काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत तो परी दी
पर हैफ़ तेरे दिल में मोहब्बत न ज़री दी.
दी तू ने मुझे सल्तनत-ए-बहर-ओ-वर ऐ इश्क़
होंटों को जो ख़ुश्की मेरी आँखों को तरी दी.
ख़ाल-ए-लब-ए-शीरीं का दिया बोसा कब उस ने
इक चाट लगाने को मेरे नीशकरी दी.
काफ़िर तेरे सौदा-ए-सर-ए-ज़ुल्फ़ ने मुझ को
क्या क्या न परेशानी ओ आशुफ़्ता-सरी दी.
मेहनत से है अज़मत के ज़माने में नगीं को
बे-काविश-ए-सीना न कभी नाम-वरी दी.
सय्याद ने दी रूख़सत-ए-परवाज़ पर अफ़सोस
तू ने न इजाज़त मुझे बे-बाल-ओ-परी दी.
कहता तेरा कुछ सोख़्ता-जाँ लेक अजल ने
फ़ुर्सत न उसे मिस्ल-ए-चराग़-ए-सहरी दी.
क़स्साम-ए-अज़ल ने न रखा हम को भी महरूम
गरचे न दिया कोई हुनर बे-हुनरी दी.
उस चश्म में है सुरमे का दुम्बाला पुर-आशोब
क्यूँ हाथ में बद-मस्त के बंदूक़ भरी दी.
दिल दे के किया हम ने तेरी ज़ुल्फ़ का सौदा
इक आप बला अपने लिए मोल ख़रीदी.
साक़ी ने दिया क्या मुझे इक साग़र-ए-सरशार
गोया के दो आलम से ‘ज़फ़र’ बे-ख़बरी दी.