जिस जंगल में कुमार और देवीसिंह बैठे थे और उस सिपाही को पेड़ से बांधा था वह बहुत ही घना था। वहां जल्दी किसी की पहुंच नहीं हो सकती थी। तेजसिंह के चले जाने पर कुमार और देवीसिंह एक साफ पत्थर की चट्टान पर बैठे बातें कर रहे थे। सबेरा हुआ ही चाहता था कि पूरब की तरफ से किसी का फेंका हुआ एक छोटा-सा पत्थर कुमार के पास आ गिरा। ये दोनों ताज्जुब से उस तरफ देखने लगे कि एक पत्थर और आया मगर किसी को लगा नहीं। देवीसिंह ने जोर से आवाज दी, “कौन है जो छिपकर पत्थर मारता है, सामने क्यों नहीं आता है?” जवाब में आवाज आई, “शेर की बोली बोलने वाले गीदड़ों को दूर से ही मारा जाता है!” यह आवाज सुनते ही कुमार को गुस्सा चढ़ आया, झट तलवार के कब्जे पर हाथ रखकर उठ खड़े हुए। देवीसिंह ने हाथ पकड़कर कहा, “आप क्यों गुस्सा करते हैं, मैं अभी उस नालायक को पकड़ लाता हूं, वह है क्या चीज?” यह कह देवीसिंह उस तरफ गये जिधर से आवाज आई थी। इनके आगे बढ़ते ही एक और पत्थर पहुंचा जिसे देख देवीसिंह तेजी के साथ आगे बढ़े। एक आदमी दिखाई पड़ा मगर घने पेड़ों में अंधॆरा ज्यादे होने के सबब उसकी सूरत नहीं नजर आई। वह देवीसिंह को अपनी तरफ आते देख एक और पत्थर मारकर भागा। देवीसिंह भी उसके पीछे दौड़े मगर वह कई दफे इधर-उधर लोमड़ी की तरह चक्कर लगाकर उन्हीं घने पेड़ों में गायब हो गया। देवीसिंह भी इधर-उधर खोजने लगे, यहां तक कि सबेरा हो गया, बल्कि दिन निकल आया लेकिन साफ दिखाई देने पर भी कहीं उस आदमी का पता न लगा। आखिर लाचार होकर देवीसिंह उस जगह फिर आये जिस जगह कुमार को छोड़ गये थे। देखा तो कुमार नहीं। इधर-उधर देखा कहीं पता नहीं। उस सिपाही के पास आये जिसको पेड़ के साथ बांधा दिया था, देखा तो वह भी नहीं। जी उड़ गया,आंखों में आंसू भर आये, उसी चट्टान पर बैठे और सिर पर हाथ रखकर सोचने लगे-अब क्या करें, किधर ढूंढें, कहां जायें! अगर ढूंढते-ढूंढते कहीं दूर निकल गये और इधर तेजसिंह आये और हमको न देखा तो उनकी क्या दशा होगी? इन सब बातों को सोच देवीसिंह और थोड़ी देर इधर-उधर देख-भालकर फिर उसी जगह चले आये और तेजसिंह की राह देखने लगे। बीच-बीच में इस तरह कई दफे देवीसिंह ने उठ-उठकर खोज की मगर कुछ काम न निकला।