देवीसिंह और ज्योतिषीजी वनकन्या की टोह में निकलकर थोड़ी ही दूर गए होंगे कि एक नकाबपोश सवार मिला जिसने पुकार के कहा-
“देवीसिंह कहां जाते हो? तुम्हारी चालाकी हम लोगों से न चलेगी, अभी कल आप लोगों की खातिर की गई है और जल में गोते देकर कपड़े सब छीन लिए गए, अब क्या गिरफ्तार ही होना चाहते हो? थोड़े दिन सब्र करो, हम लोग तुम लोगों को ऐयारी सिखलाकर पक्का करेंगे तब काम चलेगा।”
नकाबपोश सवार की बातें सुन देवीसिंह मन में हैरान हो गए पर ज्योतिषीजी की तरफ देखकर बोले, “सुन लीजिए! यह सवार साहब हम लोगों को ऐयारी सिखलायेंगे जो शर्म के मारे अपना मुंह तक नहीं दिखा सकते।”
नकाब-ज्योतिषीजी क्या सुनेंगे, यह भी तो शर्माते होंगे क्योंकि इनके रमल को हम लोगों ने बेकार कर दिया, हजार दफे फेंकें मगर पता खाक न लगेगा।
देवी-अगर इस इलाके में रहोगे तो बिना पता लगाए न छोड़ेंगे।
नकाब-रहेंगे नहीं तो जायेंगे कहां? रोज मिलेंगे मगर पता न लगने देंगे।
बात करते-करते देवीसिंह ने चालाकी से कूदकर सवार के मुंह पर से नकाब खींच ली। देखा कि तमाम चेहरे पर रोली मली हुई है, कुछ पहचान न सके।
सवार ने फुर्ती के साथ देवीसिंह की पगड़ी उतार ली और एक खत उनके सामने फेंक घोड़ा दौड़ाकर निकल गया। देवीसिंह ने शर्मिन्दगी के साथ खतउठाकर देखा, लिफाफे पर लिखा हुआ था-
“कुंअर वीरेन्द्रसिंह”
ज्योतिषीजी ने देवीसिंह से कहा, “न मालूम ये लोग कहां के रहने वाले हैं। मुझे तो मालूम होता है कि इस मंडली में जितने हैं सब ऐयार ही हैं।”
देवी-(खत जेब में रखकर) इसमें तो शक नहीं, देखिए हर दफे हम ही लोग नीचा देखते हैं, समझा था कि नकाब उतार लेने से सूरत मालूम होगी, मगर उसकी चालाकी तो देखिए चेहरा रंग के तब नकाब डाले हुए था।
ज्यो-खैर देखा जायगा, इस वक्त तो फिर से लश्कर में चलना पड़ा क्योंकि खत कुमार को देनी चाहिए, देखें इससे क्या हाल मालूम होता है? अगर इस पर कुमार का नाम न लिखा होता तो पढ़ लेते।
देवी-हां चलो, पहले खत का हाल सुन लें तब कोई कार्रवाई सोचें।
दोनों आदमी लौटकर लश्कर में आये और कुंअर वीरेन्द्रसिंह के डेरे में पहुंचकर सब हाल कह खत हाथ में दे दी। कुमार ने पढ़ा, यह लिखा हुआ था-
“चाहे जो हो, पर मैं आपके सामने तब तक नहीं हो सकती जब तक आप नीचे लिखी बातों का लिखकर इकरार न कर लें।
(1) चंद्रकान्ता से और मुझसे एक ही दिन एक ही सायत में शादी हो।
(2) चंद्रकान्ता से रुतबे में मैं किसी तरह कम न समझी जाऊं क्योंकि मैं हर तरह हर दर्जे में उसके बराबर हूं।
अगर इन दोनों बातों का इकरार आप न करेंगे तो कल ही मैं अपने घर का रास्ता लूंगी। सिवाय इसके यह भी कहे देती हूं कि बिना मेरी मदद के चाहे आप हजार बरस भी कोशिश करें मगर चंद्रकान्ता को नहीं पा सकते।”
कुमार का इश्क वनकन्या पर पूरे दर्जे का था। चंद्रकान्ता से किसी तरह वनकन्या की चाह कम न थी, मगर इस खत को पढ़ने से उनको कई तरह की फिक्रों ने आ घेरा। सोचने लगे कि यह कैसे हो सकता है कि कुमारी से और इससे एक ही सायत में शादी हो, वह कब मंजूर करेगी और महाराज जयसिंह ही कब इस बात को मानेंगे! सिवाय इसके यहां यह भी लिखा है कि बिना मेरी मदद के आप चंद्रकान्ता से नहीं मिल सकते, यह क्या बात है? खैर सो सब जो भी हो वनकन्या के बिना मेरी जिंदगी मुश्किल है, मैं जरूर उसके लिखे मुताबिक इकरारनामा लिख दूंगा पीछे समझा जायगा। कुमारी चंद्रकान्ता मेरी बात जरूर मान लेगी।
देवीसिंह और ज्योतिषीजी को भी कुमार ने वह खत दिखाई। वे लोग भी हैरान थे कि वनकन्या ने यह क्या लिखा और इसका जवाब क्या देना चाहिए।
दिन और रात भर कुमार इसी सोच में रहे कि इस खत का क्या जवाब दिया जाय। दूसरे दिन सुबह होते-होते तेजसिंह भी पंडित बद्रीनाथ ऐयार की गठरी पीठ पर लादे हुए आ पहुंचे।
कुमार ने पूछा, “वापस क्यों आ गये?”
तेज-क्या बतावें मामला ही बिगड़ गया।
कुमार-सो क्या?
तेज-तहखाने का दरवाजा नहीं खुलता।
कुमार-किसी ने भीतर से तो बंद नहीं कर लिया।
तेज-नहीं भीतर तो कोई ताला ही नहीं है।
ज्यो-दो बातों में से एक बात जरूर है, या तो कोई नया आदमी पहुंचा जिसने दरवाजा खोलने की कल बिगाड़ दी, या फिर महाराज शिवदत्त ने भीतर से कोई चालाकी की।
तेज-भला शिवदत्त अंदर से बंद करके अपने को और बला में क्यों फंसावेंगे? इसमें तो उनका हर्ज ही है कुछ फायदा नहीं।
कुमार-कहीं वनकन्या ने तो कोई तरकीब नहीं की।
तेज-आप भी गजब करते हैं, कहां बेचारी वनकन्या कहां वह तिलिस्मी तहखाना!
कुमार-तुमको मालूम ही नहीं। उसने मुझे खत लिखी है कि-बिना मेरी मदद के तुम चंद्रकान्ता से नहीं मिल सकते। और भी दो बातें लिखी हैं। मैं इसी सोच में था कि क्या जवाब दूं और वह कौन-सी बात है जिसमें मुझको वनकन्या की मदद की जरूरत पड़ेगी, मगर अब तुम्हारे लौट आने से शक पैदा होता है।
देवी-मुझे भी कुछ उन्हीं का बखेड़ा मालूम होता है।
तेज-अगर वनकन्या को हमारे साथ कुछ फसाद करना होता तो तिलिस्मी किताब क्यों वापस देती? देखिये उस खत में क्या लिखा है जो किताब के साथ आया था।
ज्यो-यह भी तुम्हारा कहना ठीक है।
तेज-(कुमार से) भला वह खत तो दीजिए जिसमें वनकन्या ने यह लिखा है कि बिना हमारी मदद के चंद्रकान्ता से मुलाकात नहीं हो सकती।
कुमार ने वह खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, पढ़कर तेजसिंह बड़े सोच में पड़ गये कि यह क्या बात है, कुछ अक्ल काम नहीं करती। कुमार ने कहा, “तुम लोग यह जानते ही हो कि वनकन्या की मुहब्बत मेरे दिल में कैसा असर कर गई है, बिना देखे एक घड़ी चैन नहीं पड़ता, तो फिर उसके लिखे बमूजिब इकरारनामा लिख देने में क्या हर्ज है, जब वह खुश होगी तो उससे जरूर ही कुछ न कुछ भेद मिलेगा।”
तेज-जो मुनासिब समझिये कीजिए, चंद्रकान्ता बेचारी तो कुछ न बोलेगी मगर महाराज जयसिंह यह कब मंजूर करेंगे कि एक ही मड़वे में दोनों के साथ शादी हो। क्या जाने वह कौन, कहां की रहने वाली और किसकी लड़की है?
कुमार-उसकी खत में तो यह भी लिखा है कि 'मैं किसी तरह रुतबे में कुमारी से कम नहीं हूं।'
ये बातें हो ही रही थीं कि चोबदार ने आकर अर्ज किया, “एक सिपाही बाहर आया है और जो हाजिर होकर कुछ कहना चाहता है।” कुमार ने कहा, “उसे ले आओ।” चोबदार उस सिपाही को अंदर ले आया, सबों ने देखा कि अजीब रंग-ढंग का आदमी है। नाटा-सा कद, काला रंग, टाट का चपकन पायजामा जिसके ऊपर से लैस टंकी हुई, सिर पर दौरी की तरह बांस की टोपी, ढाल-तलवार लगाये था। उसने झुककर कुमार को सलाम किया।
सबों को उसकी सूरत देखकर हंसी आयी मगर हंसी को रोका। तेजसिंह ने पूछा, “तुम कौन हो और कहां से आये हो?” उस बांके जवान ने कहा, “मैं देवता हूं, दैत्यों की मंडली से आ रहा हूं, कुमार ने उस खत का जवाब चाहता हूं जो कल एक सवार ने देवीसिंह और जगन्नाथ ज्योतिषी को दी थी।”
तेज-भला तुमने ज्योतिषीजी और देवीसिंह का नाम कैसे जाना?
बांका-ज्योतिषीजी को तो मैं तब से जानता हूं जब से वे इस दुनिया में नहीं आये थे, और देवीसिंह तो हमारे चेले ही हैं।
देवी-क्यों बे शैतान, हम कब से तेरे चेले हुए? बेअदबी करता है?
बांका-बेअदबी तो आप करते हैं कि ओस्ताद को बे-बे करके बुलाते हैं, कुछ इज्जत नहीं करते!
देवी-मालूम होता है तेरी मौत तुझको यहां ले आई है।
बांका-मैं तो स्वयं मौत हूं।
देवी-इस बेअदबी का मजा चखाऊं तुझको?
बांका-मैं कुछ ऐसे-वैसे का भेजा नहीं आया हूं, मुझको उसने भेजा है जिसको तुम दिन में साढ़े सत्रह दफा झुककर सलाम करोगे।
देवीसिंह और कुछ कहा ही चाहते थे कि तेजसिंह ने रोक दिया और कहा, “चुप रहो, मालूम होता है यह कोई ऐयार या मसखरा है, तुम खुद ऐयार होकर जरा दिल्लगी में रंज हो जाते हो!
बांका-अगर अब भी न समझोगे तो समझाने के लिए मैं चंपा को बुला लाऊंगा।
उस बांके-टेढ़े जवान की बात पर सब लोग एकदम हंस पड़े, मगर हैरान थे कि वह कौन है? अजब तमाशा तो यह कि वनकन्या के कुल आदमी हम लोगों का रत्ती-रत्ती हाल जानते हैं और हम लोग कुछ नहीं समझ सकते कि वे कौन हैं!
तेजसिंह उस शैतान की सूरत को गौर से देखने लगे। वह बोला, “आप मेरी सूरत क्या देखते हैं। मैं ऐयार नहीं हूं, अपनी सूरत मैंने रंगी नहीं है, पानी मंगाइए धोकर दिखा दूं, मैं आज से काला नहीं हूं, लगभग चार सौ वर्षों से मेरा यही रंग रहा है।”
तेजसिंह हंस पड़े और बोले, “जो हो अच्छे हो, मुझे और जांचने की कोई जरूरत नहीं, अगर दुश्मन का आदमी होता तो ऐसा करते भी मगर तुमसे क्या?ऐयार हो तो, मसखरे हो तो, इसमें कोई शक नहीं कि दोस्त के आदमी हो।”
यह सुन उसने झुककर सलाम किया और कुमार की तरफ देखकर कहा, “मुझको जवाब मिल जाय क्योंकि बड़ी दूर जाना है।” कुमार ने उसी खत की पीठ पर यह लिख दिया, “मुझको सब-कुछ दिलोजान से मंजूर है।” बाद इसके अपनी अंगूठी से मोहर कर उस बांके जवान के हवाले किया, वह खत लेकर खेमे के बाहर हो गया।

 

 


 

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