तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी के चले जाने पर कुमार बहुत देर तक सुस्त बैठे रहे। तरह-तरह के ख्याल पैदा होते रहे, जरा खुटका हुआ और दरवाजे की तरफ देखने लगते कि शायद तेजसिंह या देवीसिंह आते हों, जब किसी को नहीं देखते तो फिर हाथ पर गाल रखकर सोच-विचार में पड़ जाते। पहर भर दिन बाकी रह गया पर तीनों ऐयारों में से कोई भी लौटकर न आया, कुमार की तबीयत और भी घबड़ाई, बैठा न गया, डेरे के बाहर निकले।
कुमार को डेरे के बाहर होते देख बहुत से मुलाजिम सामने आ खड़े हुए। बगल ही में फतहसिंह सेनापति का डेरा था, सुनते ही कपड़े बदल हरबों को लगाकर वह भी बाहर निकल आये और कुमार के पास आकर खड़े हो गये। कुमार ने फतहसिंह से कहा, “चलो जरा घूम आवें, मगर हमारे साथ और कोई न आवे!” यह कह आगे बढ़े। फतहसिंह ने सबों को मना कर दिया, लाचार कोई साथ न हुआ। ये दोनों धीरे-धीरे टहलते हुए डेरे से बहुत दूर निकल गये, तब कुमार ने फतहसिंह का हाथ पकड़ लिया और कहा, “सुनो फतहसिंह तुम भी हमारे दोस्त हो, साथ ही पढ़े और बड़े हुए, तुमसे हमारी कोई बात छिपी नहीं रहती, तेजसिंह भी तुमको बहुत मानते हैं। आज हमारी तबीयत बहुत उदास हो गई, अब हमारा जीना मुश्किल समझो, क्योंकि आज तेजसिंह को न मालूम क्या सूझी कि बद्रीनाथ से जिद्द कर बैठे, हाथों में फंसे हुए चोर को छोड़ दिया, न जाने अब क्या होता है? किताब हाथ लगे या न लगे, तिलिस्म टूटे या न टूटे, चंद्रकान्ता मिले या तिलिस्म ही में तड़प-तड़पकर मर जाय!”
फतहसिंह ने कहा, “आप कुछ सोच न कीजिये। तेजसिंह ऐसे बेवकूफ नहीं हैं, उन्होंने जिद्द किया तो अच्छा ही किया। सब ऐयार एकदम से आपकी तरफ हो जायेंगे। आज का भी बिल्कुल हाल मुझको मालूम है, इंतजाम भी उन्होंने अच्छा किया है। मुझको भी एक काम सुपुर्द कर गए हैं वह भी बहुत ठीक हो गया है, देखिये तो क्या होता है?”
बातचीत करते दोनों बहुत दूर निकल गये, यकायक इन लोगों की निगाह कई औरतों पर पड़ी जो इनसे बहुत दूर न थीं। इन्होंने आपस में बातचीत करना बंद कर दिया और पेड़ों की आड़ से औरतों को देखने लगे।
अंदाज से बीस औरतें होंगी, अपने-अपने घोड़ों की बाग थामे धीरे-धीरे उसी तरफ आ रही थीं। एक औरत के हाथ में दो घोड़ों की बाग थी। यों तो सभी औरतें एक से एक खूबसूरत थीं मगर सबों के आगे-आगे जो आ रही थी बहुत ही खूबसूरत और नाजुक थी। उम्र करीब पंद्रह वर्ष के होगी, पोशाक और जेवरों के देखने से यही मालूम होता था कि जरूर किसी राजा की लड़की है। सिर से पांव तक जवाहरात से लदी हुई, हर एक अंग उसके सुंदर और सुडौल, गुलाब-सा चेहरा दूर से दिखाई दे रहा था। साथ वाली औरतें भी एक से एक खूबसूरत बेशकीमती पोशाक पहिरे हुई थीं।
कुंअर वीरेन्द्रसिंह एकटक उसी औरत की तरफ देखने लगे जो सबों के आगे थी। ऐसे तरद्दुद की हालत में भी कुमार के मुंह से निकल पड़ा, “वाह क्या सुडौल हाथ-पैर हैं! बहुत-सी बातें कुमारी चंद्रकान्ता की इसमें मिलती हैं, नजाकत और चाल भी उसी ढंग की है, हाथ में कोई किताब है जिससे मालूम होता है कि पढ़ी-लिखी भी है।”
वे औरतें और पास आ गईं। अब कुमार को बखूबी देखने का मौका मिला। जिस जगह पेड़ों की आड़ में ये दोनों छिपे हुए थे किसी की निगाह नहीं पड़ सकती थी। वह औरत जो सबो के आगे-आगे आ रही थी, जिसको हम राजकुमारी कह सकते हैं चलते-चलते अटक गई, उस किताब को खोलकर देखने लगी,साथ ही इसके दोनों आंखों से आंसू गिरने लगे।
कुमार ने पहचाना कि यह वही तिलिस्मी किताब है, क्योंकि इसकी जिल्द पर एक तरफ मोटे-मोटे सुनहरे हरफों में 'तिलिस्म' लिखा हुआ है। सोचने लगे-'इस किताब को तो ऐयार लोग चुरा ले गये थे, तेजसिंह इसकी खोज में गये हैं। इसके हाथ यह किताब क्यों कर लगी? यह कौन है और किताब देख-देखकर रोती क्यों है!!'

 

 

 

 

Comments
ayushi114mishra

bahut acchi book hai

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