शाने की हर ज़बाँ से सुने कोई लाफ़-ए-ज़ुल्फ़
चीरे है सीना रात को ये मू-शगाफ़-ए-ज़ुल्फ़.
जिस तरह से के काबे पे है पोशिश-ए-सियाह
इस तरह इस सनम के है रुख़ पर ग़िलाफ़-ए-ज़ुल्फ़.
बरहम है इस क़दर जो मेरे दिल से ज़ुल्फ़-ए-यार
शामत-ज़दा ने क्या किया ऐसा ख़िलाफ़-ए-ज़ुल्फ़.
मतलब न कुफ़्र ओ दीं से न दैर ओ हरम से काम
करता है दिल तवाफ़-ए-इज़ार ओ तवाफ़-ए-जु़ल्फ़.
नाफ-ए-ग़ज़ाल-ए-चीं है के है नाफ़ा-ए-ततार
क्यूँकर कहूँ के है गिरह-ए-जुल्फ़ नाफ़-ए-जुल्फ़.
आपस में आज दस्त-ओ-गिरेबाँ है रोज़ ओ शब
ऐ मेहर-वश ज़री का नहीं मू-ए-बाफ़-ए-जुल्फ़.
कहता है कोई जीम कोई लाम ज़ुल्फ़ को
कहता हूँ मैं ‘ज़फ़र’ के मुसत्तह है काफ़-ए-ज़ुल्फ़.