इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल
दुनिया है चल-चलाओ का रस्ता सँभल के चल.

कम-ज़र्फ़ पुर-ग़ुरूर ज़रा अपना ज़र्फ़ देख
मानिंद जोश-ए-ग़म न ज़्यादा उबल के चल.

फ़ुर्सत है इक सदा की यहाँ सोज़-ए-दिल के साथ
उस पर सपंद-वार न इतना उछल के चल.

ये ग़ोल-वश हैं इन को समझ तू न रह-नुमा
साए से बच के अहल-ए-फरेब-व-दग़ल के चल.

औरों के बल पे बल न कर इतना न चल निकल
बल है तो बल के बल पे तू कुछ अपने बल के चल.

इन्साँ को कल का पुतला बनाया है उस ने आप
और आप ही वो कहता है पुतले को कल के चल.

फिर आँखें भी तो दीं हैं के रख देख कर क़दम
कहता है कौन तुझ को न चल चल सँभल के चल.

है तुरफ़ा अमन-गाह निहाँ-ख़ाना-ए-अदम
आँखों के रू-ब-रू से तू लोगों के टल के चल.

क्या चल सकेगा हम से के पहचानते हैं हम
तू लाख अपनी चाल को ज़ालिम बदल के चल.

है शम्मा सर के बल जो मोहब्बत में गरम हो
परवाना अपने दिल से ये कहता है जल के चल.

बुलबुल के होश निकहत-ए-गुल की तरह उड़ा
गुलशन में मेरे साथ ज़रा इत्र मल के चल.

गर क़स्द सू-ए-दिल है तेरा ऐ निगाह-ए-यार
दो-चार तीर पैक से आगे अजल के चल.

जो इम्तिहान-ए-तबा करे अपना ऐ ‘ज़फ़र’
तो कह दो उस को तौर पे तू इस ग़ज़ल के चल.

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