ऐयारों और थोड़े से लड़कों के सिवाय नाहरसिंह को साथ लिए हुए भीमसेन राजगृही की तरफ रवाना हुआ। उसका साथी नाहरसिंह बेशक लड़ाई के फन में बहुत ही जबर्दस्त था। उसे विश्वास था कि कोई अकेला आदमी लड़कर कभी मुझसे जीत नहीं सकता। भीमसेन भी अपने को ताकतवर और होशियार लगाता था मगर जब से लोभवश नाहरसिंह ने उसकी नौकरी कर ली और आजमाइश के तौर पर दो-चार दफे नाहरसिंह और भीमसेन से नकली लड़ाई हुई तब से भीमसेन को मालूम हो गया कि नाहरसिंह के सामने वह एक बच्चे के बराबर है। नाहरसिंह लड़ाई के फन में जितना होशियार और ताकतवर था उतना ही नेक और ईमानदार भी था और उसका यह प्रण करना बहुत ही मुनासिब था कि उसे जिस दिन जो कोई जीतेगा वह उसी दिन से उसकी ताबेदारी कबूल कर लेगा।
ये लोग पहले राजगृही में पहुंचे और एक गुप्त खोह में डेरा डालने के बाद भीमसेन ने ऐयारों को वहां का हाल मालूम करने के लिए मुस्तैद किया। दो ही दिन की कोशिश में ऐयारों ने कुल हाल वहां का मालूम कर लिया और भीमसेन ने जब यह सुना कि माधवी वहां मौजूद नहीं है तब बिना छेड़छाड़ मचाए गयाजी की तरफ कूच किया।
इस समय राजगृही को अपने कब्जे में कर लेना भीमसेन के लिए कोई बड़ी बात न थी, मगर इस खयाल से कि गयाजी में राजा वीरेंद्रसिंह की अमलदारी हो गई है राजगृही दखल करने से कोई फायदा न होगा और वीरेंद्रसिंह के मुकाबले में लड़कर भी जीतना बहुत ही मुश्किल है उसने राजगृही का खयाल छोड़ दिया। सिवाय इसके जाहिर होकर वह किसी तरह किशोरी को अपने कब्जे में कर भी नहीं सकता था, उसे लुक-छिपकर पहले किशोरी ही पर सफाई का हाथ दिखाना मंजूर था।
गयाजी के पास पहुंचते ही एक गुप्त और भयानक पहाड़ी में उन लोगों ने डेरा डाला और खबर लेने के लिए ऐयारों को रवाना किया। जिस तरह भीमसेन के ऐयार लोग घूम-घूमकर टोह लिया करते थे उसी तरह माधवी की सखी तिलोत्तमा भी अपना काम साधने के लिए भेष बदलकर चारों तरफ घूमा करती थी। इत्तिफाक से भीमसेन के ऐयारों की मुलाकात तिलोत्तमा से हो गई और बहुत जल्द माधवी की खबर भीमसेन को तथा भीमसेन की खबर माधवी को लग गई।
भीमसेन के साथ जितने लड़के थे उन सभों को खोह में ही छोड़ सिर्फ भीमसेन और नाहरसिंह को माधवी ने उस मकान में बुला लिया जिसका हाल हम ऊपर लिख चुके हैं।
आज किशोरी के घर में घुसकर आफत मचाने वाले ये ही भीमसेन और नाहरसिंह हैं। अपने ऐयारों की मदद से उस मकान के बगल वाले खंडहर में घुसकर भीमसेन ने उस मकान में सेंध लगाई और उस सेंध की राह नाहरसिंह ने अंदर जाकर जो कुछ किया पाठकों को मालूम ही है।
नाहरसिंह मकान के अंदर घुसकर उसी सेंध की राह किशोरी को लेकर बाहर निकल आया और उस बेचारी को जमीन पर गिराकर मालिक के हुक्म के मुताबिक उसे मार डालने पर मुस्तैद हुआ। मगर एक बेकसूर औरत पर इस तरह जुल्म करने का इरादा करते ही उस जवांमर्द का कलेजा दहल गया। वह किशोरी को जमीन पर रख दूर जा खड़ा हुआ और भीमसेन से जो मुंह पर नकाब डाले उस जगह मौजूद था बोला, "लीजिए, इसके आगे जो कुछ करना है आप ही कीजिए। मेरी हिम्मत नहीं पड़ती! मगर मैं आपको भी...!"
हाथ में खंजर लेकर भीमसेन फौरन बेचारी किशोरी की छाती पर जो उस समय डर के मारे बेहोश थी जा चढ़ा, साथ ही इसके किशोरी की बेहोशी भी जाती रही और उसने अपने को मौत के पंजे में फंसा हुआ पाया जैसे कि हम ऊपर लिख आये हैं।
भीमसेन ने खंजर उठाकर ज्यों ही किशोरी को मारना चाहा, पीछे से किसी ने उसकी कलाई थाम ली और खंजर लिये उसके मजबूत हाथ को बेबस कर दिया। भीमसेन ने फिरकर देखा तो एक साधु की सूरत नजर पड़ी। वह किशोरी को छोड़ उठ खड़ा हुआ और उसी खंजर से उसने साधु पर वार किया।
यह साधु वही है जो रामशिला पहाड़ी के सामने फलगू नदी के बीच में भयानक टीले पर रहता था जिसके पास मदद के लिए माधवी और तिलोत्तमा का जाना और उन्हीं के पास देवीसिंह का पहुंचना भी हम लिख आये हैं। इस समय साधु इस बात पर मुस्तैद दिखाई देता है कि जिस तरह बने इन दुष्टों के हाथों से बेचारी किशोरी को बचावे।
चांदनी रात में दूर खड़ा नाहरसिंह यह तमाशा देखता रहा मगर भीमसेन को साधु से जबर्दस्त समझकर मदद के लिए पास न आया। भीमसेन के चलाए हुए खंजर ने साधु का कुछ भी नुकसान न किया और उसने खंजर का वार बचाकर फुर्ती से भीमसेन के पीछे जा उसकी टांग पकड़कर इस ढंग से खींची कि भीमसेन किसी तरह सम्हल न सका और धम्म से जमीन पर गिर पड़ा। उसके गिरते ही साधु हट गया और बोला, "उठ खड़ा हो और फिर आकर लड़!"
गुस्से में भरा हुआ भीमसेन उठ खड़ा हुआ और खंजर जमीन पर फेंक साधु से लिपट गया क्योंकि वह कुश्ती के फन में अपने को बहुत होशियार समझता था, मगर साधु से कुछ पेश न गई। थोड़ी ही देर में साधु ने भीमसेन को सुस्त कर दिया और कहा, "जा मैं तुझे छोड़ देता हूं, अगर अपनी जिंदगी चाहता है तो अभी यहां से भाग जा।"
भीमसेन हैरान होकर साधु का मुंह देखता रह गया, कुछ जवाब न दे सका। जमीन पर पड़ी हुई बेचारी किशोरी यह कैफियत देख रही थी मगर डर के मारे न तो उससे उठा जाता था और न वह चिल्ला ही सकती थी।
भीमसेन को इस तरह बेदम देखकर नाहरसिंह से न रहा गया। वह झपटकर साधु के पास आया और ललकारकर बोला, "अगर बहादुरी का दावा रखता है तो इधर आ। मैं समझ गया कि तू साधु नहीं बल्कि मक्कार है।"
साधु महाशय नाहरसिंह से भी उलझने को तैयार हो गये मगर ऐसी नौबत न आई क्योंकि उसी समय ढूंढ़ते हुए सेंध की राह से कुंअर इंद्रजीतसिंह और तारासिंह भी खंडहर में आ पहुंचे और उनके पीछे-पीछे किन्नरी और कमला भी आ मौजूद हुईं। कुंअर इंद्रजीतसिंह को देखते ही वे साधुराम तो हट गये और खंडहर की दीवार फांद न मालूम कहां चले गये। उधर एक पेड़ के पास गड़े हुए अपने नेजे को नाहरसिंह ने उखाड़ लिया और उसी से इंद्रजीतसिंह का मुकाबला किया। उधर तारासिंह ने उछलकर एक लात भीमसेन को ऐसी लगाई कि वह किसी तरह सम्हल न सका, तुरंत जमीन पर लोट गया। भीमसेन एक लात खाकर जमीन पर लोट जाने वाला न था मगर साधु के साथ लड़कर वह बदहवास और सुस्त हो रहा था इसलिए तारासिंह की लात से सम्हल न सका। तारासिंह ने भीमसेन की मुश्कें बांध लीं और उसे एक किनारे रख के नाहरसिंह की लड़ाई का तमाशा देखने लगा।
आधे घंटे तक नाहरसिंह और इंद्रजीतसिंह के बीच लड़ाई होती रही। इंद्रजीतसिंह की तलवार ने नाहरसिंह के नेजे को टुकड़े कर दिया और नाहरसिंह की ढाल पर बैठकर कुंअर इंद्रजीतसिंह की तलवार कब्जे से अलग हो गई। थोड़ी देर के लिए दोनों बहादुर ठहर गए। कुंअर इंद्रजीतसिंह की बहादुरी देख नाहरसिंह बहुत खुश हुआ और बोला -
नाहर - शाबाश! तुम्हारे ऐसा बहादुर मैंने आज तक नहीं देखा।
इंद्र - ईश्वर की सृष्टि में एक से एक बढ़के पड़े हैं, तुम्हारे या हमारे ऐसों की बात ही क्या है।
नाहर - आपका कहना बहुत ठीक है, मेरा प्रण क्या है आप जानते हैं
इंद्र - कह जाइए, अगर नहीं जानता हूं तो अब मालूम हो जायेगा।
नाहर - मैंने प्रण किया है कि जो कोई लड़कर मुझे जीतेगा मैं उसकी ताबेदारी कबूल करूंगा।
इंद्र - तुम्हारे ऐसे बहादुर का यह प्रण बेमुनासिब नहीं है। फिर आइए कुश्ती से निपटारा कर लिया जाय।
नाहर - बहुत अच्छा आइए!
दोनों में कुश्ती होने लगी। थोड़ी ही देर में कुंअर इंद्रजीतसिंह ने नाहरसिंह को जमीन पर दे मारा और पूछा, "कहो अब क्या इरादा है"
नाहर - मैं ताबेदारी कबूल करता हूं।
इंद्रजीतसिंह उसकी छाती पर से उठ खड़े हुए और इधर-उधर देखने लगे। चारों तरफ सन्नाटा था। किशोरी, किन्नरी या कमला का कहीं पता नहीं, भीमसेन और उसके साथियों का भी (अगर कोई वहां हो) नाम-निशान नहीं, यहां तक कि अपने ऐयार तारासिंह की सूरत भी उन्हें दिखाई न दी।
इंद्र - यह क्या! चारों तरफ सन्नाटा क्यों छा गया
नाहर - ताज्जुब है! इसके पहले तो यहां कई आदमी थे, न मालूम वे सब कहां गए
इंद्र - तुम कौन हो और तुम्हारे साथ कौन था
नाहर - मैं आपका ताबेदार हूं, मेरे साथ शिवदत्तसिंह का लड़का भीमसेन और इसके पहले मैं उसका नौकर था, आशा है कि आप भी अपना परिचय मुझे देंगे।
इंद्र - मेरा नाम इंद्रजीतसिंह है।
नाहर - हैं!!
नाम सुनते ही नाहरसिंह उनके पैरों पर गिर पड़ा और बोला, "मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूं कि उसने मुझे आपकी ताबेदारी में सौंपा! यदि किसी दूसरे की ताबेदारी कबूल करनी पड़ती तो मुझे बड़ा दुख होता!"
नाहरसिंह ने सच्चे दिल से कुमार की ताबेदारी कबूल की। इसके बाद बड़ी देर तक दोनों बहादुर चारों तरफ घूम-घूमकर उन लोगों को ढूंढ़ते रहे मगर किसी का पता न लगा, हां एक पेड़ के नीचे भीमसेन दिखाई पड़ा जिसके हाथ-पैर कमंद से मजबूत बंधे हुए थे। भीमसेन ने पुकारकर कहा, "क्यों नाहरसिंह! क्या मेरी मदद न करोगे"
नाहर - अब मैं तुम्हारा ताबेदार नहीं हूं।
इंद्र - (भीमसेन से) तुम्हें किसने बांधा?
भीम - मैं पहचानता तो नहीं मगर इतना कह सकता हूं कि आपके साथी ने।
इंद्र - और वह बाबाजी कहां चले गये?
भीम - क्या मालूम?
इतने में ही खंडहर की दीवार फांदकर आते हुए तारासिंह भी दिखाई पड़े। इंद्रजीतसिंह घबड़ाए हुए उनकी तरफ बढ़े और पूछा, "तुम कहां चले गये थे?"
तारा - जिस समय हम लोग यहां आये थे एक बाबाजी भी इस जगह मौजूद थे मगर न मालूम कहां चले गये! मैं एक आदमी की मुश्कें बांध रहा था कि उसी समय (हाथ का इशारा करके) उस झाड़ी में छिपे कई आदमी बाहर निकले और किशोरी को जबर्दस्ती उठाकर उसी तरफ ले चले। उन लोगों को जाते देख किन्नरी और कमला भी उसी तरफ लपकीं। मैंने यह सोचकर कि कहीं ऐसा न हो कि आपको लड़ाई के समय धोखा देकर वह आदमी पीछे से आप पर वार करे झटपट उसकी मुश्कें बांधी और फिर मैं भी उसी तरफ लपका जिधर वे लोग गये थे। वहां कोने में खुली हुई खिड़की नजर आई, मैं यह सोच उस खिड़की के बाहर गया कि बेशक इसी राह से वे लोग निकल गये होंगे।
इंद्र - फिर कुछ पता लगा
तारा - कुछ भी नहीं, न मालूम वे लोग किधर गायब हो गये! मैं आपको लड़ते हुए छोड़ गया था इसलिए तुरंत लौट आया। अब आप घर चलिए, आपको पहुंचाकर मैं उन लोगों को खोज निकालूंगा। (नाहरसिंह की तरफ इशारा करके) इनसे क्या निपटारा हुआ
इंद्र - इन्होंने मेरी ताबेदारी कबूल कर ली।
तारा - सो तो ठीक है, मगर दुश्मन का...
नाहर - आप इन सब बातों को न सोचिये, ईश्वर चाहेगा तो आप मुझे बेईमान कभी न पावेंगे!
तारा - ईश्वर ऐसा ही करे!
रात की अंधेरी बिल्कुल जाती रही और अच्छी तरह सबेरा हो गया, मुहल्ले के कई आदमी उस खिड़की की राह खंडहर में चले आये और अपने राजा को वहां पा हैरान हो देखने लगे। कुंअर इंद्रजीतसिंह, तारासिंह और नाहरसिंह अपने साथ भीमसेन को लिए हुए महल में पहुंचे और इंद्रजीतसिंह ने सब हाल अपने भाई आनंदसिंह से कहा।
आज रात की वारदात ने दोनों कुमारों को हद से ज्यादे तरद्दुद में डाल दिया। किन्नरी और किशोरी के इस तरह मिलकर भी पुनः गायब हो जाने से दोनों ही पहले से ज्यादा उदास हुए और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

 

 


 

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