जख्मी इंद्रजीतसिंह को लिए हुए उनके ऐयार लोग वहां से दूर निकल गये और बेचारी किशोरी को दुष्ट अग्निदत्त उठाकर अपने घर ले गया। यह सब हाल देख तिलोत्तमा वहां से चलती बनी और बाग के अंदर कमरे में पहुंची। देखा कि सुरंग का दरवाजा खुला हुआ है और ताली भी उसी जगह जमीन पर पड़ी है। उसने ताली उठा ली और सुरंग के अंदर जा किवाड़ बंद करती हुई माधवी के पास पहुंची। माधवी की अवस्था इस समय बहुत ही खराब हो रही थी। दीवान साहब पर बिलकुल भेद खुल गया होगा यह समझ मारे डर के वह घबड़ा गई और उसे निश्चय हो गया कि अब किसी तरह कुशल नहीं है क्योंकि बहुत दिनों की लापरवाही में दीवान साहब ने तमाम रियाया और फौज को अपने कब्जे में कर लिया था। तिलोत्तमा ने वहां पहुंचते ही माधवी से कहा -
तिलो - अब क्या सोच रही है और क्यों रोती है मैंने पहले ही कहा था कि इन बखेड़ों में मत फंस, इसका नतीजा अच्छा न होगा! वीरेंद्रसिंह के ऐयार लोग बला की तरह जिसके पीछे पड़ते हैं उसका सत्यानाश कर डालते हैं, परंतु तूने मेरी बात न मानी, अब यह दिन देखने की नौबत पहुंची।
माधवी - वीरेंद्रसिंह का कोई ऐयार यहां नहीं आया, इंद्रजीतसिंह जबर्दस्ती मेरे हाथ से ताली छीनकर चले गये, मैं कुछ न कर सकी।
तिलो - आखिर तू उनका कर ही क्या सकती थी
माधवी - अब उन लोगों का क्या हाल है
तिलो - वे लोग लड़ते-भिड़ते तुम्हारे सैकड़ों आदमियों को यमलोक पहुंचाते निकल गये। किशोरी को अपने दीवान साहब उठा ले गये। जब उनके हाथ किशोरी लग गई तब उन्हें लड़ने-भिड़ने की जरूरत ही क्या थी किशोरी की सूरत देखकर तो आसमान की चिड़िया भी नीचे उतर आती है फिर दीवान साहब क्या चीज हैं अब वह दुष्ट इस धुन में होगा कि तुम्हें मार पूरी तरह से राजा बन जाये और किशोरी को रानी बनाये, तुम उसका कर ही क्या सकती हो!
माधवी - हाय, मेरे बुरे कर्मों ने मुझे मिट्टी में मिला दिया! अब मेरी किस्मत में राज्य नहीं है, अब तो मालूम होता है कि मैं भिखमंगिनों की तरह मारी-मारी फिरूंगी।
तिलो - हां अगर किसी तरह यहां से जान बचाकर निकल जाओगी तो भीख मांगकर भी जान बचा लोगी नहीं तो बस यह भी उम्मीद नहीं है।
माधवी - क्या दीवान साहब मुझसे इस तरह की बेमुरव्वती करेंगे
तिलो - अगर तुझे उन पर भरोसा है तो रह और देख कि क्या होता है, पर मैं तो अब एक पल टिकने वाली नहीं।
माधवी - अगर किशोरी उसके हाथ न पड़ गई होती तो मुझे किसी तरह की उम्मीद होती और कोई बहाना भी कर सकती थी मगर अब तो...
इतना कहकर माधवी बेतरह रोने लगी, यहां तक कि हिचकी बंध गईं और वह तिलोत्तमा के पैरों पर गिरकर बोली -
“तिलोत्तमा, मैं कसम खाती हूं कि आज से तेरे हुक्म के खिलाफ कोई काम न करूंगी।”
तिलो - अगर ऐसा है तो मैं भी कसम खाकर कहती हूं कि तुझे फिर उसी दर्जे पर पहुंचाऊंगी और वीरेंद्रसिंह के ऐयारों और दीवान साहब से भी ऐसा बदला लूंगी कि वे भी याद करेंगे।
माधवी - बेशक मैं तुम्हारा हुक्म मानूंगी और जो कहोगी सो करूंगी।
तिलो - अच्छा तो आज रात को यहां से निकल चलना और जहां तक जमा पूंजी अपने साथ चलते बने ले लेना चाहिए!
माधवी - बहुत अच्छा, मैं तैयार हूं, जब चाहो चलो, मगर यह तो कहो कि मेरी इन सखी-सहेलियों की क्या दशा होगी
तिलो - बुरों की संगत करने से जो फल सब भोगते हैं सो ये भी भोगेंगी। मैं इनका कहां तक खयाल करूंगी जब अपने पर आ बनती है तो कोई किसी की खबर नहीं लेता।
दीवान अग्निदत्त किशोरी को लेकर भागे तो सीधे अपने घर में आ घुसे। ये किशोरी की सूरत पर ऐसे मोहित हुए कि तनोबदन की सुध जाती रही। सिपाहियों ने इंद्रजीतसिंह और उनके ऐयारों को गिरफ्तार किया या नहीं अथवा उनकी बदौलत सभों की क्या दशा हुई इसकी परवाह तो उन्हें जरा न रही, असल तो यह है कि इंद्रजीतसिंह को वे पहचानते भी न थे।
बेचारी किशोरी की क्या दशा थी और वह किस तरह रो-रोकर अपने सिर के बाल नोच रही थी इसके बारे में इतना ही कहना बहुत है कि अगर दो दिन तक उसकी यही दशा रही तो किसी तरह जीती न बचेगी और ‘हा इंद्रजीतसिंह, हा इंद्रजीतसिंह’ कहते प्राण छोड़ देगी।
दीवान साहब के घर में उनकी जोरू और किशोरी ही के बराबर की एक कुंआरी लड़की थी जिसका नाम कामिनी था और वह जितनी खूबसूरत थी उतनी ही स्वभाव की भी अच्छी थी। दीवान साहब की स्त्री का भी स्वभाव और चाल-चलन अच्छा था, मगर वह बेचारी अपने पति के दुष्ट स्वभाव बुरे व्यवहारों से बराबर दुखी रहा करती थी और डर के मारे कभी किसी बात में कुछ रोक-टोक न करती, तिस पर भी आठ-दस दिन पीछे वह अग्निदत्त के हाथ से जरूर मार खाया करती।
बेचारी किशोरी को अपनी जोरू और लड़की के हवाले कर हिफाजत करने के अतिरिक्त समझाने-बुझाने की भी ताकीद कर दीवान साहब बाहर चले आये और अपने दीवानखाने में बैठ सोचने लगे कि किशोरी को किस तरह राजी करना चाहिए। यह औरत कौन और किसकी लड़की है, जिन लोगों के साथ यह थी वे लोग कौन थे, और यहां आकर धूम-फसाद मचाने की उन्हें क्या जरूरत थी चाल-ढाल और पोशाक से तो वे ऐयार मालूम पड़ते थे मगर यहां उन लोगों के आने का क्या सबब था इसी सब सोच-विचार में अग्निदत्त को आज स्नान तक करने की नौबत न आई। दिन भर इधर-उधर घूमते तथा लाशों को ठिकाने पहुंचाते और तहकीकात करते बीत गया मगर किसी तरह इस बखेड़े का ठीक पता न लगा, हां महल के पहरे वालों ने इतना कहा कि दो-तीन दिन से तिलोत्तमा हम लोगों पर सख्त ताकीद रखती थी और हुक्म दे गई थी कि ‘जब मेरे चलाये बम के गोले की आवाज तुम लोग सुनो तो फौरन मुस्तैद हो जाओ और जिसको आते देखो गिरफ्तार कर लो।’
अब दीवान साहब का शक माधवी और तिलोत्तमा के ऊपर हुआ और देर तक सोचने-विचारने के बाद उन्होंने निश्चय कर लिया कि इस बखेड़े का हाल बेशक ये दोनों पहले ही से जानती थीं मगर यह भेद मुझसे छिपाये रखने का कोई विशेष कारण अवश्य है।
चिराग जलने के बाद अग्निदत्त अपने घर पहुंचा। किशोरी के पास न जाकर निराले में अपनी स्त्री को बुलाकर उसने पूछा, “उस औरत की जुबानी कुछ हाल-चाल तुम्हें मालूम हुआ या नहीं’
अग्निदत्त की स्त्री ने कहा, “हां, उसका हाल मालूम हो गया। वह महाराज शिवदत्त की लड़की है और उसका नाम किशोरी रानी है। राजा वीरेंद्रसिंह के लड़के इंद्रजीतसिंह पर माधवी मोहित हो गई थी और उनको अपने यहां किसी तरह से फंसा लाकर खोह में रख छोड़ा था। इंद्रजीतसिंह का प्रेम किशोरी पर था इसलिए उसने ललिता को भेजकर धोखा दे किशोरी को भी अपने फंदे में फंसा लिया था। वह कई दिनों से यहां कैद थी और वीरेंद्रसिंह के ऐयार लोग भी कई दिनों से इसी शहर में टिके हुए थे। किसी तरह मौका मिलने पर इंद्रजीतसिंह किशोरी को ले खोह से बाहर निकल आये और यहां तक नौबत आ पहुंची।”
राजा वीरेंद्रसिंह और उनके ऐयारों का नाम सुन मारे डर के अग्निदत्त कांप उठा, बदन के रोंगटे खड़े हो गए, घबराया हुआ बाहर निकल आया और अपने दीवानखाने में पहुंच मसनद के ऊपर गिर भूखा-प्यासा आधी रात तक यही सोचता रह गया कि अब क्या करना चाहिए।
अग्निदत्त समझ गया कि कोतवाल साहब को जरूर वीरेंद्रसिंह के ऐयारों ने पकड़ लिया है और अब किशोरी को अपने यहां रखने से किसी तरह जान न बचेगी, तिस पर भी वह किशोरी को छोड़ना नहीं चाहता था और सोचते-विचारते जब उसका जी ठिकाने आता तब यही कहता कि ‘चाहे जो हो, किशोरी को कभी न छोड़ूंगा!’
किशोरी को अपने यहां रखकर सलामत रहने की सिवाय इसके उसे कोई तरकीब न सूझी कि वह माधवी को मार डाले और स्वयं राजा हो बैठे। आखिर इसी सलाह को उसने ठीक समझा और अपने घर से निकल माधवी से मिलने के लिए महल की तरफ रवाना हुआ, मगर वहां पहुंचकर बिल्कुल बातें मामूल के खिलाफ देख और भी ताज्जुब में हो गया। उसे उम्मीद थी कि खोह का दरवाजा बंद होगा मगर नहीं, खोह का दरवाजा खुला हुआ था और माधवी की कुल सखियां जो खोह के अंदर रहती थीं, महल में ऊपर-नीचे चारों तरफ फैली हुई थीं और रोती हुई इधर-उधर माधवी को खोज रही थीं।
रात आधी से ज्यादा जा चुकी थी, बाकी रात भी दीवान साहब ने माधवी की सखियों का इजहार लेने में बिता दी और दिन-रात पूरा अखंड व्रत किये रहे। देखना चाहिए इसका फल उन्हें क्या मिलता है
शुरू से लेकर माधवी के भाग जाने तक का हाल उसकी सखियों ने दीवान साहब को कह सुनाया। आखिर में कहा, “सुरंग की ताली माधवी अपने पास रखती थी इसलिए हम लोग लाचार थीं, यह सब हाल आपसे कह न सकीं।”
अग्निदत्त दांत पीसकर रह गया। आखिर यह निश्चय किया कि कल दशहरा (विजयदशमी) है, गद्दी पर खुद बैठ राजा बन और किशोरी को रानी बना नजरें लूंगा फिर जो होगा देखा जायगा। सुबह को वह जब अपने घर पहुंचा और जैसे ही पलंग पर जाकर लेटना चाहा वैसे ही तकिए के पास एक तह किये हुए कागज पर उसकी नजर पड़ी। खोलकर देखा तो उसी की तस्वीर मालूम पड़ी, छाती पर चढ़ा हुआ एक भयानक सूरत का आदमी उसके गले पर खंजर फेर रहा था। इसे देखते ही वह चौंक पड़ा। डर और चिंता ने उसे ऐसा पटका कि बुखार चढ़ आया मगर थोड़ी ही देर में चंगा हो घर के बाहर निकल फिर तहकीकात करने लगा।