इस वर्णन में एक और भी खूबी है। लोग तो आमतौर से यही समझते हैं कि ब्राह्मणमात्र के लिए एक ही प्रकार के धर्म हैं। यही बात क्षत्रियादि के भी संबंध में समझी जाती है। गीता में भी इन धर्मों को इसी प्रकार गिनाया है। इसलिए शंका हो सकती है कि फिर भी तो यह धर्म सामूहिक ही हो गया। व्यक्तिगत तो रहा नहीं। क्योंकि ब्राह्मण-समूह का एक धर्म हुआ ही और इसी तरह क्षत्रियादि के भी समूह का। यही बात शेख, सैयद, मुगल और पठान की भी हो सकती है और पादरी तथा गृहस्थ क्रिस्तान की भी। उसके बाद ब्राह्मणादि चारों को मिला के हिंदू समूह का भी एक धर्म होई जाता है, शेख, सैयद आदि का मिला के मुसलमान समुदाय का भी और पादरी तथा गृहस्थ का मिला के ईसाई का भी। इस प्रकार घूम-फिर के हम वहीं पहुँच जाते हैं जहाँ से चले थे और 'हैं वहीं पहले जहाँ थे, क्योंकि दुनिया गोल है' की बात आ जाती है।
इसी का उत्तर 'स्वभावप्रभवैर्गुणै:' में दिया गया है। गीता तो कहती है कि धर्म की बात भेंड़ों जैसी अंध परंपरा की नहीं है कि फलाँ ब्राह्मण है, तो फलाँ क्षत्रिय। यह कोई निश्चित और बँधी बँधाई बात नहीं है, कि फलाँ ब्राह्मण हई, या होगा ही और फलाँ क्षत्रिय, जैसा कि आज माना जाता है। आज तो हालत यह है कि कर्म भी नहीं देखे जाते। किंतु एक तरह की दुकानदारी ब्राह्मणादि वर्ण धर्मों के नाम पर चल पड़ी है। मगर इस वर्तमान परंपरा की जड़ में भी यही बात थी कि कर्मों से ही ब्राह्मणादि को जानते या पकड़ते थे - पकड़ने लगे थे। इसका आशय यह है कि कर्मों की एक परंपरा और प्रणाली जारी कर दी गई थी और बचपन से ही वही कर्म (काम) कराए जाते थे। किसी के स्वभाव की परीक्षा न की जाती थी। माता-पिता को जान लिया और पता पा लिया कि उन्हीं से बच्चा पैदा हुआ है। फिर क्या था? माता-पिता के ही वर्ण के अनुसार बच्चे के कर्म-धर्म ठीक कर दिए गए और इस प्रकार समय पाके वही ब्राह्मण, क्षत्रियादि बना जैसा कर्म करता रहा। माँ-बाप भी वर्ण इसी प्रकार उनके माँ-बाप के ही आधार पर कर्म कराके ठीक किया जाता था। यही शैली थी, यही प्रणाली थी। इसमें कर्म पर ही जोर था, दारमदार था। यही कारण है कि विश्वामित्र को ब्राह्मण मानने में दिक्कतें पेश आयीं। क्योंकि माता-पिता की बात उनके बारे में कुछ दूसरी ही थी। मगर इसमें इतनी तो बात थी कि कर्मों पर जोर था। फलत: जिसमें कर्म न हो वह वर्णच्युत और पतित हो जाता था - वह 'धोबी का कुत्ता घर का न घाट का' माना जाता था। मगर आज तो इतना भी नहीं है। आज तो केवल माँ-बाप से जन्म ही काफी है ब्राह्मणादि बनने के लिए!
मगर गीता के अनुसार तो उलटी बात थी, उलटी बात होती है, उलटी बात चाहिए। गीता तो कर्म के पहले माँ-बाप से उत्पत्ति को न देख स्वभाव देखती है। वह तो इस बात की जाँच-पड़ताल करती है कि जिससे किसी भी कर्म की आशा की जाती है उसका स्वभाव कैसा है। आखिर सियार, हाथी और सिंह का स्वभाव तो एक-सा है नहीं। इसीलिए उनके काम भी एक से नहीं हैं। यदि स्वभाव का खयाल न करके 'सब धान बाईस पसेरी' तौला जाए और गीदड़ से सिंह के काम की आशा की जाए तो सिवाय नादानी और निराशा के और होगा ही क्या? इसीलिए गीता सबसे पहले स्वभाव देखती है जो शुरू में ही शरीर रचना में शामिल हुए थे। क्योंकि स्वभाव के नाम पर गड़बड़ हो सकती है और कोशिश से सिखा-पढ़ा के थोड़े समय के लिए कोई भी किसी काम के लिए तैयार किया जा सकता है - कोई भी 'ठोंक-पीट के तत्काल वैद्यराज' बनाया जा सकता है और स्वभाव नाम इस बात को भी दिया जा सकता है। आखिर पहचान हई क्या? इसीलिए गीता मूलभूत गुणों को ही पकड़ती है जो कृत्रिम नहीं हैं। फलत: कल्पित या चंदरोजा चीज कब तक टिक सकेगी? सारांश यह कि बहुत गौर से दीर्घकाल तक पर्यवेक्षण के बाद ही स्वभाव का निश्चय होता है, ऐसी बात गीता को मान्य है। उसके बाद ही उसी के अनुसार कर्म कराया जाना - किया जाना - चाहिए, ऐसी मान्यता गीता की है और अंततोगत्वा वर्णों का अंतिम निश्चय उसी से होता है। महाभारत में लिखा है कि पहले कोई वर्ण न थे - सब एक ही समान थे; पीछे स्वाभाविक कर्मों के अनुसार ही वर्ण बने। ज्यादे से ज्यादा यही कि सभी ब्राह्मण ही थे - पीछे वर्ण विभाग हुआ - 'न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत। ब्रह्मणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्' (मोक्षधर्म 188। 10)। फिर वर्णों का विवरण भी दिया है। इससे भी यही बात सिद्ध होती है।
इस तरह हमने देखा कि गीता कर्मों से वर्णों को पकड़ने के बजाए गुणों के अनुसार बने स्वभाव से ही कर्मों को पकड़ना उचित समझती है। हमारा तो ऐसा खयाल है कि गीता के अलावा औरों की भी मान्यता पहले ऐसी ही थी। उसी का पतन होते-होते वर्तमान दशा को यह धर्म पहुँच गया है। लेकिन गीता के बारे में तो शक की जगह हई नहीं कि उसने यही माना है। ऐसी दशा में धर्म को सामूहिक रूप मिली कैसे सकता है? यह तो जरूरी नहीं कि ब्राह्मण का बच्चा ब्राह्मण ही हो, यदि ठीक-ठीक गुण और स्वभाव की पाबंदी की जाए और उसी कसौटी पर कसा जाए। यह भी नहीं कि अगर ब्राह्मण का लड़का ब्राह्मण हो भी गया तो भी बाप और बेटा - दोनों ही - एक ही तराजू पर सोलह आना पाव रत्तीड ठीक उतर जाएँ - बराबर हो जाएँ। यह तो तभी संभव है जब दोनों की समझ एवं श्रद्धा और दोनों के स्वभाव एक हो जाएँ। मगर ऐसा होना गैरमुमकिन है यह पहले ही कहा जा चुका है। यह दूसरी बात है कि जैसे एक ही कक्षा में पढ़ने वाले छात्रों में समता न होने पर भी उनका एक वर्गीकरण व्यवहार के लिए होता है वैसा ही यहाँ भी होता रहा हो और आगे भी हो। मगर उसका मतलब यह तो नहीं है कि समानता और एकता हो गई। योग्यता तो सबों की भिन्न-भिन्न रहती ही है, रहेगी ही। एक वर्ण कहने का तो मतलब केवल यही है कि उस तरह के कर्मों के लिए कौन-से लोग यत्न करें और कौन उनके योग्य है यह मालूम हो जाए।
जिस प्रकार किसी की निजी चीज होती है, अपनी समझ तथा योग्यता होती है, अपना शरीर और स्वास्थ्य होता है; न तो उस पर किसी का अधिकार होता है और न उसकी अपनी चीज से एकता और समानता किसी और की वैसी ही चीज से होती है। ठीक उसी प्रकार धर्म की भी बात है। वह भी हरेक आदमी का अपना निजी और व्यक्तिगत पदार्थ है। उसमें किसी का साझा या हिस्सा नहीं है। धर्म सामूहिक - समूह की - चीज न होकर व्यक्तिगत है, हर व्यक्ति का जुदा-जुदा है। अगर दो आदमी एक ही ढंग से खाना खाते हों और एक ही चीज खाते हों, तो भी दोनों के खाने की क्रिया दो होगी, न कि एक। धर्म की भी यही बात है। यह बात गीता ने निर्विवाद सिद्ध कर दी है। कम से कम अपना मंतव्य उसने यही बता दिया है। यदि यही मंतव्य संसार में व्यापक हो जाए, सार्वभौम हो जाए - यदि यह गीताधर्म (गीता का बताया धर्म) संसार मान ले - तो धर्म के झगड़े रहने ही न पाएँ। इनके करते आज जो हमारा देश नरक बन रहा है और गजब की बला में आ फँसा है, वह तो न रहे। आज जो भाई का गला भाई और पड़ोसी का पड़ोसी धर्म की वेदी पर चढ़ाने को आमादा है, वह तो न हो। धर्म की यह नापाकीजगी तो मिट जाए।
इसी के चलते - धर्म को जो लोगों ने सामूहिक चीज समझ उसी के नाम पर भेड़ों की तरह लोगों को मूँड़ना शुरू कर दिया है। उसी के करते - तो राजनीति भी पनाह माँगती है। पंडित, मौलवी और पादरी हजारों लोगों को यों ही मूँड़ के जानें क्या-क्या अंटसंट सिखाते फिरते हैं। वे लोग कमाने वाली जनता को - किसानों और मजदूरों को - अपने पाँवों खड़े होने देना नहीं चाहते इसी धर्म के नाम पर और इसी की ओट में। जब किसानों और मजदूरों में वर्गचेतना पनपती है, शुरू होती है और प्रगति करती है तो इन धर्माचार्यों के घर में जाने क्यों आतंक छा जाता है और ये मातम मनाने लगते हैं! इनके पास कोठियाँ, कल-कारखाने और जमींदारियाँ न भी हों - और ज्यादातर के पास तो ये चीजें होती भी नहीं; उनका काम तो चेलों और मुरीदों की 'पूजा' और चढ़ावे से ही चलता है - तो भी ये जानें क्यों घबरा जाते हैं और नंगे पाँव दौड़ पड़ते हैं किसान-मजदूरों को उलटा-सुलटा समझाने और गुमराह करने के लिए। कर्म, तकदीर, भाग्य और भगवान ही तो धर्म के स्तंभ और पाए माने जाते हैं और उन्हीं के नाम पर किसानों तथा मजदूरों को ये भलेमानस वर्ग-संघर्ष और हक की लड़ाई से खामख्वाह रोकते हैं! सीधे और भोले लोग तो इन्हें पवित्र, धर्ममूर्त्ति, भगवान के दूत और पारसा समझते हैं - कम से कम उनका यही विश्वास होता है। यही कारण है कि ये गरीब ठगे जाते हैं और मालदार-जमींदारों के घर घी के चिराग जलते हैं! धर्म के नाम पर यदि और नहीं हो सका तो किसानों और मजदूरों के संघ ही अलग-अलग बनवा दिए जाते हैं! जब कभी वर्ग-संघर्ष चालू हो तो ये धर्माचार्य कहे जाने वाले पादरी, पुरोहित और मुल्ला अपने को धर्म के ठेकेदार कहके नियमत: धनियों और मालदारों का ही साथ देते हैं और शोषितों एवं पीड़ितों को छोड़ देते हैं; हालाँकि वही इनके चेले होते और उन्हीं से इनकी गुजर होती है।