कल की तरह आज की रात भी बीत गई। लोंडियों के साथ सुबह को सब औरतें पारी-पारी मैदान भेजी गईं। महारानी और चंपा आज भी नहीं गईं। चंपा ने महारानी से पूछा, “आप जब से इन लोगों के हाथ फंसी हैं, कुछ भोजन किया या नहीं!” उन्होंने जवाब दिया, “महाराज से मिलने की उम्मीद में जान बचाने के लिए दूसरे-तीसरे कुछ खा लेती हूं, क्या करूं, कुछ बस नहीं चलता।”
थोड़ी देर बाद दो आदमी इस डेरे में आये। महारानी और चंपा से बोले, “तुम दोनों बाहर चलो, आज हमारे सरदार का हुक्म है कि सब औरतें मैदान में पेड़ों के नीचे बैठाई जायं जिससे मैदान की हवा लगे और तन्दुरुस्ती में फर्क न पड़ने पावे।” यह कह दोनों को बाहर ले गये। वे औरतें जो मैदान में गई थीं बाहर ही एक बहुत घने महुए के तले बैठी हुई थीं। ये दोनों भी उसी तरह जाकर बैठ गई। चंपा चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखने लगी।
दो पहर दिन चढ़ आया होगा। वही बुढ़िया जो कल एक औरत ले आई थी आज फिर एक जवान औरत कल से भी ज्यादे खूबसूरत लिये हुए पहुंची। उसे देखते ही बुङ्ढे मियां ने बड़ी खातिर से अपने पास बैठाया और उस औरत को उस जगह भेज दिया जहां सब औरतें बैठी हुई थीं। चंपा ने आज इस औरत को भी बारीक निगाह से देखा। आखिर उससे न रहा गया, ऊपर की तरफ मुंह करके बोली, “मी सगमता।”[1] वह औरत जो आई थी चंपा का मुंह देखने लगी। थोड़ी देर के बाद वह भी अपने पैर के अंगूठे की तरफ देख और हाथों से उसे मलती हुई बोली, “चपकला छटमे बापरोफस।”[2] फिर दोनों में से कोई न बोली।
शाम हो गई। सब औरतें उस रावटी में पहुंच गईं। रात को खाने का सामान पहुंचा। महारानी और चंपा के सिवाय सभी ने खाया। उन दोनों औरतों ने तो खूब ही हाथ फेरे जो नई फंसकर आई थीं।
रात बहुत चली गई, सन्नाटा हो गया, रावटी के चारों तरफ पहरा फिरने लगा। रावटी में एक चिराग जल रहा है। सब औरतें सो गई, सिर्फ चार जाग रही हैं-महारानी, चंपा और वे दोनों जो नई आई हैं। चंपा ने उन दोनों की तरफ देखकर कहा, “कड़ाक मी टेटी, नो से पारो फेसतो”[3] एक ने जवाब दिया, “तोमसे की?”[4] फिर चंपा ने कहा, “रानी में सेगी।”[5]
उन दोनों औरतों ने अपनी कमर से कोई तेज औजार निकाला और धीरे से चंपा की हथकड़ी और बेड़ी काट दी। अब चंपा लापरवाह हो गई, उसके ओठों पर मुस्कुराहट मालूम होने लगी।
दो पहर रात बीत गई। यकायक उस रावटी को चारों तरफ से बहुत से आदमियों ने घेर लिया। शोर-गुल की आवाज आने लगी, 'मारो-पकड़ो' की आवाज सुनाई देने लगी। बंदूक की आवाज कान में पड़ी। अब सब औरतों को यकीन हो गया कि डाका पड़ा और लड़ाई हो रही है। खलबली पड़ गई। रावटी में जितनी औरतें थीं इधर-उधर दौड़ने लगीं। महारानी घबड़ाकर ”चंपा-चंपा” पुकारने लगीं, मगर कहीं पता नहीं, चंपा दिखाई न पड़ी। वे दोनों औरतें जो नई आई थीं आकर कहने लगीं, “मालूम होता है चंपा निकल गई मगर आप मत घबराइये, यह सब आप ही के नौकर हैं जिन्होंने डाका मारा है। मैं भी आप ही का ताबेदार हूं, औरत न समझिये।” मैं जाती हूं। आपके वास्ते कहीं डोली तैयार होगी, लेकर आता हूं।” यह कह दोनों ने रास्ता लिया।
जिस रावटी में औरतें थीं उसके तीन तरफ आदमियों की आवाज कम हो गई। सिर्फ चौथी तरफ जिधर और बहुत से डेरे थे लड़ाई की आहट मालूम हो रही थी। दो आदमी जिनका मुंह कपड़े या नकाब से ढंका हुआ था डोली लिये हुए पहुंचे और महारानी को उस पर बैठाकर बाहर निकल गये। रात बीत गई,आसमान पर सफेदी दिखाई देने लगी। चंपा और महारानी तो चली गई थीं मगर और सब औरतें उसी रावटी में बैठी हुई थीं। डर के मारे चेहरा जर्द हो रहा था, एक का मुंह एक देख रही थीं। इतने में पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल एक डोली जिस पर कि मख्वाब का पर्दा पड़ा हुआ था लिये हुए उस रावटी के दरवाजे पर पहुंचे, डोली बाहर रख दी, आप अंदर गये और सब औरतों को अच्छी तरह देखने लगे, फिर पूछा-”तुम लोगों में से दो औरतें दिखाई नहीं देतीं, वे कहां गई?”
सब औरतें डरी हुई थीं, किसी के मुंह से आवाज न निकली। पन्नालाल ने फिर कहा, “तुम लोग डरो मत, हम लोग डाकू नहीं हैं। तुम्हीं लोगों को छुड़ाने के लिए इतनी धूमधाम हुई है। बताओ वे दोनों औरतें कहां हैं?' अब उन औरतों का जी कुछ ठिकाने हुआ। एक ने कहा, “दो नहीं बल्कि चार औरतें गायब हैं जिनमें दो औरतें तो वे हैं जो कल और परसों फंस के आई थीं, वे दोनों तो एक औरत को यह कह के चली गईं कि आप डरिये मत, हम लोग आपके ताबेदार हैं, डोली लेकर आते हैं तो आपको ले चलते हैं। इसके बाद डोली आई जिस पर चढ़ के वह चली गई, और चौथी तो सब के पहले ही निकल गई थी।”
पन्नालाल के तो होश उड़ गए, रामनारायण और चुन्नीलाल के मुंह की तरफ देखने लगे। रामनारायण ने कहा, “ठीक है, हम दोनों महारानी को ढाढ़स देकर तुम्हारी खोज में डोली लेने चले गये, जफील बजाकर तुमसे मुलाकात की और डोली लेकर चले आ रहे हैं, मगर दूसरा कौन डोली लेकर आया जो महारानी को लेकर चला गया! इन लोगों का यह कहना भी ठीक है कि चंपा पहले ही से गायब है। जब हम लोग औरत बने हुए इस रावटी में थे और लड़ाई हो रही थी महारानी ने डर के चंपा-चंपा पुकारा, तभी उसका पता न था। मगर यह मामला क्या है कुछ समझ में नहीं आता। चलो बाहर चलकर इन बर्देफरोशों 1 की डोलियों को गिनें उतनी ही हैं या कम? इन औरतों को भी बाहर निकालो।”
सब औरतें उस डेरे के बाहर की गईं। उन्होंने देखा कि चारों तरफ खून ही खून दिखाई देता है, कहीं-कहीं लाश भी नजर आती है। काफिले का बुङ्ढा सरदार और उसका खूबसूरत लड़का जंजीरों से जकड़े एक पेड़ के नीचे बैठे हुए हैं। दस आदमी नंगी तलवारें लिए उनकी निगहबानी कर रहे हैं और सैकड़ों आदमी हाथ-पैर बंधे दूसरे पेड़ों के नीचे बैठाए हुए हैं। रावटियां और डेरे सब उजड़े पड़े हैं।
पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल उस जगह गये जहां बहुत-सी डोलियां थीं। रामनारायण ने पन्नालाल से कहा, “देखो यह सोलह डोलियां हैं, पहले हमने सत्रह गिनी थीं, इससे मालूम होता है कि इन्हीं में की वह डोली थी जिसमें महारानी गई हैं। मगर उनको ले कौन गया? चुन्नीलाल जाओ तुम दीवान साहब को यहां बुला लाओ, उस तरफ बैठे हैं जहां फौज खड़ी है।”
दीवान साहब को लिए हुए चुन्नीलाल आये। पन्नालाल ने उनसे कहा, “देखिए हम लोगों की चार दिन की मेहनत बिल्कुल खराब गई! विजयगढ़ से तीन मंजिल पर इन लोगों का डेरा था। इस बुङ्ढे सरदार को हम लोगों ने औरतों की लालच देकर रोका कि कहीं आगे न चला जाय और आपको खबर दी। आप भी पूरे सामान से आये, इतना खून-खराबा हुआ, मगर महारानी और चंपा हाथ न आईं। भला चंपा तो बदमाशी करके निकल गई, उसने कहा कि हमारी बेड़ी काट दो नहीं तो हम सब भेद खोल देंगे कि मर्द हो, धोखा देने आये हो, पकडे ज़ाओगे, लाचार होकर उसकी बेड़ी काट दी और वह मौका पाकर निकल गई। मगर महारानी को कौन ले गया?”
दीवान साहब की अक्ल हैरान थी कि क्या हो गया। बोले, “इन बदमाशों को बल्कि इनके बुङ्ढे मियां सरदार को मार-पीटकर पूछो, कहीं इन्हीं लोगों की बदमाशी तो नहीं है।”
पन्नालाल ने कहा, “जब सरदार ही आपकी कैद में है तो मुझे यकीन नहीं आता कि उसके सबब से महारानी गायब हो गई हैं। आप इन बर्देफरोशों को और फौज को लेकर जाइये और राज्य का काम देखिए। हम लोग फिर महारानी की टोह लेने जाते हैं, इसका तो बीड़ा ही उठाया है।”
दीवान साहब बर्देफरोश[6] कैदियों को मय उनके माल-असबाब के साथ ले चुनार की तरफ रवाना हुए। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल महारानी की खोज में चले, रास्ते में आपस में यों बातें करने लगे-
पन्नालाल-देखो आजकल चुनार राज्य की क्या दुर्दशा हो रही है, महाराज उधर फंसे, महारानी का पता नहीं, पता लगा मगर फिर भी कोई उस्ताद हम लोगों को उल्लू बनाकर उन्हें ले ही गया।
रामनारायण-भाई बड़ी मेहनत की थी मगर कुछ न हुआ। किस मुश्किल से इन लोगों का पता पाया, कैसी-कैसी तरकीबों से दो दिन तक इसी जंगल में रोक रखा कहीं जाने न दिया, दौड़ा-दौड़ चुनार से सेना सहित दीवान साहब को लाये, लड़े-भिड़े, अपनी तरफ के कई आदमी भी मरे, मगर वही पहला दिन,शर्मिन्दगी मुनाफे में!
चुन्नी-हम तो बड़े खुश थे कि चंपा भी हाथ आवेगी मगर वह तो और आफत निकली, कैसा हम लोगों को पहचाना और बेबस करके धमाका के अपनी बेड़ी कटवा ही ली! बड़ी चालाक है, कहीं उसी का तो यह फसाद नहीं है!
पन्ना-नहीं जी, अकेली चंपा डोली में बैठा के महारानी को नहीं ले जा सकती!
राम-हम तीनों को महारानी की खोज में भेजने के बाद अहमद और नाज़िम को साथ लेकर पंडित बद्रीनाथ महाराज को कैद से छुड़ाने गये हैं, देखें वह क्या जस लगा कर आते हैं।
पन्ना-भला हम लोगों का मुंह भी तो हो कि चुनार जाकर उनका हाल सुनें और क्या जस लगा कर आते हैं इसको देखें, अगर महारानी न मिलीं तो कौन मुंह ले के चुनार जायेंगे?
राम-बस मालूम हो गया कि आज जो शख्स महारानी को इस फुर्ती से चुरा ले गया वह हम लोगों का ठीक उस्ताद है। अब तो इसी जंगल में खेती करो,लड़के-बाले लेकर आ बसो, महारानी का मिलना मुश्किल है।
पन्ना-वाह रे तेरा हौसला, क्या पिनिक के औतार हुए हैं 1
थोड़ी दूर जाकर ये लोग आपस में कुछ बातें कर मिलने का ठिकाना ठहरा अलग हो गये।
शब्दार्थ:


ऊपर जायें ↑ हम पहचान गये

ऊपर जायें ↑ चुप रहोगी तो तुम्हारी भी जान बच जायेगी

ऊपर जायें ↑ मेरी बेड़ी तोड़ दो, नहीं तो गुल कर गिरफ्तार करा दूंगी

ऊपर जायें ↑ तुम्हारी क्या दशा होगी

ऊपर जायें ↑ रानी का साथ दूंगी

ऊपर जायें ↑ 'बर्देफरोश' आदमियों की सौदागिरी कहते हैं, अर्थात् लौंडी-गुलाम बेचते हैं

 

 

 

 

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