुनिक पुस्तकों के दृष्टांतों से भी जो लोग वेदकर्त्ता पुरुष का अनुमान करते हैं वे लोग भी लेखशैली वाले अभिप्राय से अनभिज्ञ हैं। अतएव उनके वे अनुमान भी अकिंचित्कर ही हैं।

अत: अगत्या यही मानना पड़ता है कि जैसे पृथ्वी, जल, वृक्ष और पशु प्रभृति पर उनके रचयिता ईश्वर का नाम नहीं लिखा हुआ है और वे ईश्वरकृत ही माने जाते हैं साथ ही उनकी रचना भी अद्वितीय है, उसी तरह वेदों को भी पौरुषेय (पुरुष वा मनुष्य कृत) न मानकर ईश्वरकृत ही मानना उचित और युक्तिसंगत है। यही अपौरुषेयतावादी मीमांसकों का वास्तविक अभिप्राय है, न कि वे लोग ईश्वर का सर्वथा ही अपलाप करते हैं। अतएव मीमांसावार्त्तिककार कुमारिल स्वामी ने श्लोकवार्त्तिक के प्रारंभ में ही महर्षि वेदव्यास के श्लोक द्वारा ही मंगलाचरण करते हुए ईश्वर की सत्ता झलकाई है। वह श्लोक यों है -

' विशुद्धज्ञान देहायत्रिवेदी दिव्यचक्षुषे।

श्रया:प्राप्ति निमि त्ता य नम: सोमार्धधारिणे॥ '

इसका अर्थ यह है कि विशुद्ध ज्ञान स्वरूप, तीन वेद स्वरूप, तीन दिव्य नेत्र वाले, कल्याणप्राप्ति के निमित्त और अर्द्धचंद्र (द्वितीया के चंद्र) को धारण करनेवाले परमात्मा शिव को नमस्कार है। यही अर्थ इसका लोक उचित और सर्वविद्वजन एवं मीमांसा सम्मत है। अतएव केवल कर्म को प्राधान्य देने वाले - कर्म ही सब कुछ है और वही सुख-दु:खादि का देनेवाला है न कि दूसरा कोई ऐसा कहनेवाले मीमांसकों का अभिप्राय केवल यही है कि लोग उसी को सर्वप्रधान मान उसके लिए सजग और सन्नद्ध हो कर्मवीर वा सच्चे कर्मयोगी बन जावें और विशेष रूप से उनका ध्यान कर्मों पर ही आकृष्ट हो। इस प्रकार जब लोग कर्मों को श्रद्धा से करेंगे तो आगे चलकर उनके फलों की प्राप्ति मं कौन-सी अड़चन है? ईश्वर की कृपा से वे मिल ही जावेंगे। न कि उनका यह तात्पर्य है कि ईश्वर है ही नहीं अस्तु, जब हम वेदों को अपौरुषेय मानते हैं तो यह हमारा अभिप्राय कदापि नहीं कि उनके प्रादुर्भाव से मनुष्य का कुछ भी संबंध है ही नहीं, जैसा कि पृथ्वी, जल आदि का प्रादुर्भाव बिना मनुष्यों की सहायता के स्वतंत्र रूप से ही हुआ है। क्योंकि पृथ्वी, जल प्रभृति तो ज्ञान की तरह सर्वदा परतंत्रक स्वरूप नहीं हैं। अतएव वे बिना किसी मनुष्य, जीव वा शरीर की सहायता के भी हो सकते हैं, जैसा कि देखा ही जाता है। परंतु वेद शब्द का अर्थ है ज्ञान और वास्तव में सबसे प्रथम होने वा कहने वाले ईश्वरीय ज्ञान स्वरूप ही वेद हैं भी। इससे वे बिना शरीर वा पुरुष के प्रकट हो सकते नहीं। अतएव इस विषय में आस्तिक सिद्धांत यही है कि वेदों के मंत्र समाधिस्थ महर्षियों के अंत:करणों में व्यक्त हुए थे। अतएव लोक में जो यह व्यवहार है कि अमुक मंत्र का ऋषि अमुक है उसका तात्पर्य यही है कि ईश्वरीय कृपा से समाधिस्थ उस ऋषि के अंत:करण में वह मंत्र प्रथम व्यक्त हुआ था। इसी से लोगों को यह भ्रम होने लगा कि वह मंत्र उसी ऋषि का बनाया हुआ है। इसी तरह अमुक मंत्र का देवता अमुक है, इसका भी अर्थ यही है कि उसी देवता का प्रतिपादन वा स्तुति उस मंत्र में है। अस्तु -

इस प्रकार सामान्यत: कर्म की सत्ता सिद्ध करने के उपरांत मीमांसकों ने उसे भिन्न-भिन्न फलों के लिए भिन्न स्वरूपों में विभक्त किया है। जैसे स्वर्ग प्राप्ति के लिए अग्निहोत्र और ज्योतिष्टोमादि यज्ञ, वृष्टि के लिए कारीरी याग, पुत्र के लिए पुत्रोष्टि, पितरों की तुष्टि के लिए पितृयज्ञ (श्राद्ध तर्पणादि देवों के लिए देव यज्ञ बलि वैश्वदेवादि) प्रभृति को समझना चाहिए। इस जगह पर कर्मों के फल के संबंध में मीमांसकों का एक निश्चित और अवश्यज्ञेय सिद्धांत यह है कि वे यह नहीं मानते कि कर्मों के फल उनके कर्त्ता को ही प्राप्त होते हैं। जो यह नियम है कि शास्त्रफलं प्रयोक्तरि अर्थात कर्म के फल कर्त्ता को ही मिलते हैं, वह सामान्यत: है न कि सभी जगह लगता है। क्योंकि यदि ऐसा मान लिया जावे तो पूर्व वंतोऽविधानार्था: है (मी. अ. 1 सू. 17) इस वैश्वानरेष्टि वा जातेष्टि नामक यज्ञ के प्रकरण में जो यह लिखा गया है कि वैश्वानरं द्वादशकपालं निर्वपेत् पुत्रे जाते...यस्मिन्आत एतामिष्टिं निर्वपति पूत एव तेजस्व्यन्नाद इंद्रियाघो पशुमान् भवति। अर्थात पुत्र के उत्पन्न होते ही जातेष्टि वा वैश्वानर यज्ञ पिता करे। उससे पुत्र तेजस्वी अन्न से संपन्न हृष्ट पुष्ट इंद्रिय वाला और पशु वाला होता है, वह मिथ्या...क्योंकि नास्तिक लोग तो पारलौकिक अपने या दूसरे के किए हुए कर्मों के फलों को मानते ही नहीं। अत: वे तो चाहें कह सकते हैं। परंतु आधुनिक वैदिक कहलाने वाले जो कर्मों के पारलौकिक फलों को मानते हैं, क्योंकर ऐसा कह सकते हैं? अतएव उनका यह कथन केवल पूर्वप्रदर्शित मीमांसासिद्धांत को न जानकर ही है। क्योंकि पितादिकों के लिए श्राद्ध, दानादि करने वाले पुत्र प्रभृति तो एक प्रकार ऋत्विक की तरह हैं। अत: उनका किया हुआ पितादिकों को क्यों न मिलेगा? साथ ही वह पितादिकों के ही उद्देश्य से किया भी जाता है।

यदि इस पूर्वोक्त अभिप्राय को हृदयंगम न कर सकने के कारण वे लोग यह कहने का साहस करें कि पुत्र प्रभृति द्वारा किए गए श्राद्धादि मृत पितादि को प्राप्त हो जाते हैं इसमें प्रमाण ही क्या है? कारण वे अन्यत्र और हम अन्य जगह रहते हैं। जिस प्रकार इस संसार में विदेशवासी पुरुष के पास उसके संबंधियों के भेजे हुए द्रव्य वगैरह डाक द्वारा पहुँच जाते हैं उसी प्रकार मृतकों के पास श्राद्धादि की वस्तुएँ पहुँचाने वाली कौन-सी डाक है? साथ ही यहाँ तो उसके पास पहुँचने की रसीद मिला करती है, जिसके न मिलने पर प्रवासी के पास प्रेषित वस्तु के पहुँचने में संशय रहता है, अथवा वह नहीं ही पहुँचती है, पर वहाँ कौन-सी रसीद मिलती है जिससे पहुँचना सत्य प्रमाणित हो? और रसीद न मिलने की दशा में यह क्यों न कल्पना की जाए कि बीच के ही बेईमान लोगों ने उस पदार्थ को हड़प लिया, जैसा कि देखा जाता है कि तीर्थ के पंडे, महाब्राह्मण व पुरोहित आदि ही उस पदार्थ को भोगते हैं? एक बात और भी ध्याान योग्य है, वह यह कि मृत्यु के अनंतर सर्वदा ही सभी लोग किसी पितादि लोक विशेष में ही रहा करते हैं यह वार्त्ता तो मानी जा सकती नहीं, क्योंकि ऐसी दशा में नई सृष्टि रुक जावेगी और हमारा वैदिक सिद्धांत भी ईसाई अथवा मुसलमानों के सिद्धांत-सा ही हो जावेगा, जो युक्तियुक्त नहीं है। अत: यह मानना ही पड़ेगा कि मृत्यु के अनंतर पुनर्जन्म भी होता ही है। ऐसा मानने में पुनर्जन्मवाद वाली सभी युक्तियाँ सहायक होंगी। ऐसी दशा में यदि मृतक पिता प्रभृति पशु, कीट, पक्षी अथवा राक्षसादि योनि में उत्पन्न हो गए - क्योंकि वह अमुक योनि में जन्म लेंगे यह तो निर्धारित है ही नहीं - तो उनके लिए जौ के कच्चे आटे के पिंड या तिल वगैरह किस काम के? उनके लिए तो उस उस योनि के सेव्य पदार्थ घास प्रभृति मिलने चाहिए। तो क्या घास वगैरह के भी पिंड दिए जावेंगे? यह भी तो देखा जाता है कि हम लोग जितने यहाँ दीखते हैं सभी ने मृत्यु के बाद ही जन्म लिया है। पर किसी को भी कभी भी पिंड वा तिलों की प्राप्ति स्वप्न में भी नहीं हो रही है। क्या इससे पूर्व जन्म के हमारे संबंधी लोग हमारे वास्ते श्राद्ध न करते होंगे? तो फिर वह क्या हुआ?

एक बात यह भी विचारणीय है कि जब मृत्यु के बाद तुरंत ही जन्म का होना सिद्ध है, जैसा कि भगवद्गीता में भी कहा है कि -

' वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृ ह्वा ति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ '

अर्थात जिस तरह मनुष्य पुराने कपड़े को छोड़ते ही नए वस्त्र को पहन लेता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने (प्रथम) शरीर को छोड़ते ही नया शरीर धारण करता है, तो फिर किसके लिए श्राद्धादि किए जावें? एवं वैतरणी प्रभृति यमपुरी के मार्ग में रहनेवाले स्थानों के लिए गोदान वगैरह कर्म किए जावें? क्योंकि यमपुरी या स्वर्गादि में तो जाने का अवकाश जीवों को है ही नहीं। अतएव यमपुरी और यमदूत आदि एवं विविध नरकों को मानना केवल कमाने का रास्ता और पॉपलीला मात्र है। इतने पर भी यदि यह दुराग्रह बना ही रहे कि पुत्रादि द्वारा किए गए श्राद्ध प्रभृति मृत पितरों को मिलते ही हैं, तो इसकी जाँच इस प्रकार करके संतोष करना होगा। अर्थात प्रथमत: जीवित पिता को ही कोठे पर बिठा कर उसके नीचे वाले मकान में पिता के ही निमित्त ब्रह्मभोज वा श्राद्धादि करके यह देख लेना चाहिए कि वे पदार्थ कोठे पर ही स्थित पिता को मिलते हैं वा नहीं। यदि इतनी ही दूर रहनेवाले को नहीं मिल सके तो लोकांतर वा शरीरांतर में रहनेवाले मृत जीवों को क्योंकर मिल सकेंगे? यह विषय विश्वास से बाहर है। यदि यह बात होती कि जिस किसी के नाम से जो ही कुछ जहाँ ही कहीं कोई भी दे देवे, वह उसे, जहाँ रहेगा वहाँ ही मिल जावेगा, तो फिर परदेश करनेवाले को चोर वा डाकुओं के भय से बचने के लिए रुपये वगैरह सामान साथ ले जाने की क्या आवश्यकता है? घर पर ही उतनी वस्तुएँ उनके नाम से ब्राह्मण वगैरह को दे दी जानी चाहिए, बस इतने ही से प्रवासी लोग जहाँ रहेंगे वहाँ ही से चीजें उन्हें मिल जाया करेंगी।

यदि विचारदृष्टि से देखा जाए तो सभी कुतर्क और बातें निस्सार विदित होंगी। कारण, धार्मिक कारणों में साधारण डाक और रसीद की आवश्यकता ही नहीं है। इस संसार के ऐहलौकिक कार्यों में रसीद वगैरह की आवश्यकता तो इसलिए पड़ा करती है कि न तो भेजनेवाला ही सर्वज्ञ और भूत-भविष्य का वेत्ता है और न सरकार ही, जिसके प्रबंध से विदेश में रुपये आदि भेजे जाते हैं। साथ ही डाक के कर्मचारी और प्रबंधकर्त्ता मनुष्य ही हैं और भेजनेवाला भी वही। ऐसी दशा में भेजने वाला कर्मचारियों और प्रबंधकर्त्ताओं का विश्वास क्योंकर कर सकता है? कारण कि भूल और बेईमानी आदि मनुष्यों के साधारण धर्म हैं। अत: वह उन्हें भी अपने ही सदृश समझता है चाहे वे सत्पुरुष ही क्यों न हों। उसकी यह धारणा उचित भी है। क्योंकि जिनको हम अच्छी तरह जानते हैं और जो हमारे पूर्ण परिचित हैं जब उनमें भी भूल और बेईमानी देखी जाती है तो जिनसे हम बिलकुल ही अपरिचित हैं उनका विश्वास क्योंकर करें? परंतु यह बात ईश्वरीय राज्य और प्रबंध में संभव नहीं। वह तो सर्वज्ञ, दयालु, न्यायकर्त्ता एवं भूत-भविष्यादि सभी का जानने वाला है। वह अपने प्रबंध को अपनी आँखों देखता रहता है, कारण वह सर्वत्र ही विद्यमान है। अत: उसकी साक्षिता में - क्योंकि वह व्यापक है और अग्नि आदि भी उसी के स्वरूप हैं - जो कुछ भी दिया वा किया जावेगा वह जिसके निमित्त होगा उसी को निस्संदेह प्राप्त होगा, चाहे वह कहीं भी हो। अतएव यदि अपने लिए भी किया जाएगा तो अपने आपको भी, जहाँ रहेंगे, अवश्य ही प्राप्त होगा। वहाँ भूल अथवा बेईमानी की जगह कहाँ? ऐसी दशा में रसीद की आवश्यकता ही न रह गई, वरन उसके लिए प्रश्न करना ईश्वर की ईश्वरता और न्याशीलता में बट्टा लगाना और परम नास्तिकता है। इसी से चार्वाकादि नास्तिकों को ही यह मत मान्य हो सकता है न कि वैदिक नामधारियों को भी और उन्हें भी वही मार्ग रुचा तो उनको प्रच्छन्न नास्तिक समझना चाहिए।

यदि यह बात न मानी जावे तो अपने लिए जो कुछ भी पारलौकिक कार्य किए जाते हैं वे भी न किए जा सकेंगे। कारण परलोक अथवा जन्मांतर में हमारे कर्मों का फल हमें मिलेगा इसमें प्रमाण ही क्या है? जो कुछ भी हमने किया है उसकी रसीद हमारे पास है ही क्या जिससे उसके मिलने का विश्वास करें। इसीलिए कोठे वाला अथवा विदेश यात्रा करने वाले का दृष्टांत भी विषम और असंगत है। क्योंकि यदि कोठे के नीचे रहनेवाले को खिलाया हुआ कोठे पर वाले को न मिलने और यहाँ खिला या दे देने से परदेश वाले को न मिलने से यह मान लिया जावे कि अन्य का (पुत्रादि का) किया वा दिया अन्न (मृत पितादि) को नहीं मिलता तो उसी दृष्टांत से यह भी मानने को विवश होना होगा कि अपना किया भी पारलौकिक कर्म अपने को फलदायक नहीं होता। कारण अपने लिए भी खिला वा देकर कोठे पर अथवा विदेश में उसे नहीं पाते। फिर उसमें भी क्योंकर विश्वास हो? इसलिए यही हार कर कहना और मानना होगा कि मनुष्य कर्म करने में ही स्वतंत्र है न कि उसके फल पाने में। जैसा कि भगवान ने कहा है कि 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' गीता 02। 47 अतएव चाहे तभी उसके कर्मों का फल उसे नहीं मिल सकता। किंतु उसका समय आने पर ही मिलेगा। इसी से यदि कोई आम्र वृक्ष लगाकर शीघ्र ही अथवा कुछ ही दिन बाद इसका फल खाना चाहे तो नहीं खा सकता है, किंतु उसका समय आने पर ही। अत: अपने लिए भी जो कार्य वा कर्म करेंगे उसका फल हमारी इच्छा के अनुसार ही कोठे पर अथवा परदेश में नहीं मिल सकता, वरन अपने समय पर ही नियम के अनुसार ही मिलेगा, चाहे कभी मिले। बस, ठीक-ठीक यही हाल दूसरे (पुत्रादि) के किए हुए को दूसरे (मृत पितादि) को मिलने के विषय में भी समझ लेना चाहिए। अत: रसीद और कोठे आदि परीक्षा की कसौटी वाली बात धर्माधर्म के विषय में केवल अनभिज्ञता मूलक कर्म योग के रहस्य को न जानकर ही है।

रह गई डाकवाली बात। सो तो है ही। ईश्वरीय राज्य और प्रबंध में तो ऐसी विलक्षण डाक बनी और लगी हुई है जिसे सभी मानते जानते हैं। उसका प्रबंध ऐसा जँचा जँचाया और पक्का है कि कोई चूँ तक नहीं कर सकता। चंद्र और सूर्य का ठीक समय पर ही उदय एवं अस्त होना, ऋतुओं का अपने-अपने पर ही अवश्य प्रादुर्भाव और उनके फल फूलादि का अपने-अपने जँचे जँचाए ही समय पर उत्पन्न होना, बहुत दिनों तक पृथिवी में पड़े हुए बीजों से भी अपने ऋतु वा समय पर ही अंकुर निकलना तथा उनसे अन्नादि की प्राप्ति और संसार के अन्यान्य जीवनाधीन कार्यों का उचित समय पर ही होना इत्यादि बातें क्या ईश्वर के दृढ़ और कभी न विचलने वाले प्रबंध की पोषक नहीं हैं? यदि किसी को इन बातों से भी संतोष न हो तो वह ईश्वर को मानता ही क्यों है? क्योंकि यदि उसे स्वीकार करेगा तो उसे मानना ही पड़ेगा कि कर्मों के उचित और विभागयुक्त फल प्रदान के अतिरिक्त कोई काम है ही नहीं जिसके लिए वह माना जावे। क्योंकि सृष्टि स्थिति और प्रलयादि भी तो जीवों के कर्मों के फल ही हैं। पूर्वोक्त ईश्वरीय नियम अथवा प्रबंध को अस्वीकार करने वालों से यह प्रश्न हो सकता है या होगा कि, जिस जगह जितने जीव मरते हैं वे उसी जगह तो जन्म लेते हैं नहीं। कारण उन्हें कर्मानुसार सभी भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेना होता है और सभी योनियों के जीव एक जगह मिल सकते नहीं। व्याघ्र जंगल में ही रहता है तो भेड़ बकरियाँ ग्रामों में ही और कस्तूरीमृग बर्फानी जगहों में ही इत्यादि। साथ ही यदि ऐसा मान लिया जावे तो किसी स्थान को भी उच्छिन्न हो जाना वा डीह पड़ जाना न चाहिए। ऐसी दशा में सौ दो सौ अथवा सहस्त्रों कोसों पर उन उन योनि वाले स्थानों में मृत्यु के अनंतर उन जीवों को पहुँचाने वाली कौन-सी डाक, रेल अथवा तार है? यदि थोड़ी देर के लिए स्वीकार भी कर लें कि जो जीव जहाँ मरते वहीं जन्म भी ग्रहण करते हैं तो भी यह प्रश्न अनिवार्य है कि किस डाक, रेल व तार ने उन्हें एक शरीर से अलग कर अन्य पिता के शरीर और माता की देह में पहुँचाया है अथवा कौन पहुँचाया करता है। क्योंकि यदि पिता और माता के शरीर में भागश: उन्हें पहुँचना अथवा केवल पिता के ही शरीर में उनको पहुँचना न स्वीकार करें तो पिता के संयोग बिना ही पुत्र जन्म होना चाहिए। यदि ऐसा भी मानने को कोई निर्लज्ज होकर सन्नद्ध हो तो भी यह प्रश्न नहीं हट सकता। क्योंकि जब माता के गर्भाशय से ही पुत्रोत्पत्ति होती है तो उस गर्भाशय में पहुँचाने वाली कोई डाक अथवा अन्य साधन मानना ही पड़ेगा। बस, जो ही डाक वा अन्य साधन पहुँचाने के इस कार्य को करते हैं, वे ही पुत्रादि द्वारा किए गए श्राद्धादि कर्मों के फलों को मृत पितादि को जहाँ कहीं भी वे हों, पहुँचाते हैं और वे ही हमारे निज के पारलौकिक कर्मों के फलों को भी हमें, मरणांतर जहाँ कहीं भी सहस्त्रों कोसों पर हम जावें पहुँचाते हैं। नहीं तो हमें अपने किए कर्मों के फल जन्मांतर में हमें डाक के न होने से न मिलने चाहिए। परंतु आस्तिक समाज और वैदिक नामधारी इसे मानने को तैयार नहीं।

इस डाक या पहुँचाने के ईश्वरीय साधन को हम केवल तर्कों और युक्तियों से ही सिद्ध नहीं कर रहे हैं किंतु सामवेदीय छांदोग्योपनिषत के पंचम प्रपाठक के द्वितीय से लेकर नवम खंड तक के आठ खंडों अग्नि, विद्या, प्रकरण में यही बात दिखलाई गई है और वहाँ पहले इसी विषय के पाँच उपस्थित हुए हैं, जो युक्त द्वितीय ही 'वेत्थ यदितोऽधि' इत्यादि वाक्यों द्वारा दिखलाए गए हैं, यों का सारांश यही है कि इस संसार में लोगों का आवागमन कार होता है, देवयान और पितृयान मानों द्वारा लोग कैसे देवयान वाले कैसे मुक्त हो जाते हैं लोगों की माता के गर्भ में यदि क्योंकर होती है और देवयान एवं पितृयान मार्गों का कैसा है इत्यादि। यही बात बृहदारण्यकोपनिषद् अष्टम अध्यााय ब्राह्मण में भी ज्यों की त्यों लिखी गई है।

' अग्रौ प्रास्ताहुति: संयगा दित्यमुपतिष्टते।

आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं तत: प्रजा:। ' - मनु. 3 । 73

' अन्नाद्भ वंति भूतानि पर्जन्यादन्न संभव:।

यज्ञाद्भवति पर्जन्य: यज्ञ:कर्म समुद्भव:॥ ' - गीता 3 । 14

अर्थात अग्नि में जो आहुति दी जाती है वह सूर्य के पास जाती है, वृष्टि से जीवों की उत्पत्ति होती है इत्यादि मनुस्मृति और भगवद्गीता के वाक्यों से भी यही बात सिद्ध होती है।

जब इस प्रकार ईश्वरीय प्रबंध या डाक अपने लिए किए गए स्वकीय अथवा परकीय कर्मों के फलों एवं जीवों की देहांतर तथा जन्मांतर में अविवाद रूप से पहुँचाने के लिए सिद्ध हो गई - सर्वमान्य हो गई तो घास इत्यादि के पिंडवाली शंकाएँ और समस्याएँ आप ही आप हल हो जाती हैं। कारण देखा जाता है कि इस संसार के एकदेशी छोटे-बड़े राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र में रुपए पैसे आदि पहुँचाने का सुव्यवस्थित नियम बना लिया है जिसमें कभी भी अन्यथा भाव की संभावना नहीं है। तो फिर ऐसा मानने के लिए कोई भी समुचित कारण प्रतीत नहीं होता कि यही न्याय ईश्वरीय प्रबंध में क्यों न लागू हो और ऐसी ही सुव्यवस्था वहाँ भी क्यों न मानी जाए। क्योंकि प्रथम कहा जा चुका है और आगे भी प्रसंगवश कहा जावेगा कि इन्हीं लौकिक छोटे-बड़े राज्यों और उनके प्रबंधों को देखकर तदनुरूप ही अलौकिक (अप्रत्यक्ष) ईश्वरीय राज्य और प्रबंध का अनुमान किया जाता है। हम देखते हैं कि किसी का कोई संबंधी एक राज्य से दूसरे सुदूर वा निकट के राज्य में चला जाता है और वह अपने संबंधियों को अथवा उसके संबंधी उसकी आवश्यकतानुसार कुछ रुपया आदि भेजना चाहते हैं। साथ ही उन दोनों या उनके मध्यसवर्ती राष्ट्रों के सिक्के वा रुपये भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। तो इसी दशा में वे जिस राज्य में रहते हैं उसी के सिक्के भेजने को बाध्य् होते हैं, परंतु अंतर्राष्ट्रीय नियम के अनुसार पानेवाले को वे सिक्के न मिलकर जिस राज्य में वह रहता है उसी के सिक्के मिला करते हैं। विचित्र बात है कि जो रुपये मिलें वे न भेजे जाएँ और जो न मिल सकें वे ही भेजे जाएँ। एक दूसरा ही भेजने को बाध्य है, दूसरा ही पाने को। यह मनुष्यकृत अंतर्राष्ट्रीय सुशृंखला नियम का प्रभाव है। वास्तव में यदि विवेकबुद्धि से देखा जाए तो पानेवाले को यदि भेजनेवाले के ही सिक्के ज्यों के त्यों अविकल रूप से मिल जाएँ तो उसके किस काम के? पर वे भेजे तो जाते हैं काम के ही लिए अत: ऐसा नियम बना लिया गया है कि भेजे हुए सिक्के उसको उसी रूप में मिलते हैं जिसकी उस राज्य में चलन होती है। औरों को वहाँ कोई पूछ ही नहीं सकता। बस इसी दृष्टांत और न्याय को सर्वतोभाव से ईश्वरीय प्रबंध में लगा लेना चाहिए। मृत पितर चाहे पितृलोक में हों, देवलोक में हों नरक में हों अथवा मनुष्य, पशु, पक्षी एवं कीट आदि योनियों में हों, उनके पूर्व जन्मवाले संबंधी लोग जौ के कच्चे आटे, तिल अथवा तंडुलादि निश्चित वस्तुओं को ही पिंड रूप में प्रदान करेंगे। तथापि उन पितरों को वे वस्तुएँ अमृत, अन्न, वस्त्र व घास आदि उन्हीं वस्तुओं के रूप में मिलेंगी व मिलती हैं जिनसे उनको उन स्थानों और योनियों में लाभ पहुँच सकता है, न कि सर्वत्र अविकल रूप से और के पिंड और तिल प्रभृति वे वस्तुएँ ही मिला करती हैं। यहाँ पर यह प्रश्न भी नहीं किया जा सकता कि तिलादि के ही पिंड क्यों दिए जाएँगे और दूसरी वस्तुओं के नहीं। कारण यह नहीं कह सकते कि पृथ्वी के सभी राष्ट्र एक ही प्रकार के सिक्के क्यों नहीं रखते? प्रस्तुत यदन्न: पुरुषो भवति तदन्नास्तस्य देवता: अर्थात मनुष्य जो खाता है वही अपने देवता पितरों को भी समर्पण करे - इसके अनुसार फलादि के भी पिंड दिए जा सकते हैं। जैसा कि वाल्मीकि रामायणादि से स्पष्ट है और देखा भी जाता है कि मनुष्य की मृत्यु के अनंतर दशाहादि के समय मृतक के सुख के लिए सभी प्रकार की वस्तुएँ दी जाती हैं और समय पर सुख की जो वस्तुएँ नहीं मिल सकतीं इनके स्थान पर द्रव्यादि पदार्थांतर ही दे दिए जाते हैं। तथापि नित्य के व्यवहारों में कुछ ऐसे नियम निश्चित रूप से बना देने की आवश्यकता होती है जिनके अनुसार सभी लोग प्रतिदिन ठीक-ठीक व्यवहार किया करते हैं और मनमाना घरजाना होकर किसी बात में गड़बड़ नहीं होने पाता। बस इसी तथा ऐसे ही अन्यान्य विचारों को मन में रखकर महर्षियों ने कुछ अवसरों के लिए श्राद्धादि की आटा, तिल एवं तंडुलादि वस्तुएँ निर्दिष्ट कर दी हैं।

प्रथम जो पूर्वपक्ष में यह कहा गया है कि मृत्यु के अनंतर ही झटपट शरीरांतर मिल जाता है। मृतक को स्वर्ग, नरक, मृतलोक वा यमपुरी आदि में नहीं जाना पड़ता है और इसी की पुष्टि में वासांसि जीर्णानि इत्यादि गीता के वाक्य भी दिखलाए गए हैं। इस पर सिद्धांत पक्ष का वक्तव्य यह है कि यह कल्पना निराधार व प्राणशून्य है क्योंकि मरणोत्तर दस महीने तक तो माता के गर्भाशय में अवश्य ही रहना पड़ता है। साथ ही गर्भाशय में पहुँचाने में जो ईश्वरीय डाक है उससे स्पष्ट है कि वही पहुँचने से प्रथम किरण, वायु और मेघादि में क्रमश: प्रवेश द्वारा अन्न में प्रवेश करा देता है जैसा कि पूर्वोक्त छांदोग्य और बृहदारण्यक आदि के पंचाग्निविद्या प्रकरण से स्पष्ट है। इससे क्यों कर कहा जा सकता है कि मरणोपरांत तुरंत ही शरीर मिल जाता है?

एक बात यह भी विचारणीय है कि जब पारलौकिक व्यवहार अनुमानगम्य है और पृथ्वी के छोटे-छोटे राज्यों को देखकर तदनुसार ही ईश्वरीय राज्य और ईश्वर का अनुमान किया जाता है तो उसकी अन्यान्य बातों की कल्पना भी प्रत्यक्षानुसारिणी ही होनी चाहिए। बस इसी नियम के अनुसार स्वर्ग, नरक, यमपुरी, और यमदूत आदि की कल्पना की गई है। कारण, देखा जाता है कि यहाँ के छोटे-छोटे राजे अपने-अपने राज्य में प्रतिष्ठा की पदवियाँ एवं स्थान सत कार्यों के लिए रखते हैं। उसी प्रकार असत कार्यों, अपराधों के लिए अप्रतिष्ठा सूचक स्थान कारागारादि रखते व अपराध आदि के निर्णय के लिए छोटे बड़े न्यायालय क्रमश: बनाने उनमें विभिन्न पदाधिकारी कार्यानुसार रखते, दंडनीय व्यक्तियों के पकड़ने के लिए वैसे कर्मचारी रखते एवं सत्कार्यों की सूचना के लिए कार्यकर्त्ता रखते हैं। ठीक इसी तरह पारलौकिक व्यवहार में सत्कार्यों के लिए स्वर्गादि तथा असत कार्यों के लिए नरक, वैतरणी आदि की कल्पना की गई है। यमराज को न्यायकर्त्ता समझना चाहिए क्योंकि यम का अर्थ है दंड देने वाला। इसी तरह यमदूतादिक और स्वर्गीय दूतों को भी समझना चाहिए। इससे विपरीत जो कोई भी कल्पना होगी वह प्रत्यक्षानुसारिणी न होने के कारण श्रद्धेय नहीं हो सकती। फिर यह बात कहाँ रह गई कि यमपुरी आदि में जीव नहीं जाते? फिर श्राद्ध किनके लिए किया जाए। मरणोपरांत शीघ्र जन्म के विषय में जो गीता का वाक्य कहा गया है वह भी इसके भाव को हृदयंगम न कर सकने के कारण ही। क्योंकि वहाँ कपड़े का दृष्टांत केवल इसी अंश में दिया गया है कि एक शरीर से दूसरे में जाने में आत्मा ज्यों का त्यों बना रहता है जैसा कि कपड़ा पहनने वाला एक को छोड़ने व दूसरे को पहनने में। दृष्टांत को सब अंशों में नहीं घटाना चाहिए क्योंकि ऐसा कहीं नहीं किया जाता। नहीं तो यह भी स्वीकार करने को बाध्यं होना पड़ेगा जैसे कपड़ा पहनने वाला नए कपड़े पहनकर पश्चात पुराने को उतारता है वैसे ही जीव भी नए शरीरों को प्राप्त कर लेने पर पीछे से पुराने शरीर को छोड़ता है।

यदि यमपुरी आदि को न मानकर भी तुरंत ही शरीरांतर का स्वीकार थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए तो भी शरीरांतर में रहने वाले ही जीव के लिए श्राद्धादि का किया जाना अपरिहार्य होगा। इस विषय में ध्यारन रखना चाहिए कि यदि श्राद्धादि के विषय में पूर्वोक्त अंतर्राष्ट्रीय नियम के सदृश ईश्वरीय प्रबंध में नियम न माने जाएँ तो जन्मांतर की अपनी दी या की हुई वस्तुएँ अपने को मिलती हैं इसमें कोई प्रमाण न मिल सकेगा। कारण यदि हमने पूर्व जन्म में केवल घास में देकर वही वस्तुएँ अपने लिए दूसरे को दी हों अथवा परोपकारादि दूसरे ही धर्मकार्य किए हों और मरणोत्तर हमें हंस या पशु का शरीर मिल जाए तो वहाँ केवल मोती अथवा घास क्योंकर मिल सकेंगे। और अन्य पदार्थ तो मिलते देखे जाते नहीं। अत: यह नियम नहीं माना जा सकता कि अन्य के अथवा अपने लिए जो ही पदार्थ दिए अथवा किए जाते हैं शरीरांत या परलोक में वही अविकल रूप से मिला करते हैं।

इसी तरह जो लोग यह शंकाएँ किया करते हैं कि यद्यपि जो कर्म दृष्टार्थक हैं अर्थात जिनका फल इसी जगह मिलने वाला है, जैसे वृष्टि के लिए किया गया कारीरी याग, उनके विषय में संदेह नहीं हो सकता, कारण उनके फल प्रत्यक्ष प्रमाण गोचर हैं। तथापि स्वर्गादि अदृष्ट फलार्थक जो कर्म हैं प्रमाण हैं? इत्यादि उनके लिए मीमांसकप्रवरों की यह युक्ति है कि वेदों या महर्षियों के उपेदशों के एक अंश को प्रामाणिक देखकर परोक्षांश में भी प्रत्यक्षांशवत ही सप्रमाणता का अनुमान कर लेना चाहिए। क्योंकि जब इस बात में कोई भी प्रमाण नहीं है कि वे लोग स्वार्थी अथवा अकारण परोपकारी थे - कारण, जंगलों में सर्वसुख-परित्याग पूर्वक तप आदि सत्कर्मों में ही अद्दोरात्र दत्तचित्त रहा करते थे एवं प्राप्त संपदाओं तथा प्रतिष्ठाओं की अवहेलना कर कणभक्षण में ही अपने को कृत्कृत्य और वल्कलवस्त्रधारण से ही संतुष्ट समझते थे। हाँ, उनकी सत्यता में क्या परहितार्थ शरीरत्याग तक कर डालते थे जिसके शतश: दृष्टांत महर्षि दधीचि प्रभृति पड़े हैं - तो फिर क्योंकर कहा जा सकता है कि उन लोगों ने जनता के प्रतारणार्थ ही यह उपदेशाडंबर रचा था। यह भी देखा जाता है कि तब उन्हीं के बनाए हुए आयुर्वेद एवं ज्योतिषशास्त्र अक्षरश: प्रामाणिक सिद्ध हो रहे हैं और तुलसी पत्र, गोमूत्र एवं गोमय तथा निंब के वृक्षों की जो महिमा उन्होंने भर पेट गाई है उसे आधुनिक वैज्ञानिक मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं तो फिर पारलौकिक कर्मों के संबंध में उनके उपदेश क्योंकर प्रमाण नहीं माने जावेंगे? इसी तात्पर्य से न्याय दर्शन में कहा गया है कि मंत्रायुर्वेद प्रामाण्यवद्यतत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात् (2। 1। 69) इसका तात्पर्य वही है जो ऊपर दिखलाया जा चुका है। महर्षिवात्स्यायन ने भी कहा है स ने मन्येत दृष्टार्थ एवाप्तो देश: प्रमाणमर्थस्यावधारणादिति, अदृष्टार्थोऽपि प्रमाणमर्थस्यानुमानादिति। (1। 1। 8)। अर्थात ऐसा न समझना चाहिए कि दृष्टार्थक कर्म ही प्रामाणिक हैं, क्योंकि उनका फल प्रत्यक्ष है वरन अदृष्टार्थक कर्मों के भी फलों का इन्हीं द्वारा अनुमान करके उन्हें भी तुल्य रूप ही प्रामाणिकता मिलनी उचित है।

जिन युक्तियों का ऊपर दिग्दर्शन कराया गया है ऐसी ही दार्शनिक रीतियों से मीमांसकानुयायी पंडितों ने दृष्टार्थक एवं अदृष्टार्थक द्विविध कर्मों की प्रामाणिकता अक्षुण्ण रूप से स्थापित की है। यद्यपि लोग कहा करते हैं कि पूर्वोक्त यमपुरी आदि की कल्पनाएँ पौराणिक है क्योंकि दार्शनिक ग्रंथों में उनका उल्लेख नहीं है। तथापि यह बात ठीक नहीं है। कारण न्यायवार्त्तिक में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है। ऐसा न भी मानें तो भी इन पौराणिक कल्पनाओं की प्रामाणिकता बिना पूर्वोक्त मीमांसकों की दार्शनिक युक्तियों को छोड़ अन्यथा सिद्ध नहीं हो सकती है। अतएव इन कल्पनाओं की मीमांसा दर्शन का ही प्रपंच (विस्तार) मानना युक्तियुक्त और विद्वत्सम्मत है।

न्यायवार्त्तिककार भगवान उद्योतकराचार्य ने अपने वार्त्तिक में इस प्रकार स्पष्ट रूप से वैतरणी नदी का वर्णन विज्ञानवादी बौद्ध के मतखंडन प्रसंग में किया है -

'अथ मन्यसे यथा तुल्यकर्मविपाकोत्पन्ना: प्रेता: पूयपूर्णां नदीं पश्यंति। न तन्न नद्यस्ति, न पूयं, न ह्येकं वस्त्वनेकाकारं भवितुमर्हति। दृष्टाश्च विज्ञानभेद: के चित्तामेव जलपूर्णां पश्यंति, केचित् रुधिरपूर्णामिति।' (न्याय. वा. अ. 4, अ. 2 सू. 34)

यदि विज्ञानवादी की यह शंका हो कि जिस प्रकार मरणोत्तर यमपुरी के मार्ग में एक ही प्रकार के दुष्कर्म से यातना (शास्ति) शरीर पानेवाले मृतक पीव आदि से पूर्ण नदी (वैतरणी) का अनुभव करते हैं और वहाँ वस्तुत: वैसी नदी है। साथ ही दूसरे प्रकार के मृतक (प्रेत) उसी नदी को जलपूर्ण देखते हैं और यह संभव नहीं कि एक ही वस्तु (नदी) अनेक विरुद्ध प्रकारों की हो जावे। इससे मानना होगा कि वहाँ पूय (पीव) पूर्ण नदी न होने पर भी किसी दोषवश उन्हें प्रतीत होती है। ठीक यही दशा संसार की भी है। यद्यपि यहाँ भी पदार्थ वस्तुत: नहीं हैं, तथापि दोष वश ही प्रतीत भर होते हैं। इत्यादि। इससे निर्विवाद सिद्ध है कि यह यमपुरी आदि की कल्पना दार्शनिकों को भी मान्य है।

यहाँ इस बात को भी विस्मृत न होने देना चाहिए कि सामग्री के रहने पर ही कार्य हुआ करता है, न कि एकाध कारण मात्र के रह जाने से। सकल कारण - कारणसमूह वा साकल्य - को ही सामग्री कहते हैं। यह कभी नहीं देखा जाता कि केवल अग्नि, स्थाली वा काष्ठादि अथवा इनमें से दो या तीन के भी होने से पाक (रसोई) कभी भी निष्पन्न हो जावे। इस कथन का प्रकृत में यह उपयोग है कि जिसके उद्देश्य से वा जिसके लिए श्राद्धादि किए जाते हैं उसे वे उसी दशा में प्राप्त हो सकेंगे जबकि उनकी प्राप्ति की सामग्री विद्यमान हो। उन वस्तुओं को मृत पितादि के पास पहुँचाने के लिए जिन-जिन कारणों की आवश्यकता होती है उनमें अज्ञान वा सांसारिकता भी एक है, तात्पर्य यह कि जब तक वह मृतक मुक्त न हो जावेगा तभी तक वे पदार्थ उसे मिल सकेंगे। या यों कहिए कि जब तक उसे उनकी आवश्यकता बनी रहे, योग्यता बनी रहे और उसे उनका इनकार या उनकी कामना का परित्याग न हो गया हो। कारण, मुक्त की सभी वासनाएँ विलीन हो जाती हैं, और वह मुक्ति से प्रथम ही ब्रह्मलोक पर्यंत को तृणवत समझता है। लोक में भी देखा जाता है कि जिसके पास कोई पदार्थ डाक द्वारा भेजा जावे पर उसमें किसी प्रकार की अयोग्यता ऐसी आ पड़े जिससे वह न पा सकता हो तो कभी भी नहीं पाता और इनकार वा अस्वीकार की भी दशा में वह प्रेरित पदार्थ प्रेरक को ही प्राप्त हो जाता है। अत: मुक्त पुरुषों के लिए जो श्राद्धादि होते हैं - क्योंकि करनेवाले को क्या मालूम कि उसके मृत पितादि मुक्त हो गए हैं - वे न तो मुक्त पुरुष को ही मिलते और न व्यर्थ ही हो जाते हैं, वरन उनका फल कर्त्ता को ही मिलता है। या यों कहिए कि वे कर्त्ता के पास लौट आते हैं और उसे इस जन्म या जन्मांतर में मिलते हैं, क्योंकि पारलौकिक पुण्य-पापों के भी फल कभी-कभी पर बहुत ही कम, इस जन्म में भी प्राप्त हो जाया करते हैं। जैसा कि अभियुक्त पुरुषों का वचन है कि -

त्रिभिर्वर्षैस्त्रिभिर्मासैस्त्रिभि: पक्षैस्त्रिभिर्दिनै:।

अत्युत्कटै: पुण्यपापैरिहैव फलमश्नुते॥

- अत्यंत उत्कट पुण्य-पापों के फल इसी जन्म में उनको योग्यता के अनुसार तीन वर्षों, तीन महीनों, तीन पक्षों वा तीन दिनों में ही मिल जाया करते हैं। इससे दैवात मुक्त पितादि पर ध्याान देकर श्राद्धादि के वैयर्थ्य की जो शंका हो सकती या हुआ करती है वह भी नहीं हो सकती। अतएव अब इस बात के स्वीकार में आनाकानी नहीं की जा सकती कि जिन कर्मों को हम पौराणिक कह माना करते हैं और वैदिक नाम से किया करते हैं वे सभी पूर्व मीमांसा दर्शन के ही विषय हैं। अत: उन्हें केवल पौराणिक नहीं कह सकते। अथवा यदि किसी को उन्हें ऐसे ही मानने का आग्रह वा अभिनिवेश हो तो भले ही रहे, तथापि उन्हें प्रामाणिक सिद्ध करना मीमांसा दर्शन का ही काम है जैसा कि प्रथम कहा गया है। इसी बात को भट्ट कुमारिल स्वामी ने अपने मीमांसावार्त्तिक में एक स्थान पर यों कहा है :

धर्मे प्रमीयमाणे हि येदेन करणात्मना।

कृतिकर्तव्यता भांग जीवांचा पूरयिष्यति॥

- जिस प्रकार काष्ठच्छेदन क्रिया में परशु करण (साधन) होता है और उसका उद्यमन निपातन इतिकर्तव्यता वा क्रियानिष्पादन का प्रकार। क्योंकि परशु से क्योंकर काष्ठच्छेदन किया जावे ऐसी जिज्ञासा होने पर यही कहा जाता है कि उसे ऊपर उठा एवं काष्ठ पर गिरा कर। ठीक इसी प्रकार जब धर्म के स्वरूप अथवा उसकी प्रामाणिकता का निर्णय किया जाता है तो उस निर्णय क्रिया में वेद (क्योंकि स्मृतियाँ, पुराणों और सदाचारों को भी वेदमूलक होने से ही मीमांसक लोग धर्म में प्रमाण माना करते हैं) करण होते हैं और मीमांसा ही इतिकर्तव्यता हुआ करती है। अर्थात जैसे उद्यमन निपातन बिना काष्ठच्छेदन नहीं हो सकता, वैसे ही मीमांसा दर्शन की युक्तियों एवं प्रमाणों के बिना धर्म के स्वरूप का निर्णय नहीं हो सकता। अतएव भगवान मनु ने कहा है कि -

आर्ष धार्मोपदेशं च वेदशास्त्रविरोधिना। यस्तर्केणानु संधत्रे स धर्मं वेद नेसर:॥ ( म. अ. 12 , श्लोक 106)

'जो वेदों एवं स्मृत्यादि के धर्मोपदेशों का विचार तदगुण मीमांसा दर्शन की युक्तियों (न्यायों वा तर्कों) द्वारा करता है वही धर्म के वास्तविक स्वरूप को जानता है न कि अन्य भी।' पूर्वोक्त कुमारिल स्वामी के वार्त्तिक में केवल धर्म शब्द आया न कि कोई विशेष शब्द और मीमांसक लोग वेदमूलक होने से पुराणादि को भी उसी तरह प्रामाणिक मानते हैं, तथा मनुजी का पूर्वोक्त वाक्य भी इसी बात का पोषक है। ऐसी दशा में सभी सनातन धर्म स्वरूप प्रासादों को मीमांसा दर्शन की युक्ति स्वरूप भित्तियों पर अवलंबित मानना ही युक्तिसंगत है। अस्तु।

जिन युक्ति-प्रमाणों का अब तक दिग्दर्शन कराया गया है, अथवा यों कहिए कि जिन प्रमाणों के आधार पर मीमांसक लोग धर्माधर्म के गहन तत्त्वों का निर्णय करामलकवत करते और विरुद्ध मतवादियों के मतों का यौगिक निराकरण करते हैं, उन्हें उन लोगों ने छ: भागों में विभक्त किया है। उनके नाम प्रत्यक्ष अनुमान, आगम (शब्द) उपमान, अर्थ तथा अनुपलब्धि हैं। यद्यपि धर्म के स्वरूप निर्णय में केवल आगम (शब्द) प्रमाण ही अपेक्षित है और सच पूछा जावे तो उसी की वहाँ गति है, जैसा कि प्रथम सविस्तार दिखलाया जा चुका है और महर्षि जैमिनि को भी अभिमत है। कारण वे लिखते हैं कि -

औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन संबंधस्तस्य ज्ञानमुपदेशोऽव्यतिरेकश्चार्थेऽनुपल ब्धे तत्प्रमाणं बादरायणस्यान प्रेक्षत्वात्। ( मी. अ.1 , पा.1 , सू. 5)

वेदादिवाक्य रूप आगम ही धर्म में प्रमाण है क्योंकि शब्द और अर्थ का संबंध नित्य है और उससे जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसका कभी भी बाध नहीं होता तथा उसे किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं है। अतएव वह प्रकारांतर से अविदित अर्थ का ही बोधक होता है। यह बात बादरायणाचार्य भी मानते हैं। मीमांसा दर्शन भाष्य में भी इस स्थल पर ऐसा ही प्रतिपादन किया गया है। तथापि वैदिक धर्म की प्रतिद्वन्द्विनी जितनी शंकाएँ और उसके विरोधी जितने मतवाद हैं उनका खंडन सप्रमाण किए बिना धर्मस्वरूप का निर्णय सर्वथा असंभव है। साथ ही पूर्वापर संदर्भ-निर्णय बिना प्रत्यक्ष और अनुमानादि के हो सकता नहीं। इसीलिए शब्द से भिन्न भी पाँच प्रमाणों का अवलंबन मीमांसा धुरीणों ने किया है। यद्यपि मीमांसा दर्शन के अनंतर होनेवाले न्यायदर्शन में चार ही प्रमाण माने गए हैं और अंत के दो त्याग दिए गए हैं, तदुपरांत वैशेषिक दर्शन में प्रत्यक्ष तथा अनुमान दो ही माने गए हैं पुन: सांख्य और योग ने प्रत्यक्ष, अनुमान एवं शब्द तीन ही माने हैं। तथापि उन लोगों ने उन्हीं से अन्य प्रमाणों के काम चलाकर उनमें उनका अंतर्भाव कर दिया है। अत: इस विषय में विवाद किसी दर्शन को भी नहीं है, केवल नाम और प्रक्रियाएँ भिन्न-भिन्न हैं। क्योंकि ये दर्शन सभी लोगों को ऊहापोहकुशल बनाते हुए परमात्मा तक पहुँचा देने के ही लिए प्रवृत्त हुए हैं। परंतु मीमांसकों की दृष्टि संकुचित नहीं है। अतएव कुछ ही प्रमाण नाम के लिए स्वीकार कर उन्हीं से इतर प्रमाणों का भी काम चलाना उन्होंने गुरुतर तथा क्लेशजनक समझ त्याग दिया है और व्यापक दृष्टि का अवलंबन कर उन्होंने छ: प्रमाण स्वीकृत किए हैं। यह तो हुई पूर्वमीमांसा दर्शन की बात। ठीक यही दशा उत्तरमीमांसा या वेदांत दर्शन की भी है। उसने भी छ: ही प्रमाण माने हैं। कारण उसकी दृष्टि तो और भी व्यापक और उदार है। इस प्रकार प्रमाणों की उतरती और चढ़ती सीढ़ी छ: प्रमाणों से प्रारंभ होकर छ: ही पर विश्राम लेती है।

इनमें से प्रत्यक्ष प्रमाण से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे भी प्रत्यक्ष ही कहते हैं। एवं अनुमान से उत्पन्न ज्ञान को अनुमिति शब्द से शाब्दबोध, उपमान से उपमिति, अर्थापत्ति से अर्थापत्ति तथा अनुपलब्धि प्रमाण से उत्पन्न ज्ञान को अभावनिश्चय कहा करते हैं।

इंद्रियों को ही प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। परंतु यह धारणा साधारण है। किसी-किसी के मत में इंद्रिय तथा विषय का सन्निकर्ष ही प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाता है। परंतु इससे भी आगे बढ़कर बहुतेरे लोग उससे उत्पन्न ज्ञान को ही प्रत्यक्ष माना करते हैं। इसी प्रकार अनुमिति शब्द प्रभृति के संबंध में भी जानना चाहिए। अतएव भट्टाचार्य ने मीमांसावार्त्तिक में लिखा है कि -

प्रमाणं चापि शब्दो वा तज्ज्ञानं वा निरूप्यते। पदार्थ स्तन्मतिर्वास्याद् वाक्यार्थाधिगमोऽथवा॥10॥ (अ.1 , पा.1 , सू. 2)

प्रमाण शब्द को भी कहते हैं और उसके ज्ञान, पदार्थ, पदार्थज्ञान अथवा वाक्यार्थबोध को भी। शब्द प्रमाण का प्रकरण था, इससे उन्होंने केवल शब्द प्रमाण के संबंध में होने वाले ही मतभेदों का वहाँ उल्लेख किया है। यही बात तुल्य न्याय से अन्य प्रमाणों के विषय में भी उन्हें इष्ट है। अतएव भाष्यकार शबरस्वामी चतुर्थ सूत्र के भाष्य में स्पष्ट ही लिखते हैं कि - बुद्धिर्वा, जन्मवा, सन्निकर्षो वा नैषां कस्यचिदवधरणार्थं सूत्रम्।

- चतुर्थ सूत्र इस निर्णय के लिए नहीं बना है कि इंद्रिय सन्निकर्ष, बुद्धि, जन्म अथवा बुद्धि में से किसी अमुक को ही प्रमाण मानना चाहिए। इसी प्रकार प्रमिति (प्रमा) वा फल के विषय में भी समझ लेना होगा कि इंद्रिय अथवा सन्निकर्ष आदि को प्रमाण मानने पर विषयज्ञान वा वाक्यार्थ बोध ही फल (प्रमा) कहलाता है पर, जब उसे ही प्रमाण मान लेते हैं तो हानि, उपादान वा उपेक्षा अथवा प्रवृत्ति, निवृत्ति या उदासीनता के ही ज्ञान को फल मानते हैं। कारण, ज्ञानोत्तर इष्ट वस्तु द्रव्यादि की बुद्धि स्वभाविक होती है। एवं अनिष्ट सर्पादि में निवृत्ति भिन्न मार्ग पतित तृणादि में उपेक्षा बुद्धि का हो जाना इसीलिए पूर्व प्रसंग में ही वार्त्तिककार ने भी कहा है कि हेतु प्रमाणत्वे फलतांऽतस्य गम्यते। दे को प्रमाण मानने में वाक्यार्थ बोधादि ही फल कहलाते हैं। मिश्र भी यही बात कहते हैं, शब्दादीनां प्रामाण्ये म: फलं तत्प्रामाण्येहानादि बुद्धि: फलमिति, इसका अर्थ में प्रवृत्ति करने की बुद्धि स्वाभाविक होती है। एवं अनिष्ट सर्पादि में निवृत्ति तथा दोनों से भिन्न मार्ग पतित तृणादि में उपेक्षा बुद्धि का हो जाना अनिवार्य है। इसीलिए पूर्व प्रसंग में ही वार्त्तिककार ने भी कहा है कि -

' पूर्वेषांतु प्रमाणात्वे फल तां ऽ त स्य गस्यते। '

शब्दादि को प्रमाण मानने में वाक्यार्थ बोधादि ही फल कहलाते हैं। श्री पार्थ सारथि मिश्र भी यही बात वहाँ कहते हैं, शब्दादीनां प्रामाण्ये वाक्यार्थाधिगम: फलं तत्प्रामाण्येहानादि बुद्धि: फलमिति, इसका अर्थ पूर्वोक्त ही है।

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