नौगढ़ के राजा सुरेंद्रसिंह के लड़के वीरेंद्रसिंह की शादी विजयगढ़ के महाराज जयसिंह की लड़की चंद्रकांता के साथ हो गई। बारात वाले दिन तेजसिंह की आखिरी दिल्लगी के सबब चुनार के महाराज शिवदत्त को मशालची बनना पड़ा। बहुतों की यह राय हुई कि महाराज शिवदत्त का दिल अभी तक साफ नहीं हुआ इसलिए अब इनको कैद ही में रखना मुनासिब है मगर महाराज सुरेंद्रसिंह ने इस बात को नापसंद करके कहा, कि “महाराज शिवदत्त को हम छोड़ चुके हैं, इस वक्त जो तेजसिंह से उनकी लड़ाई हो गई यह हमारे साथ वैर रखने का सबूत नहीं हो सकता। आखिर महाराज शिवदत्त क्षत्रिय हैं, जब तेजसिंह उनकी सूरत बना बेइज्जती करने पर उतारू हो गए तो यह देखकर भी वह कैसे बर्दाश्त कर सकते थे? मैं यह भी नहीं कह सकता कि महाराज शिवदत्त का दिल हम लोगों की तरफ से बिल्कुल साफ हो गया क्योंकि उनका अगर दिल साफ ही हो जाता तो इस बात को छिपकर देखने के लिए आने की जरूरत क्या थी तो भी यह समझकर कि तेजसिंह के साथ इनकी यह लड़ाई हमारी दुश्मनी के सबब नहीं कही जा सकती, हम फिर इनको छोड़ देते हैं। अगर अब भी ये हमारे साथ दुश्मनी करेंगे तो क्या हर्ज है, ये भी मर्द हैं और हम भी मर्द हैं, देखा जायेगा।”
महाराज शिवदत्त फिर छूटकर न मालूम कहां चले गए। वीरेंद्रसिंह की शादी होने के बाद महाराज सुरेंद्रसिंह और जयसिंह की राय से चपला की शादी तेजसिंह के साथ और चंपा की शादी देवीसिंह के साथ की गई। चंपा दूर के नाते में चपला की बहिन होती थी।
बाकी सब ऐयारों की शादी हो चुकी थी। उन लोगों की घर-गृहस्थी चुनार ही में थी, अदल-बदल करने की जरूरत न पड़ी क्योंकि शादी होने के थोड़े ही दिन बाद बड़े धूमधाम के साथ कुंअर वीरेंद्रसिंह चुनार की गद्दी पर बैठाए गए और कुंअर छोड़ राजा कहलाने लगे। तेजसिंह उनके राजदीवान मुकर्रर हुए और इसलिए सब ऐयारों को भी चुनार में ही रहना पड़ा।
सुरेंद्रसिंह अपने लड़के को आंखों के सामने से हटाना नहीं चाहते थे, लाचार नौगढ़ की गद्दी फतहसिंह के सुपुर्द कर वे भी चुनार ही रहने लगे, मगर राज्य का काम बिल्कुल वीरेंद्रसिंह के जिम्मे था, हां कभी-कभी राय दे देते थे। तेजसिंह के साथ जीतसिंह भी बड़ी आजादी के साथ चुनार में रहने लगे। महाराज सुरेंद्रसिंह और जीतसिंह में बहुत मुहब्बत थी और वह मुहब्बत दिन-दिन बढ़ती गई। असल में जीतसिंह इसी लायक थे कि उनकी जितनी कदर की जाती थोड़ी थी। शादी के दो बरस बाद चंद्रकांता को लड़का पैदा हुआ। उसी साल चपला और चंपा को भी एक-एक लड़का पैदा हुआ। इसके तीन बरस बाद चंद्रकांता ने दूसरे लड़के का मुख देखा। चंद्रकांता के बड़े लड़के का नाम इंद्रजीतसिंह, छोटे का नाम आनंदसिंह, चपला के लड़के का नाम भैरोसिंह और चंपा के लड़के का नाम तारासिंह रखा गया।
जब ये चारों लड़के कुछ बड़े और बातचीत करने लायक हुए तब इनके लिखने-पढ़ने और तालीम का इंतजाम किया गया और राजा सुरेंद्रसिंह ने इन चारों लड़कों को जीतसिंह की शागिर्दी और हिफाजत में छोड़ दिया।
भैरोसिंह और तारासिंह ऐयारी के फन में बड़े तेज और चालाक निकले। इनकी ऐयारी का इम्तिहान बराबर लिया जाता था। जीतसिंह का हुक्म था कि भैरोसिंह और तारासिंह कुल ऐयारों को बल्कि अपने बाप तक को धोखा देने की कोशिश करें और इसी तरह पन्नालाल वगैरह ऐयार भी उन दोनों लड़कों को भुलावा दिया करें। धीरे-धीरे ये दोनों लड़के इतने तेज और चालाक हो गये कि पन्नालाल वगैरह की ऐयारी इनके सामने दब गई।
भैरोसिंह और तारासिंह, इन दोनों में चालाक ज्यादे कौन था इसके कहने की कोई जरूरत नहीं, आगे मौका पड़ने पर आप ही मालूम हो जायेगा, हां, इतना कह देना जरूरी है कि भैरोसिंह को इंद्रजीतसिंह के साथ और तारासिंह को आनंदसिंह के साथ ज्यादे मुहब्बत थी। चारों लड़के होशियार हुए अर्थात इंद्रजीतसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह की उम्र अट्ठारह वर्ष की और आनंदसिंह की उम्र पंद्रह वर्ष की हुईं। इतने दिनों तक चुनार राज्य में बराबर शांति रही बल्कि पिछली तकलीफें और महाराज शिवदत्त की शैतानी एक स्वप्न की तरह सभी के दिल में रह गई।
इंद्रजीतसिंह को शिकार का बहुत शौक था, जहां तक बन पड़ता वे रोज शिकार खेला करते। एक दिन किसी बनरखे[1] ने हाजिर होकर बयान किया कि इन दिनों फलाने जंगल की शोभा खूब बढ़ी-चढ़ी है और शिकार के जानवर भी इतने आये हुए हैं कि अगर वहां महीना भर टिककर शिकार खेला जाए तो भी न घटे और कोई दिन खाली न जाए। यह सुन दोनों भाई बहुत खुश हुए। अपने बाप राजा वीरेंद्रसिंह से शिकार खेलने की इजाजत मांगी और कहा कि “हम लोगों का इरादा आठ दिन तक जंगल में रहकर शिकार खेलने का है।” इसके जवाब में राजा वीरेंद्रसिंह ने कहा कि “इतने दिनों तक जंगल में रहकर शिकार खेलने का हुक्म मैं नहीं दे सकता - अपने दादा से पूछो, अगर वे हुक्म दें तो कोई हर्ज नहीं।”
यह सुनकर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह ने अपने दादा महाराज सुरेंद्रसिंह के पास जाकर अपना मतलब अर्ज किया। उन्होंने खुशी से मंजूर किया और हुक्म दिया कि शिकारगाह में इन दोनों के लिए खेमा खड़ा किया जाय और जब तक ये शिकारगाह में रहें पांच सौ फौज बराबर इनके साथ रहे।
शिकार खेलने का हुक्म पा इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह बहुत खुश हुए और अपने दोनों ऐयारों भैरोसिंह और तारासिंह को साथ ले मय पांच सौ फौज के चुनार से रवाना हुए।
चुनार से पांच कोस दक्षिण एक घने और भयानक जंगल में पहुंचकर उन्होंने डेरा डाला। दिन थोड़ा बाकी रह गया इसलिए यह राय ठहरी कि आज आराम करें, कल सबेरे शिकार का बंदोबस्त किया जाय मगर बनरखों को शेर का पता लगाने के लिए आज ही कह दिया जायगा। भैंसा[2] बांधने की जरूरत नहीं, शेर का शिकार पैदल ही किया जायगा।
दूसरे दिन सबेरे बनरखों ने हाजिर होकर उनसे अर्ज किया कि इस जंगल में शेर तो हैं मगर रात हो जाने के सबब हम लोग उन्हें अपनी आंखों से न देख सके, अगर आज के दिन शिकार न खेला जाय तो हम लोग देखकर उनका पता दे सकेंगे।
आज के दिन भी शिकार खेलना बंद किया गया। पहर भर दिन बाकी रहे इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह घोड़ों पर सवार हो अपने दोनों ऐयारों को साथ ले घूमने और दिल बहलाने के लिए डेरे से बाहर निकले और टहलते हुए दूर तक चले गए। दूसरे जब मचान बांधकर शेर का शिकार किया चाहते हैं या एक जंगल से दूसरे जंगल में अपने सुबीते के लिए उसे ले जाया चाहते हैं तब इसी तरह भैंसे बांधकर हटाते जाते हैं। इनको शिकारी लोग 'मरी' भी कहते हैं।
ये लोग धीरे-धीरे टहलते और बातें करते जा रहे थे कि बाईं तरफ से शेर के गर्जने की आवाज आई जिसे सुनते ही चारों अटक गये और घूमकर उस तरफ देखने लगे जिधर से आवाज आई थी।
लगभग दो सौ गज की दूरी पर एक साधु शेर पर सवार जाता दिखाई पड़ा जिसकी लंबी-लंबी और घनी जटाएं पीछे की तरफ लटक रही थीं - एक हाथ में त्रिशूल, दूसरे में शंख लिए हुए था। इसकी सवारी का शेर बहुत बड़ा था और उसके गर्दन के बाल जमीन तक लटक रहे थे।
इसके आठ-दस हाथ पीछे एक शेर और जा रहा था जिसकी पीठ पर आदमी के बदले बोझ लदा हुआ नजर आया, शायद यह असबाब उन्हीं शेर-सवार महात्मा का हो।
शाम हो जाने के सबब साधु की सूरत साफ मालूम न पड़ी तो भी उसे देख इन चारों को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और कई तरह की बातें सोचने लगे।
इंद्र - इस तरह शेर पर सवार होकर घूमना मुश्किल है।
आनंद - कोई अच्छे महात्मा मालूम होते हैं।
भैरो - पीछे वाले शेर को देखिए जिस पर असबाब लदा हुआ है, किस तरह भेड़ की तरह सिर नीचा किये जा रहा है।
तारा - शेरों को बस में कर लिया है।
इंद्र - जी चाहता है उनके पास चलकर दर्शन करें।
आनंद - अच्छी बात है, चलिए पास से देखें, कैसा शेर है।
तारा - बिना पास गए महात्मा और पाखण्डी में भेद न मालूम होगा।
भैरो - शाम तो हो गई है, खैर चलिए आगे से बढ़कर रोकें।
आनंद - आगे से चलकर रोकने से बुरा न मानें!
भैरो - हम ऐयारों का पेशा ही ऐसा है कि पहले तो उनका साधु होना ही विश्वास नहीं करते!
इंद्र - आप लोगों की क्या बात है जिनकी मूंछ हमेशा ही मुंड़ी रहती है, खैर चलिए तो सही।
भैरो - चलिए।
चारों आदमी आगे चलकर बाबाजी के सामने गए जो शेर पर सवार जा रहे थे। इन लोगों को अपने पास आते देखकर बाबाजी रुक गए। पहले तो इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह के घोड़े शेरों को देखकर अड़े मगर फिर ललकारने से आगे बढ़े। थोड़ी दूर जाकर दोनों भाई घोड़ों के ऊपर से उतर पड़े, भैरोसिंह और तारासिंह ने दोनों घोड़ों को पेड़ से बांध दिया, इसके बाद पैदल ही चारों आदमी महात्मा के पास पहुंचे।
बाबाजी - (दूर से ही) आओ राजकुमार इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह - कहो कुशल तो है!
इंद्र - (प्रणाम करके) आपकी कृपा से सब मंगल है।
बाबा - (भैरोसिंह और तारासिंह की तरफ देखकर) कहो भैरो और तारा, अच्छे हो
दोनों - (हाथ जोड़कर) आपकी दया से!
बाबा - राजकुमार, मैं खुद तुम लोगों के पास जाने को था क्योंकि तुमने शेर का शिकार करने के लिए इस जंगल में डेरा डाला है। मैं गिरनार जा रहा हूं, घूमता-फिरता इस जंगल में भी आ पहुंचा। यह जंगल अच्छा मालूम होता है इसलिए दो-तीन दिन तक यहां रहने का विचार है, कोई अच्छी जगह देखकर धूनी लगाऊंगा। मेरे साथ सवारी और असबाब लादने के कई शेर हैं, इसलिए कहता हूं कि धोखे में मेरे किसी शेर को मत मारना नहीं तो मुश्किल होगी, सैकड़ों शेर पहुंचकर तुम्हारे लश्कर में हलचल मचा डालेंगे और बहुतों की जान जायगी। तुम प्रतापी राजा सुरेंद्रसिंह1 के लड़के हो इसलिए तुम्हें पहले ही से समझा देना मुनासिब है जिससे किसी तरह का दुख न हो।
इंद्र - महाराज मैं कैसे जानूंगा कि यह आपका शेर है ऐसा ही है तो शिकार न खेलूंगा।
बाबा - नहीं, तुम शिकार खेलो, मगर मेरे शेरों को मत मारो!
इंद्र - मगर यह कैसे मालूम होगा कि फलाना शेर आपका है
बाबा - देखो मैं अपने शेरों को बुलाता हूं पहचान लो।
बाबाजी ने शंख बजाया। भारी शंख की आवाज चारों तरफ जंगल में गूंज गई और हर तरफ से गुर्राहट की आवाज आने लगी। थोड़ी ही देर में इधर-उधर से दौड़ते हुए पांच शेर और आ पहुंचे। ये चारों दिलावर और बहादुर थे, अगर कोई दूसरा होता तो डर से उसकी जान निकल जाती। इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह के घोड़े शेरों को देखकर उछलने-कूदने लगे मगर रेशम की मजबूत बागडोर से बंधे हुए थे इससे भाग न सके। इन शेरों ने आकर बड़ी ऊधम मचाई - इंद्रजीतसिंह वगैरह को देख गरजने-कूदने और उछलने लगे, मगर बाबाजी के डांटते ही सब ठंडे हो सिर नीचा कर भेड़-बकरी की तरह खड़े हो गए।
बाबा - देखो इन शेरों को पहचान लो, अभी दो-चार और हैं, मालूम होता है उन्होंने शंख की आवाज नहीं सुनी। खैर अभी तो मैं इसी जंगल में हूं, उन बाकी शेरों को भी दिखला दूंगा - कल भर शिकार और बंद रखो।
भैरो - फिर आपसे मुलाकात कहां होगी आपकी धूनी किस जगह लगेगी
बाबा - मुझे तो यही जगह आनंद की मालूम होती है, कल इसी जगह आना मुलाकात होगी।
बाबाजी शेर से नीचे उतर पड़े और जितने शेर उस जगह आए थे वे सब बाबाजी के चारों तरफ घूमने तथा मुहब्बत से उनके बदन को चाटने और सूंघने लगे। ये चारों आदमी थोड़ी देर तक वहां और अटकने के बाद बाबाजी से विदा हो खेमे में आये।
जब सन्नाटा हुआ तो भैरोसिंह ने इंद्रजीतसिंह से कहा, “मेरे दिमाग में इस समय बहुत - सी बातें घूम रही हैं। मैं चाहता हूं कि हम लोग चारों आदमी एक जगह बैठ कुमेटी कर कुछ राय पक्की करें।”
इंद्रजीतसिंह ने कहा, “अच्छा, आनंद और तारा को भी इसी जगह बुलाओ।”
1. साधु महाराज भूल गए, वीरेंद्रसिंह की जगह सुरेंद्रसिंह का नाम ले बैठे।
भैरोसिंह गये और आनंदसिंह तथा तारासिंह को उसी जगह बुला लाए। उस वक्त सिवाय इन चारों के उस खेमे में और कोई न रहा। भैरोसिंह ने अपने दिल का हाल कहा जिसे सभी ने बड़े गौर से सुना, इसके बाद पहर भर तक कुमेटी करके निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।
यह कुमेटी कैसी हुई, भैरोसिंह का क्या इरादा हुआ और उन्होंने क्या निश्चय किया तथा रात भर ये लोग क्या करते रहे इसके कहने की कोई जरूरत नहीं, समय पर सब खुल जायगा।
सबेरा होते ही चारों आदमी खेमे के बाहर हुए और अपनी फौज के सरदार कंचनसिंह को बुला कुछ समझा, बाबाजी की तरफ रवाना हुए। जब लश्कर से दूर निकल गए, आनंदसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह तो तेजी के साथ चुनार की तरफ रवाना हुए और इंद्रजीतसिंह अकेले बाबाजी से मिलने गये।
बाबाजी शेरों के बीच धूनी रमाये बैठे थे। दो शेर उनके चारों तरफ घूम-घूमकर पहरा दे रहे थे। इंद्रजीतसिंह ने पहुंचकर प्रणाम किया और बाबाजी ने आशीर्वाद देकर बैठने के लिए कहा।
इंद्रजीतसिंह ने बनिस्बत कल के आज दो शेर और ज्यादे देखे। थोड़ी देर चुप रहने के बाद बातचीत होने लगी।
बाबा - कहो इंद्रजीतसिंह, तुम्हारे भाई और ऐयार कहां रह गए, वे नहीं आए
इंद्र - हमारे छोटे भाई आनंदसिंह को बुखार आ गया, इस सबब से वह नहीं आ सका। उसी की हिफाजत में दोनों ऐयारों को छोड़ मैं अकेला आपके दर्शन को आया हूं।
बाबा - अच्छा क्या हर्ज है, आज शाम तक वह अच्छे हो जायंगे, कहो आजकल तुम्हारे राज्य में कुशल तो है
इंद्र - आपकी कृपा से सब आनंद है।
बाबा - बेचारे वीरेंद्रसिंह ने भी बड़ा कष्ट पाया। खैर जो हो दुनिया में उनका नाम रह जायगा। इस हजार वर्ष के अंदर कोई ऐसा राजा नहीं हुआ जिसने तिलिस्म तोड़ा हो। एक और तिलिस्म है, असल में वही भारी और तारीफ के लायक है।
इंद्र - पिताजी तो कहते हैं कि वह तिलिस्म तेरे हाथ से टूटेगा।
बाबा - हां ऐसा ही होगा, वह जरूर तुम्हारे हाथ से फतह होगा इसमें कोई संदेह नहीं।
इंद्र - देखें कब तक ऐसा होता है, उसकी ताली का तो पता ही नहीं लगता।
बाबा - ईश्वर चाहेगा तो एक ही दो दिन में तुम उस तिलिस्म को तोड़ने में हाथ लगा दोगे, उस तिलिस्म की ताली मैं हूं, कई पुश्तों से हम लोग उस तिलिस्म के दारोगा होते चले आए हैं। मेरे परदादा, दादा और बाप उसी तिलिस्म के दारोगा थे, जब मेरे पिता का देहांत होने लगा तब उन्होंने उसकी ताली मेरे सुपुर्द कर मुझे उसका दारोगा मुकर्रर कर दिया। अब वक्त आ गया है कि मैं उसकी ताली तुम्हारे हवाले करूं क्योंकि वह तिलिस्म तुम्हारे नाम पर बांधा गया है और सिवाय तुम्हारे कोई दूसरा उसका मालिक नहीं बन सकता।
इंद्र - तो अब देर क्या है।
बाबा - कुछ नहीं, कल से तुम उसके तोड़ने में हाथ लगा दो, मगर एक बात तुम्हारे फायदे की हम कहते हैं।
इंद्र - वह क्या
बाबा - तुम उसके तोड़ने में अपने भाई आनंद को भी शरीक कर लो, ऐसा करने से दौलत भी दूनी मिलेगी और नाम भी दोनों भाइयों का दुनिया में हमेशा के लिए बना रहेगा।
इंद्र - उसकी तो तबियत ही ठीक नहीं!
बाबा - क्या हर्ज है! तुम अभी जाकर जिस तरह बने उसे मेरे पास ले आओ, मैं बात की बात में उसको चंगा कर दूंगा। आज ही तुम लोग मेरे साथ चलो जिससे कल तिलिस्म टूटने में हाथ लग जाय, नहीं तो साल भर फिर मौका न मिलेगा।
इंद्र - बाबाजी, असल तो यह है कि मैं अपने भाई की बढ़ती नहीं चाहता, मुझे यह मंजूर नहीं कि मेरे साथ उसका भी नाम हो।
बाबा - नहीं-नहीं, तुम्हें ऐसा न सोचना चाहिए, दुनिया में भाई से बढ़ के कोई रत्न नहीं है।
इंद्र - जी हां, दुनिया में भाई से बढ़ के रत्न नहीं तो भाई से बढ़ के कोई दुश्मन भी नहीं, यह बात मेरे दिल में ऐसी बैठ गई है कि उसके हटाने के लिए ब्रह्मा भी आकर समझावें-बुझावें तो भी कुछ नतीजा न निकलेगा।
बाबा - बिना उसको साथ लिये तुम तिलिस्म नहीं तोड़ सकते।
इंद्र - (हाथ जोड़कर) बस तो जाने दीजिये, माफ कीजिये, मुझे तिलिस्म तोड़ने की जरूरत नहीं1
बाबा - क्या तुम्हें इतनी जिद है
इंद्र - मैं कह जो चुका कि ब्रह्मा भी मेरी राय पलट नहीं सकते।
बाबा - खैर तब तुम्हीं चलो, मगर इसी वक्त चलना होगा।
इंद्र - हां, हां, मैं तैयार हूं, अभी चलिए।
बाबाजी उसी समय उठ खड़े हुए। अपनी गठड़ी-मुटड़ी बांध एक शेर पर लाद दिया तथा दूसरे पर आप सवार हो गए। इसके बाद एक शेर की तरफ देखकर कहा, “बच्चा गंगाराम, यहां तो आओ!” वह शेर तुरंत इनके पास आया। बाबाजी ने इंद्रजीतसिंह से कहा, “तुम इस पर सवार हो लो।” इंद्रजीतसिंह कूदकर सवार हो गये और बाबाजी के साथ-साथ दक्षिण का रास्ता लिया। बाबाजी के साथी शेर भी कोई आगे, कोई पीछे, कोई बायें, कोई दाहिने हो बाबाजी के साथ जाने लगे।
सब शेर तो पीछे रह गये मगर दो शेर जिन पर बाबाजी और इंद्रजीतसिंह सवार थे आगे निकल गये। दोपहर तक ये दोनों चलते गये। जब दिन ढलने लगा बाबाजी ने इंद्रजीतसिंह से कहा, “यहां ठहरकर कुछ खा-पी लेना चाहिए।” इसके जवाब में कुमार बोले, “बाबाजी, खाने-पीने की कोई जरूरत नहीं। आप महात्मा ही ठहरे, मुझे कोई भूख नहीं लगी है, फिर अटकने की क्या जरूरत है जिस काम में पड़े उसमें सुस्ती करना ठीक नहीं!”
बाबाजी ने कहा, “शाबाश! तुम बड़े बहादुर हो, अगर तुम्हारा दिल इतना मजबूत न होता तो तिलिस्म तुम्हारे ही हाथ से टूटेगा, ऐसा बड़े लोग न कह जाते, खैर चलो।”
कुछ दिन बाकी रहा जब ये दोनों एक पहाड़ी के नीचे पहुंचे। बाबाजी ने शंख बजाया, थोड़ी ही देर में चारों तरफ से सैकड़ों पहाड़ी लुटेरे हाथ में बरछे लिये आते दिखाई पड़े और ऐसे ही बीस-पचीस आदमियों को साथ लिए पूरब तरफ से आता हुआ राजा शिवदत्त नजर पड़ा जिसे देखते ही इंद्रजीतसिंह ने ऊंची आवाज में कहा, “इनको मैं पहचान गया, यही महाराज शिवदत्त हैं। इनकी तस्वीर मेरे कमरे में लटकी हुई है। दादाजी ने इनकी तस्वीर मुझे दिखाकर कहा था कि हमारे सबसे भारी दुश्मन ही महाराज शिवदत्त हैं। ओफ ओह, हकीकत में बाबाजी ऐयार ही निकले, जो सोचा था वही हुआ! खैर क्या हर्ज है, इंद्रजीतसिंह को गिरफ्तार कर लेना जरा टेढ़ी खीर है!!”
शिवदत्त - (पास पहुंचकर) मेरा आधा कलेजा तो ठंडा हुआ, मगर अफसोस तुम दोनों भाई हाथ न आये।
इंद्र - जी इस भरोसे न रहियेगा कि इंद्रजीतसिंह को फंसा लिया। उनकी तरफ बुरी निगाह से देखना भी काम रखता है!
ग्रंथकर्ता - भला इसमें भी कोई शक है!!
शब्दार्थ:
ऊपर जायें ↑ जंगलों की हिफाजत के लिए जो नौकर रहते हैं उनको बनरखे कहते हैं। शिकार खेलने का काम बनरखों का ही है। ये लोग जंगल में घूम-घूमकर और शिकारी जानवरों के पैरों के निशान देख और उसी अंदाज पर जाकर पता लगाते हैं कि शेर इत्यादि कोई शिकारी जानवर इस जंगल में है या नहीं, अगर है तो कहां है। बनरखों का काम है कि अपनी आंखों से देख आंवें तब खबर करें कि फलानी जगह पर शेर, चीता या भालू है।
ऊपर जायें ↑ खास शेर के शिकार में भैंसा बांधा जाता है। भैंसा बांधने के दो कारण हैं। एक तो शिकार को अटकाने के लिए अर्थात जब बनरखा आकर खबर दे कि फलाने जंगल में शेर है उस वक्त या कई दिनों तक अगर शिकार खेलने वाले को किसी कारण शिकार खेलने की फुरसत न हुई और शेर को अटकाना चाहा तो भैंसा बांधने का हुक्म दिया जाता है। बनरखे भैंसा ले जाते हैं और जिस जगह शेर का पता लगता है, उसके पास ही किसी भयानक और सायेदार जंगल या नाले में मबजूत खूंटा गाड़कर भैंसे को बांध देते हैं। जब शेर भैंसे की बू पाता है तो वहीं आता है और भैंसे को खाकर उसी जंगल में कई दिनों तक मस्त और बेफिक्र पड़ा रहता है। इस तरकीब से दो-चार भैंसा देकर महीनों शेर को अटका लिया जाता है। शेर को जब तक खाने के लिए मिलता है वह दूसरे जंगल में नहीं जाता। शेर का पेट अगर एक दफे खूब भर जाए तो उसे सात-आठ दिनों तक खाने की परवाह नहीं रहती। खुले भैंसे को शेर जल्दी नहीं मार सकता।