आपस में लड़ने वाले दोनों भाइयों के साथ जाकर सुबह की सफेदी निकलने के साथ ही कोतवाल ने माधवी की सूरत देखी और यह समझकर कि दीवान साहब को छोड़ महारानी अब मुझसे प्रेम रखा चाहती है बहुत खुश हुआ। कोतवाल साहब के गुमान में भी न था कि ऐयारों के फेर में पड़े हैं। उनको इंद्रजीतसिंह के कैद होने और वीरेंद्रसिंह के ऐयारों के यहां पहुंचने की खबर ही न थी। वह तो जिस तरह हमेशा रियाया लोगों के घर अकेले पहुंचकर तहकीकात किया करते थे उसी तरह आज भी सिर्फ दो अर्दली के सिपाहियों को साथ ले इन दोनों ऐयारों के फेर में पड़ घर से निकल पड़े थे।
कोतवाल साहब ने जब माधवी को पहचाना तो अपने सिपाहियों को उसके सामने ले जाना मुनासिब न समझा और अकेले ही माधवी के पास पहुंचे। देखा कि हकीकत में उन्हीं की तस्वीर सामने रखे माधवी उदास बैठी है।
कोतवाल साहब के देखते ही माधवी उठ खड़ी हुई और मुहब्बत भरी निगाहों से उनकी तरफ देखकर बोली -
“देखो मैं तुम्हारे लिए कितनी बेचैन हो रही हूं पर तुम्हें जरा भी खबर नहीं!”
कोत - अगर मुझे यकायक इस तरह अपनी किस्मत के जागने की खबर होती तो क्या मैं लापरवाह बैठा रहता कभी नहीं, मैं तो आप ही दिन - रात आपसे मिलने की उम्मीद में अपना खून सुखा रहा था।
माधवी - (हाथ का इशारा करके) देखो ये दोनों आदमी बड़े ही बदमाश हैं, इनको यहां से चले जाने के लिए कहो तो फिर हमसे - तुमसे बातें होंगी।
इतना सुनते ही कोतवाल साहब ने उन दोनों भाइयों की तरफ जो हकीकत में भैरोसिंह और तारासिंह थे कड़ी निगाह से देखा और कहा, “तुम दोनों अभी-अभी यहां से भाग जाओ नहीं तो बोटी-बोटी काटकर रख दूंगा।”
भैरोसिंह और तारासिंह वहां से चलते बने। इधर चपला जो माधवी की सूरत बनी हुई थी कोतवाल को बातों में फंसाये हुए वहां से दूर एक गुफा के मुहाने पर ले गई और बैठकर बातचीत करने लगी।
चपला माधवी की सूरत तो बनी मगर उसकी और माधवी की उम्र में बहुत कुछ फर्क था। कोतवाल भी बड़ा धूर्त और चालाक था। सूर्य की चमक में जब उसने माधवी की सूरत अच्छी तरह देखी और बातों में भी कुछ फर्क पाया फौरन उसे खुटका पैदा हुआ और वह बड़े गौर से उसे सिर से पैर तक देख अपनी निगाह के तराजू में तोलने और जांचने लगा। चपला समझ गई कि अब कोतवाल को शक पैदा हो गया, देर करना मुनासिब न जान उसने जफील (सीटी) बजाई। उसी समय गुफा के अंदर से देवीसिंह निकल आये और कोतवाल साहब से तलवार रख देने के लिए कहा।
कोतवाल ने भी जो सिपाही और शेरदिल आदमी था बिना लड़े-भिड़े अपने को कैदी बना देना पसंद न किया और म्यान से तलवार निकाल देवीसिंह पर हमला किया। थोड़ी ही देर में देवीसिंह ने उसे अपने खंजर से जख्मी किया और जमीन पर पटक उसकी मुश्कें बांध डालीं।
कोतवाल साहब का हुक्म पा भैरोसिंह और तारासिंह जब उनके सामने से चले गये तो वहां पहुंचे जहां कोतवाल के साथी दोनों सिपाही खड़े अपने मालिक के लौट आने की राह देख रहे थे। इन दोनों ऐयारों ने उन सिपाहियों को अपनी मुश्कें बंधवाने के लिए कहा मगर उन्होंने इन दोनों को साधारण समझ मंजूर न किया और लड़ने-भिड़ने को तैयार हो गये। उन दोनों की मौत आ चुकी थी, आखिर भैरोसिंह और तारासिंह के हाथ से मारे गये, मगर उसी समय बारीक आवाज में किसी ने इन दोनों ऐयारों को पुकारकर कहा, “भैरोसिंह और तारासिंह, अगर मेरी जिंदगी है तो बिना इसका बदला लिए न छोड़ूंगी!”
भैरोसिंह ने उस तरफ देखा जिधर से आवाज आई थी। एक लड़का भागता हुआ दिखाई पड़ा। ये दोनों उसके पीछे दौड़े मगर पा न सके क्योंकि उस पहाड़ी की छोटी-छोटी कंदराओं और खोहों में न मालूम कहां छिप उसने इन दोनों के हाथ से अपने को बचा लिया।
पाठक समझ गये होंगे कि इन दोनों ऐयारों को पुकारकर चिताने वाली वही तिलोत्तमा है जिसने बात करते-करते माधवी से इन दोनों ऐयारों के हाथ कोतवाल के फंस जाने का समाचार कहा था।

 

 


 

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